वर्ष 2021 के दौरान म्यांमा में तख्तापलट विरोधी प्रदर्शनकारियों पर सेना की दमनात्मक कार्रवाई के शुरुआती दिनों में आंदोलनकारियों ने यह पूछना शुरू कर दिया था कि अभी और कितनी मौतें देखने के बाद विश्व समुदाय हरकत में आएगा। दक्षिण-पूर्व एशियाई देश में सैन्य शासन स्थापित करने वाले तख्तापलट के दो साल से अधिक समय बाद, लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनकारियों का कहना है कि उन्हें अभी तक उचित जवाब नहीं मिला है।

ग्यारह अप्रैल, 2023 को देश के सशस्त्र बलों ने सागैंग क्षेत्र स्थित गांव पाजीगी में एक सभा पर कई बम गिराए, जिसमें कई बच्चों समेत लगभग 100 लोग मारे गए। इस तरह के हमले असामान्य नहीं हैं। सागैंग नरसंहार के एक दिन पहले, म्यांमा वायु सेना ने चिन राज्य के फलम में बम गिराए, जिसमें 11 लोगों की मौत हो गई।

मानवाधिकार समूह ‘असिस्टेंस एसोसिएशन फार पालिटिकल प्रिजनर्स’ के अनुसार, जब से गृहयुद्ध छिड़ा है, तब से करीब 3240 नागरिक और लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ता मारे गए हैं। इसके जवाब में, एक उग्र प्रतिरोध आंदोलन उभरा है, जिसमें सैन्य ठिकानों के खिलाफ घात लगाकर हमला करने और अन्य गुरिल्ला रणनीति का उपयोग करने वाले लगभग 65,000 लड़ाके शामिल हैं।

जानकारों के मुताबिक, बढ़ती हिंसा के लिए दो मुख्य कारकों – एक आंतरिक और एक बाहरी – को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। आंतरिक कारक के तहत सेना ने म्यांमा के लोगों के प्रतिरोध को लेकर गलत अनुमान लगाया जबकि बाहरी कारक, अंतरराष्ट्रीय समुदाय में असमंजस की स्थिति है। वर्ष 2021 में जब से सैन्य जनरल ने देश का नियंत्रण अपने हाथ में लिया है, तब से म्यांमा में लगभग हर दिन सेना द्वारा हत्याएं होती रही हैं। तख्तापलट ने नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की के नेतृत्व वाले दल ‘नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी’ के तहत लोकतांत्रिक शासन को समाप्त कर दिया।

हालांकि, यह सुझाव देने के कारण हैं कि म्यांमा की सेना ने तख्तापलट के समय की पूरी तरह से गलत गणना की और लोकतंत्र के तहत अनुभव की गई स्वतंत्रता और समृद्धि छिन जाने को लेकर लोगों की भावना को कम करके आंका। शायद इसमें पड़ोसी देश थाईलैंड में अपने समकक्षों के अनुभव का अनुसरण करके सेना गुमराह हो गई।

वर्ष 2014 के दौरान थाईलैंड में सैन्य जनरल ने राजनीतिक अस्थिरता समाप्त करने और लोकतांत्रिक शासन की प्रक्रिया शुरू करने का वादा करते हुए तख्तापलट किया था। उस तख्तापलट को छिटपुट विरोधों का सामना करना पड़ा, लेकिन प्रतिक्रिया में कोई एकीकृत सशस्त्र प्रतिरोध सामने नहीं आया था। इसी तर्ज पर म्यांमा सेना ने भी ‘निष्पक्ष चुनाव’ कराने का हवाला देकर तख्तापलट किया। थाईलैंड के विपरीत, म्यांमा की जनता – विशेष रूप से युवा पीढ़ी – ने सैन्य तख्तापलट का जमकर विरोध किया और इस दावे पर संदेह किया कि यह लोकतंत्र को बहाल करेगा। तख्तापलट के बाद शांतिपूर्ण विरोध, सशस्त्र प्रतिरोध में बदल गया।

लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ताओं का कहना है कि म्यांमा को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर असमंजस की स्थिति के कारण हालात में बहुत अधिक बदलाव नहीं हो रहा है। साथ ही, रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध शुरू होने के बाद से अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान म्यांमा के मुद्दे पर काफी कम है।

म्यांमा और नागा

म्यांमा में नागा जनजाति के लोग भी काफी तादाद में हैं। उनके संबंध मणिपुर, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में रहने वाले नागा जनजाति के लोगों से हैं। म्यांमा से चिन समुदाय के लोगों के मिजोरम पलायन का इतिहास तीन दशकों से भी ज्यादा पुराना है। वर्ष 1988 में म्यांमा में लोकतंत्र के समर्थन में हुए विरोध प्रदर्शन के दौरान भी सैन्य बलों के कथित अत्याचार के बाद चिन समुदाय के कई लोग सीमा इलाके के अलावा घने जंगलों के रास्ते या फिर नदी पार करके मिजोरम की राजधानी आइजोल पहुंचे थे।