पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी हत्याकांड के ठीक बाद 1991 का लोकसभा चुनाव हुआ था। 1989 में कई तरह के आरोपों, खास तौर पर बोफोर्स केस की वजह से सत्ता खोने के बाद, कांग्रेस 1991 के इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। हालांकि पार्टी ने जिन 487 सीटों पर चुनाव लड़ा, उनमें से 232 सीटें ही हासिल कर सकीं, जो कि बहुमत के लिए जरूरी 272 सीटों से काफी कम थी। नए प्रधानमंत्री के रूप में पीवी नरसिम्हा राव का नाम आश्चर्यजनक विकल्प के रूप में सामने आया।
आर्थिक उदारीकरण और अयोध्या विवाद बड़ी चुनौती थी
राव का कार्यकाल चुनौतियों से भरा रहा। सबसे बड़ा आर्थिक संकट था, जो देश की व्यापक आर्थिक स्थिरता को खतरे में डाल रहा था। राव के कार्यकाल में 1991 में आर्थिक उदारीकरण के कदम उठाए गए। लेकिन देश राजनीतिक मोर्चे पर भी तेजी से बदल रहा था, बीजेपी के नेतृत्व में रामजन्मभूमि आंदोलन के कारण 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ। दो साल बाद, ये दो महत्वपूर्ण मुद्दे राव के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का आधार बनें।
1993 के मानसून सत्र में सीपीएम नेता ने लाया था अविश्वास प्रस्ताव
यह अविश्वास प्रस्ताव 26 जुलाई, 1993 को मानसून सत्र में सीपीएम के अजॉय मुखोपाध्याय ने पेश किया था। उन्होंने अविश्वास प्रस्ताव को लाने के पीछे सरकार की “आईएमएफ और विश्व बैंक के प्रति पूरी तरह सरेंडर करने वाली जन-विरोधी आर्थिक नीतियों को अपनाने” को वजह बताई थी। उन्होंने कहा, “इसके चलते बेरोजगारी, महंगाई बढ़ रही है और देश की आत्म निर्भरता खत्म हो रही है तथा भारतीय उद्योगों और किसानों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव प्रभाव पड़ रहा है… सांप्रदायिक ताकतों के प्रति समझौतावादी रवैये के परिणामस्वरूप अयोध्या विवाद और उसके बाद उत्पन्न हुए संविधान के धर्मनिरपेक्ष आधार पर खतरे से निपटने में विफलता हुई। अयोध्या में मस्जिद ढांचे के विध्वंस के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा नहीं देना; और सामाजिक न्याय लागू करने में विफलता।”
1991 में बहुमत से काफी कम सीट पाई थी कांग्रेस पार्टी
उस समय लोकसभा में 528 सदस्य थे, जिसमें कांग्रेस (आई) की संख्या 251 थी। इसका मतलब था कि पार्टी के पास साधारण बहुमत के लिए 13 सदस्य कम थे। अविश्वास प्रस्ताव पर तीन दिन तक बहस चलती रही। उस साल 28 जुलाई को जब अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग हुई तब पक्ष में 251 और विपक्ष में 265 वोट पड़े। यानी अविश्वास प्रस्ताव 14 वोटों से गिर गया। इसके तीन साल बाद रिश्वत का मामला सामने आया।
राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के रवींद्र कुमार ने की थी रिश्वत की शिकायत
