उत्तर प्रदेश (यूपी) चुनावों की जब भी बात होती है तो ये मान लिया जाता है कि दलित और मुस्लिम वोट बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को सत्ता में वापस ला सकते हैं। यूपी में दलित और मुस्लिम आबादी करीब 40 प्रतिशत है। कई लोग ये मानते हैं कि पिछले कुछ सालों में यूपी में हुए दंगो के बाद मुसलमान मतदाता समाजवादी पार्टी (सपा) से दूर जा सकते हैं। लेकिन पिछले कुछ चुनावों के नतीजों को देखें तो मायावती का दलित जनाधार चुनाव दर चुनाव सिकड़ुता जा रहा है। यानी बसपा दूसरी जातियों के समर्थन के बिना चुनावी जीत नहीं हासिल कर सकती। मायावती के अब तक की चुनावी जीत में बसपा को अगड़ी जातियों खासकर ब्राह्मणों का समर्थन काफी अहम रहा है।
2004 के लोक सभा चुनाव में बसपा ने राज्य की अनुसूचित जाति (एससी) के लिए आरक्षित 17 सीटों में से केवल पांच पर जीत हासिल की थी। 2009 के लोक सभा चुनाव में बसपा ने यूपी की 20 संसदीय सीटों पर जीत हासिल की थी लेकिन एससी सीट के मामले में पार्टी का आंकडा़ बुरा रहा और उसे केवल दो सीटों पर जीत मिली। 2014 के लोक सभा चुनाव में बसपा को करीब 20 प्रतिशत वोट मिले लेकिन वो एक भी सीट जीतने में विफल रही।
2012 के विधान सभा चुनाव में बसपा को करीब 25.9 प्रतिशत और सपा को 29.13 प्रतिशत वोट मिले। लेकिन बसपा राज्य की 85 सुरक्षित विधान सभा सीटों में से केवल 15 पर जीत हासिल कर सकी थी। वहीं सपा ने इनमें से 58 सीटों पर विजय हासिल की थी। साल 2009 में बसपा ने 47 सीटों पर जीत हासिल की थी। कई सीटों पर बसपा प्रत्याशियों का हार का अंतर पांच हजार वोटों से कम रहा था। राज्य की 80 संसदीय सीटों में से 67 (करीब 85 प्रतिशत) पर बसपा सीधी टक्कर में थी। जाहिर है कि बसपा की इस सफलता में केवल दलित वोटों का हाथ नहीं था।
आगरा के उदाहरण से साफ होता है कि केवल दलित वोटों से बसपा को जीत नहीं हासिल होती। प्रदेश के सर्वाधिक दलित आबादी वाले आगरा से आज तक बसपा का कोई प्रत्याशी संसदीय चुनाव नहीं जीत पाया है। चुनाव दर चुनाव बसपा का मूल जनाधार माना जाने वाला जाटव वोट और गैर-जाटव वोट सपा और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की तरफ खिसकता जा रहा है। इन आंकड़ों से लगता है कि बसपा को दूसरी पार्टियों से ज्यादा दूसरे समुदायों के वोटों की जरूरत है। शायद यही वजह है कि सुरक्षित सीटों को छोड़कर बाकी सीटों पर दलितों को बसपा का टिकट नहीं दिया जाता।
बसपा के एक पूर्व सांसद कहते हैं, “एक ब्राह्मण अपने साथ सात छोटी जातियां लेकर आता है।” इस पूर्व सांसद के बयान से यूपी के जातिगत समीकरण और ब्राह्मणों का महत्व समझ आता है। सूबे में करीब 10 प्रतिशत ब्राह्मण वोट हैं और शायद ही किसी पार्टी को ये पूरा वोट एकमुश्त मिलता हो। ब्राह्मणों के पास कम नेता हैं और मझोली और निचली जातियों की तरह उन्हें कम ही लुभाने की कोशिश की जाती है लेकिन स्थानीय मामलों में उनका उल्लेखनीय प्रभाव होता है। बसपा ने ब्राह्मण वोट बैंक का महत्व पहले समझ लिया था। उसे इस बात का अहसास था कि जाटवों का ठाकुरों, जाटों, यादवों और यहां तक कि मुसलमानों के साथ हिंसा का लंबा इतिहास रहा है। लेकिन ब्राह्मणों के साथ उनका शायद ही कभी टकराव हुआ है।
बसपा के राज्य सभा सांसद सतीश मिश्रा और अलीगढ़ का उपाध्याय परिवार जिसके अगुवा रामवीर हैं पिछले दो दशकों से पार्टी में अहम भूमिका निभाते आ रहे हैं। बसपा ने करीब 30 प्रतिशत वोटों के साथ 2007 में जीत हासिल की थी। बसपा ने मिश्रा को आगे करके बड़ी संख्या में ब्राह्मण वोट पाने में कामयाबी पायी थी। बसपा की जीत में “सर्वजन” के नारे और “सोशल इंजीनियरिंग” की बड़ी भूमिका रही। लेकिन 2014 के चुनाव में मायावती ने यूपी की 80 संसदीय सीटों में से 21 पर ब्राह्मणों को टिकट दिया था लेकिन कोई भी जीत नहीं हासिल कर सका।
