परमजीत सिंह वोहरा
गरीबी के स्तर को कम करने के लिए हमें प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने पर भी ध्यान देना चाहिए। अभी भारत इस मामले में दुनिया के एक सौ पच्चीसवें स्थान पर है। एक दशक पहले प्रति व्यक्ति आय करीब अस्सी हजार रुपए सालाना थी, जो अब बढ़ कर 1.70 लाख रुपए से ज्यादा हो चुकी है। हालांकि, अब भी अस्सी करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें सरकार गरीब मानती और उन्हें मुफ्त खाद्यान्न वितरण करती है।
जुलाई में नीति आयोग ने राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक संबंधी रपट जारी की। यह रपट भारत के आर्थिक विकास, राज्यों की आर्थिक स्थिति तथा भारतीय समाज में गरीबी और निर्धनता के विभिन्न आयामों को विस्तृत रूप से प्रस्तुत करती है। इस रपट का प्रारंभिक विश्लेषण बताता है कि भारत में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की तादाद लगातार कम हो रही है।
2015-16 में विभिन्न मापदंडों पर आधारित बहुआयामी राष्ट्रीय गरीबी सूचकांक देश की आबादी का 24.85 फीसद था, वह अब गिर कर 2019 से 2021 के आंकड़ों के आधार पर 14.96 फीसद दर्ज हुआ है। इस सूचकांक में हुई गिरावट की वजह से इस बात का भी अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2015 से 2021 के दौरान साढ़े तेरह करोड़ भारतीय अपने आर्थिक और सामाजिक जीवन स्तर को गरीबी रेखा से ऊपर निकाल पाए हैं। इसमें सकारात्मक पक्ष यह है कि भारत में शहरों की तुलना में ग्रामीण आबादी का अधिक हिस्सा गरीबी रेखा से ऊपर उठा है।
इस रपट में इंगित किया गया है कि 2021 तक पिछले छह सालों में भारत की ग्रामीण आबादी का 13.31 फीसद भाग गरीबी रेखा से बाहर निकला है, तो वहीं शहरों में इस दौरान मात्र 3.38 फीसद का परिवर्तन दर्ज हुआ है। हालांकि आज भी भारत की ग्रामीण आबादी का लगभग 19 फीसद भाग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहा है और निश्चित तौर पर उसके पीछे का मुख्य कारण कृषि क्षेत्र के अलावा कोई अन्य रोजगार उपलब्ध न होना है। इसके साथ-साथ कृषि क्षेत्र का भारत की अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में लगातार पिछड़ना भी एक मुख्य कारण रहा है। इस रपट में बताया गया है कि इस वक्त भारत में शहरी आबादी का लगभग 6 फीसद हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहा है।
गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले निर्धन व्यक्तियों से आशय यह कतई नहीं है कि उनके पास रोज की रोजी-रोटी का जुगाड़ नहीं है। नीति आयोग की यह रपट राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक को कुल 12 आयामों पर जांचती तथा उसे अनुमानित करती है। इनमें स्वास्थ्य, शिक्षा और उन्नत जीवन शैली मुख्य रूप से सम्मिलित है।
स्वास्थ्य में तीन मुख्य बिंदुओं का विश्लेषण किया जाता है, जिसमें बच्चों, महिलाओं और पुरुषों द्वारा उपयोग में लिए जाने वाले पोषण की मात्रा, बाल और किशोर मृत्युदर की संख्या तथा मातृ स्वास्थ्य पर विभिन्न आंकड़ों को सम्मिलित और विश्लेषित किया जाता है। शिक्षा के अंतर्गत बच्चों का विद्यालय में बिताए जाने वर्ष और उनकी उपस्थिति को मुख्य आधार बनाया जाता है।
इसके अलावा लोगों की रहन-सहन की स्थिति को प्रभावित करने वाले विभिन्न आयामों के अंतर्गत घर में खाना बनाने के लिए उपयोग में आने वाले र्इंधन के प्रकार, स्वच्छता, साफ पानी की सुविधा, रहने के लिए घर, बिजली की सुविधा, कुछ प्रकार की संपत्तियां, बैंक खाते की सुविधा आदि सम्मिलित हैं।
नीति आयोग की ताजा रपट में इन तीनों आयामों में बहुत परिवर्तन दर्ज किए गए हैं। अगर खाद्य पदार्थों में सम्मिलित पोषक तत्त्वों की बात की जाए, तो भारत में वर्ष 2015 से वर्ष 2021 के दौरान तकरीबन 6 फीसद का परिवर्तन दर्ज हुआ है। पहले तकरीबन 37 फीसद आबादी के खाद्य पदार्थों में पोषक तत्त्व नहीं मिलते थे, जो आज 31 फीसद के आसपास है।