1998 में अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मामले का हवाला देते हुए कहा कि “राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के रवींद्र कुमार ने 1 फरवरी 1996 को केंद्रीय जांच ब्यूरो के पास एक शिकायत दर्ज कराई थी। जुलाई 1993 में राव, सतीश शर्मा, अजीत सिंह, भजन लाल, वी सी शुक्ला, आर के धवन और ललित सूरी ने 28 जुलाई, 1993 को सदन के फ्लोर पर सरकार का बहुमत साबित करने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों, व्यक्तियों और समूहों के सांसदों को 3 करोड़ रुपये से अधिक की राशि का रिश्वत देकर ‘एक आपराधिक साजिश’ रची थी। और उक्त आपराधिक साजिश को आगे बढ़ाने के लिए 1.10 करोड़ रुपये की राशि इन लोगों ने सूरज मंडल को सौंपी थी।
सीबीआई ने मंडल, शिबू सोरेन, साइमन मरांडी और शल्लेंद्र महतो सहित झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों के खिलाफ मामले दर्ज किए। संसद में जेएमएम के कुल छह सांसद थे। फैसले में सीबीआई जांच का हवाला दिया गया, जिसमें कहा गया था कि जेएमएम नेताओं ने “प्रस्ताव के खिलाफ वोट करने के लिए अवैध रिश्वत स्वीकार की और, उनके वोटों और कुछ अन्य वोटों के कारण राव के नेतृत्व वाली सरकार बच गई।”
पांच सदस्यीय पीठ द्वारा पारित फैसले में न्यायमूर्ति एसपी भरूचा ने अंततः कहा: “… कोई भी सांसद संसद में जो कहा है उसके लिए कानून की अदालत या किसी समान ट्रिब्यूनल में जवाबदेह नहीं है। यह फिर से इस तथ्य की मान्यता है कि एक सदस्य को अपने खिलाफ कार्यवाही के भय से बिना डरे संसद में जो सही लगता है उसे कहने की आजादी की जरूरत है। वोट, चाहे ध्वनि (Voice) से या इशारे से या मशीन की सहायता से डाला गया हो, भाषण जैसा या भाषण के विकल्प के रूप में माना जाता है और उसे बोले गए शब्द की तरह ही सुरक्षा दी जाती है।”
भरूचा ने कहा, “कथित रिश्वत लेने वालों के अपराध की गंभीरता के बारे में हम पूरी तरह से सचेत हैं। यदि यह सच है, तो उन्होंने उन लोगों किए गये सबसे पवित्र भरोसे का सौदा किया, जिनका वे प्रतिनिधित्व करते थे। उनके लिये हुए धन से उन्होंने एक सरकार को बचाए रखने में सक्षम बनाया। फिर भी वे उस सुरक्षा के हकदार हैं, जो संविधान उन्हें स्पष्ट रूप से सौंपता है। हमारे आक्रोश की भावना को हमें प्रभावी संसदीय भागीदारी और बहस की गारंटी को बिगाड़ते हुए संविधान को संकीर्ण रूप से समझने के लिए प्रेरित नहीं करना चाहिए।
फैसले में बेंच ने कहा: “सबसे ऊपर, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि अनुच्छेद 105 (2) और 194 (2) का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संसद और राज्य विधानमंडलों के सदस्य आजादी के माहौल में अपने कर्तव्यों का पालन करने में सक्षम हैं, बिना किसी डर के कि जिस तरीके से वे बोलते हैं या सदन में अपने वोट देने के अधिकार का प्रयोग करते हैं, उसके परिणाम क्या हो सकते हैं। इसका उद्देश्य स्पष्ट रूप से विधानमंडल के सदस्यों को ऐसे व्यक्तियों के रूप में अलग करना नहीं है जो देश के सामान्य आपराधिक कानून के आवेदन से प्रतिरक्षा के संदर्भ में उच्च विशेषाधिकार प्राप्त करते हैं।
जेएमएम का गठन 1973 में एक अलग झारखंड राज्य की स्थापना के लिए किया गया था। सन 2000 में इसन अपना उद्देश्य पूरा कर लिया। जेएमएम के पास राज्य में तब से पांच बार सीएम पद रहे हैं: 2 मार्च 2005 से 12 मार्च 2005 तक शिबू सोरेन; 27 अगस्त 2008 से 18 जनवरी 2009 तक फिर शिबू सोरेन; 13 जुलाई 2013 से 28 दिसंबर 2014 तक हेमंत सोरेन; 2019 से अभी तक फिर हेमन्त सोरेन हैं।