बसपा के पूर्व सांसद कहते हैं, “ये मानना गलत है कि 2007 में ब्राह्मणों ने बसपा को वोट दिया था। उन्होंने अपने समुदाय को वोट दिया था क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं था।” आगामी विधान सभा चुनाव के लिए भी मायावती ने करीब 50 ब्राह्मणों को टिकट दिया है। और शायद ये ब्राह्मण समाज का सबसे बड़ा प्रतिनिधित्व होगा।
आगामी चुनाव में मायावती का ध्यान सबसे ज्यादा मुसलमान वोटरों पर है। बसपा ने करीब 125 मुसलमानों को विधान सभा का टिकट दिया है। नसीमुद्दीन सिद्दीकी और उनके बेटे अफजल बसपा का मुस्लिम चेहरा हैं। दोनों मुसलमानों तक ये संदेश लेकर जा रहे हैं कि 2014 के लोक सभा चुनाव में यूपी से एक भी मुसलमान सांसद नहीं बन सका। वो पूछते हैं, “क्या आप लोग ये चाहते हैं कि इस बार भी यही हो?” दलित वोटों के उलट पिछले कई चुनावों से बसपा का मुस्लिम वोट बढ़ता गया है। 2002 में बसपा को 9.7 प्रतिशत, 2007 में 17.6 प्रतिशत और 2012 में 20.4 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिला था। लेकिन यूपी में सरकार बनाने के लिए मायावती को मुसलमानों का 60-70 प्रतिशत वोट चाहिए होंगे ताकि वो दलित-मुस्लिम एकजुटता के दम पर सरकार बना सकें।
मथुरा में दर्जी का काम करने वाले आमिर खान कहते हैं, “बहुत से मुस्लिम पारंपरिक तौर पर जाटवों और वाल्मीकियों को नापसंद करते हैं।” यूपी में जाटवों और वाल्मीकियों और उच्च जाति के शेख, सैय्यद और पठान मुसलमानों के बीच टकराव की कई कहानियां हैं। मूलतः यूपी के बाराबंकी के निवासी लेकिन फिलहाल मुंबई में रहने वाले कारोबारी नदीम सिद्दीकी कहते हैं, “बसपा को हिंदू और मुस्लिम दोनों की अगड़ी जातियों पर ध्यान देना चाहिए। अमीर मुसलमान सपा को वोट देंगे।” नदीम अक्सर यूपी जाते रहते हैं। वो सोशल मीडिया पर भी खुलकर बसपा का समर्थन करते हैं।
सिद्दीकी कहते हैं, “बसपा ने ज्यादातर टिकट निचली जाति के मुसलमानों को दिए हैं।” सिद्दीकी कुरैशी, अंसारी और सुलेमानी जैसी जातियों की तरफ इशारा कर रहे हैं। सिद्दीकी कहते हैं, “कानून-व्यवस्था के मामले में मैं मायावती की तारीफ करता हूं लेकिन पठान और शेख कुरैशी और अंसारी को वोट नहीं देंगे।” सिद्दीकी खुद पठान हैं। वो कहते हैं, “मैं कई व्हाट्सऐप ग्रुप में सदस्य हूं। वो सपा को समर्थन देते हैं।” जाहिर है कि हिंदुओं की तरह मुसलमान भी एकजुट होकर वोट नहीं करते। वो भी जाति इत्यादि के आधार पर ही वोट करते हैं।
अगर मायावती के 60 मुस्लिम प्रत्याशी आगामी विधान सभा चुनाव में जीत जाएं और उन्हें 85 एससी सीटों में से 60 (अभी बपसा के पास केवल 15 हैं) पर जीत मिल जाए तो भी उनके पास कुल 120 विधायक ही होंगे। यानी बहुमत के लिए उन्हें 80 और विधायकों की जरूरत होगी। दूसरी दिक्कत ये भी है कि अगर ये संदेश गया कि मुसलमान एकजुट होकर किसी एक पार्टी को वोट दे रहे हैं तो हिंदू वोटों का भी ध्रुवीकरण हो सकता है। यूपी में 2014 को लोक सभा चुनाव में ऐसा हो भी चुका है जब भाजपा ने बसपा से जाटव वोट भी झटक लिए थे।
बसपा के पूर्व सांसद कहते हैं, “जाटवों और कुछ अन्य दलित समुदायों को छोड़कर उनके पास कोई भी ठोस जनाधार नहीं है।” यानी बहुमत पाने के लिए बपसा को अगड़ी जातियों खासकर 50 ब्राह्मण उम्मीदवारों की तरफ देखना होगा।