पंचायती राज व्यवस्था देश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था है। इसके अंतर्गत ग्राम के स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लाक या तालुका स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद कार्य करती है। वर्ष 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद ने बलवंत राय मेहता समिति की रिपोर्ट के अनुरूप 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने देश की पहली त्रि-स्तरीय पंचायती राज्य व्यवस्था का उद्घाटन किया था।
पंचायती राज संस्थाएं स्थानीय सरकार के रूप में गांव के विशेष क्षेत्रों जैसे स्वास्थ्य, महिला विकास, बच्चों की प्राथमिक शिक्षा, बाल विकास, स्थानीय सरकार में महिलाओं की भागीदारी, कृषि विकास और रोजगार के अवसर सृजित करने आदि से जुड़ी क्रियाओं के संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इस व्यवस्था के अंतर्गत विकास कार्यों हेतु केंद्र और राज्य सरकारें बड़ी मात्रा में धनराशि उपलब्ध कराती हैं।
इसके अलावा, ग्राम पंचायतों की आय का मुख्य स्रोत घरों, बाजार, सार्वजनिक स्थानों आदि पर करों का संग्रह है, साथ ही जनपद और जिला पंचायतों के माध्यम से सरकार के विभिन्न विभागों के माध्यम से प्राप्त सरकारी योजना निधि, सामुदायिक कार्यों के लिए दान आदि हैं।
24 अप्रैल, 1993 को भारत में पंचायती राज व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाने के लिए तिहतरवें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया। यह महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के स्वप्न को वास्तविकता में बदलने की दिशा में बढ़ाया गया महत्त्वपूर्ण कदम था।
इस संशोधन के जरिए पंचायती राज व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने हेतु एक त्रि-स्तरीय ढांचे की स्थापना, ग्राम स्तर पर ग्रामसभा की स्थापना, हर पांच वर्ष में पंचायतों के नियमित चुनाव, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटों का आरक्षण, महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों का आरक्षण, पंचायतों की निधियों में सुधार के लिए उपाय सुझाने हेतु राज्य वित्त आयोगों के गठन जैसे महत्त्वपूर्ण प्रावधान किए गए।
देश में दो लाख 60 हजार से अधिक पंचायतों में 31 लाख से अधिक निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं और इसमें महिला प्रतिनिधियों की संख्या करीब 14 लाख है। पंद्रहवें वित्त आयोग ने ग्राम पंचायतों को आगामी पांच वर्ष में दो लाख 36 हजार करोड़ रुपए देने की अनुशंसा की है। इस अनुशंसा को सरकार ने पूर्णत: स्वीकार कर लिया है। इस राशि से गावों में बुनियादी सुविधाओं का विकास होना है।
पंद्रहवें वित्त आयोग द्वारा ग्रामीण स्थानीय निकायों को वर्ष 2020-26 की अवधि के लिए 2,97,555 करोड़ रुपए के अनुदान के साथ आबंटित किया गया है, जिसके प्रभावी उपयोग हेतु सामाजिक लेखा परीक्षा प्रक्रिया और पंचायती राज मंत्रालय के ‘आनलाइन एप्लिकेशन’ के मध्यम से ‘आनलाइन आडिट’ की व्यवस्था की गई है।
कोई भी समुदाय जब अपने हित से जुड़े कार्यों या मुद्दों की देखरेख और निगरानी करके उसका मूल्यांकन करता है, तो यह व्यवस्था सामाजिक अंकेक्षण के अंतर्गत आती है। इसमें समुदाय संबंधित विकास कार्यों तथा कार्यक्रमों की उपयोगिता, उनकी गुणवत्ता, लागत तथा उसकी सार्थकता आदि का विश्लेषण स्थानीय लोगों द्वारा किया जाता है।
सरकारों द्वारा बड़ी राशि पंचायती राज संस्थाओं को उपलब्ध कराई जाती है, इसलिए उसके नियमित लेखा परीक्षण के साथ-साथ सामाजिक अंकेक्षण जरूरी हो जाता है। सामाजिक अंकेक्षण स्थानीय विकास की जरूरतों और उपलब्ध संसाधनों में तालमेल बिठाने और इनके बीच भौतिक और वित्तीय आवश्यकताओं के बीच विचलन का पता लगा कर उसे दूर करने के लिए किए जाने वाले उपायों की दृष्टि से महत्त्पूर्ण होता है।