वहीं दूसरी तरफ बाल व किशोर मृत्यु का आंकड़ा वर्तमान समय में 2 फीसद है, लेकिन मां का स्वास्थ्य इसलिए चिंता का विषय है कि यह आंकड़ा 19 फीसद दर्ज है। उसी तरह शिक्षा पर बात की जाए, तो स्कूल में बिताए जाने वाले वर्षों की संख्या तथा उपस्थिति के दिनों में कोई बहुत आमूलचूल परिवर्तन दर्ज नहीं हुआ है, पर निश्चित तौर पर भारत में अब यह नहीं कहा जा सकता कि आबादी का एक बड़ा भाग साक्षर नहीं है।
तीसरा और मुख्य आयाम, जिसके अंतर्गत जीवन शैली के विभिन्न पक्षों को गरीबी सूचकांक द्वारा निर्धारित किया जाता है, उनमें सबसे ज्यादा परिवर्तन घरों में बिजली की सुविधा है। अब देश की आबादी का लगभग 3 फीसद हिस्सा ही इन सुविधाओं से वंचित है। उसी तरह बैंकिंग सुविधाओं पर भी यह आंकड़ा 3 से 4 फीसद के बीच ही दर्ज हुआ है।
दूसरी तरफ चिंता का सबब यह भी है कि खाना पकाने के ईंधन, जिनमें एलपीजी मुख्य है, उससे तकरीबन 44 फीसद लोग आज भी वंचित हैं। 30 फीसद आबादी के जीवन में स्वच्छता और साफ-सफाई की सुविधाओं का अभाव है। एक और अचंभित करने वाली बात यह देखने को मिली कि आज भी देश की तकरीबन 7 फीसद आबादी साफ पीने के पानी की सुविधा से वंचित है। इस रपट में कहा गया है कि अगर आपको 30 मिनट तक चलने से आसपास कहीं भी साफ पीने के पानी की सुविधा उपलब्ध होती है तो आपकी जीवन शैली उन्नत है।
नीति आयोग की इस रपट के अनुसार सबसे अधिक गरीबी बिहार में है, जो कि उसकी जनसंख्या का एक तिहाई (33.7 फीसद) है। इसके आलावा झारखंड, मेघालय, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में यह क्रमश: 28.81, 27.79, 22.93 और 20.63 फीसद है। शेष सभी राज्यों में यह उनकी आबादी का 20 फीसद से कम है। सबसे कम गरीबी सूचकांक 0.55 फीसद केरल में है।
गौरतलब है कि राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक की पिछली दो रपटों के दौरान सबसे अधिक गरीबी सूचकांक में कमी (18.13 फीसद) बिहार में दर्ज की गई है। वहीं एक अन्य विचारणीय बिंदु यह भी है कि गुजरात, जो कि भारत का सबसे अधिक विकसित तथा प्रति व्यक्ति आय में सबसे ज्यादा संपन्न राज्य है, वहां पर भी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या 11 फीसद से अधिक है। वहीं पश्चिम बंगाल, जिसकी प्रति व्यक्ति आय गुजरात से तकरीबन आधी है, में पिछले 7 वर्षों में 9.4 फीसद व्यक्ति गरीबी रेखा से बाहर निकले हैं। गुजरात में यह आंकड़ा लगभग 7 फीसद ही रहा है।
यह बात निश्चित तौर पर विश्लेषण में आनी चाहिए कि जीडीपी के साथ-साथ तुलनात्मक रूप से प्रति व्यक्ति आय में भी तर्कसंगत वृद्धि होना जरूरी है, अन्यथा भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले मुल्क में गरीबी हमेशा समाज के एक तिहाई हिस्से को अपनी गिरफ्त में बनाए रखेगी, जो कि हमारे देश के लिए बहुत असहनीय है।
आर्थिक बागडोर पिछले दो-तीन दशकों से निजी क्षेत्र के कंधों पर है और लगातार अर्थव्यवस्था में हो रही प्रगति, जिसे जीडीपी में विस्तार के हिसाब से मापा जा सकता है, का अंतत: परिणाम यह हो रहा है कि समाज में अमीरी और गरीबी का अंतर लगातार बढ़ रहा है। गरीबी के स्तर को कम करने के लिए हमें प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने पर भी ध्यान देना चाहिए।
अभी भारत इस मामले में दुनिया के एक सौ पच्चीसवें स्थान पर है। एक दशक पहले प्रति व्यक्ति आय करीब अस्सी हजार रुपए सालाना थी, जो अब बढ़कर 1.70 लाख रुपए से ज्यादा हो चुकी है। हालांकि, अब भी अस्सी करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें सरकार गरीब मानती और उन्हें मुफ्त खाद्यान्न वितरण करती है।
भारत में लगातार आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है, क्योंकि अमीरों के पास धन-संपदा अधिक है तथा गरीब आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। नीति आयोग का यह गरीबी सूचकांक खुद मानता है कि मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता पूरे समाज में अभी तक नहीं पहुंची है। इसीलिए यह एक आम सोच बन चुकी है कि भारत जैसे मुल्क में गरीबी का पूर्ण उन्मूलन संभव नहीं है।