यह इनके लाभार्थियों और प्रदाताओं के बीच जागरूकता पैदा करने और स्थानीय विकास कार्यक्रमों की प्रभावशीलता में वृद्धि करने में भी सहायक होता है। सामाजिक अंकेक्षण में लेखा परीक्षक, आंतरिक लेखा परीक्षक, बाहरी लेखा परीक्षक, स्वतंत्र लेखा परीक्षक और स्थानीय लोगों के समूह की सहयता ली जाती है।
पंचायती राज संस्थाओं की योजनाओं या कार्यों के क्रियान्वयन हेतु किए जाने वाले कार्यों का कम से कम तीन चरणों में सामाजिक अंकेक्षण होता है। पहला, कार्य की शुरुआत में, दूसरा कार्य के मध्यम में तथा तीसरा कार्य के अंतिम रूप में। यह उल्लेखनीय है कि मनरेगा योजना के क्रियान्वयन के ग्यारह चरणों के दौरान सार्वजनिक निगरानी और पुष्टि की व्यवस्था का समावेश किया गया है, जिनमें परिवारों का पंजीकरण, जाब कार्ड का वितरण, कार्य आवेदन प्राप्ति, कार्य एवं स्थलों का चयन, तकनीकी आकलन तथा उनका अनुमोदन और कार्य आदेश जारी करना, व्यक्तियों को कार्य आबंटन, कार्यों का क्रियान्वयन तथा पर्यवेक्षण, बेरोजगारी भत्ते तथा मजदूरी का भुगतान आदि शामिल हैं।
इनसे जुड़े कार्यों का मूल्यांकन सामाजिक अंकेक्षण के अंतर्गत किया जाता है। सामाजिक अंकेक्षण लोक सेवकों की जवाबदेही सुनिश्चित करता और स्थानीय विकास कार्यक्रमों की प्रभावशीलता को बढ़ाता है। यह स्थानीय विकास गतिविधियों की योजनाओं और उनके कार्यान्वयन में सूचना के अधिकार को लागू करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिससे इनमें पारदर्शिता आती है। यह भी सामाजिक अंकेक्षण का ही एक रूप है।
अगर जमीनी स्तर पर देखें, तो पंचायतों के पास वित्त प्राप्ति का कोई मजबूत आधार नहीं है। उन्हें राज्य सरकारों पर निर्भर रहना पड़ता है। राज्य सरकारों द्वारा उपलब्ध कराया गया वित्त किसी विशेष मद में खर्च करने के लिए होता है। इससे वे दूसरे जरूरी कार्य नहीं करवा पातीं। कई राज्यों में पंचायतों का निर्वाचन नियत समय पर नहीं हो पाता। बहुत-सी पंचायतों में जहां महिला प्रमुख हैं, वहां कार्य उनके किसी पुरुष रिश्तेदार के आदेश पर होता है, महिलाएं नाममात्र की प्रमुख होती हैं।
पंच पति और सरपंच पति की प्रचलित अवधारणा से पंचायतों में महिला आरक्षण का उद्देश्य नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। क्षेत्रीय राजनीतिक संगठन पंचायतों के मामलों में हस्तक्षेप करते हैं, जिससे उनके कार्य और निर्णय भी प्रभावित होते हैं। इस व्यवस्था में कई बार पंचायतों के निर्वाचित सदस्यों और राज्य द्वारा नियुक्त पदाधिकारियों के बीच सामंजस्य बनाना मुश्किल हो जाता है, जिससे पंचायतों के विकास कार्य प्रभावित होते हैं। प्रभावी सामाजिक अंकेक्षण की व्यवस्था इन समस्याओं के समाधान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
पंचायती राज संस्थाओं में सुधार की दृष्टि से व्यापक उपाय किए जाने चाहिए। इन संस्थाओं को कर लगाने के अधिक अधिकार देना, वित्त आयोग द्वारा इनके लिए अधिक राशि का आबंटन करना, इनके द्वारा खुद अपने वित्तीय संसाधनों में वृद्धि करना जैसे उपाय किए जा सकते हैं। पंचायती राज संस्थाओं को और अधिक कार्यपालिकीय अधिकार दिए जाएं और बजट आबंटन के साथ ही समय-समय पर विश्वसनीय लेखा परीक्षण भी कराया जाना चाहिए।
लेखा परीक्षण के साथ-साथ प्रभावी सामाजिक अंकेक्षण व्यवस्था हेतु स्थानीय समुदाय की व्यापक और सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसके लिए स्थानीय निवासी, वहां आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने वाले व्यक्ति, सरकारी विभागों और संगठनों से जुड़े लोगों को शामिल करके देश में पंचायती राज की कल्पना, जो इस व्यवस्था को लागू करते समय की गई थी, उसको साकार किया जा सकता है।