प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी और गूगल के भारतीय मूल के मुख्य कार्यकारी सुंदर पिचाई उन 50 ग्लोबल सेलेब्रिटीज में शामिल हैं, जिनके नाम टाइम पत्रिका के ‘पर्सन आफ द ईयर’ सम्मान की लिस्ट में शामिल हैं। ‘टाइम पर्सन आफ द ईयर’ 2015 की घोषणा अगले महीने होगी और पत्रिका ने कहा कि यह सम्मान उस व्यक्ति को दिया जाएगा, जो अच्छी या बुरी वजहों से सबसे अधिक चर्चा में रहे हैं। टाइम ने कहा कि मोदी ने भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहित किया और वह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के आधुनिकीकरण की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उन्हें उन विवादों का भी सामना करना पड़ा, जिन्हें कुछ लोग दक्षिणपंथी अतिवाद मानते हैं।
क्या हुआ था पिछले साल?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए 2014 बेहद खास रहा था। इस साल उनकी लीडरशिप में बीजेपी पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में आई थी। दिल्ली में देश की बागडोर संभालने के बाद मोदी के दम पर बीजेपी ने हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी जीत दर्ज की थी, लेकिन वह ‘टाइम पर्सन ऑफ द ईयर’ नहीं बन सके थे। 2014 में उनके फैंस को यही एक बात निराश कर गई थी। पिछले साल सबसे ज्यादा वोट पाने के बाद भी नरेंद्र मोदी को टाइम पर्सन ऑफ द ईयर नहीं चुना गया था। रीडर्स पोल में उन्हें नरेंद्र मोदी को सबसे ज्यादा 16 प्रतिशत वोट मिले थे। टाइम के पोल में कुल 50 लाख लोगों ने वोट डाले गए थे। इस वजह से टाइम मैगजीन पर पक्षपात के भी आरोप लगे थे। सोशल मीडिया पर सवाल उठने लगे थे कि अगर रीडर्स पोल को मानना ही नहीं था तो टाइम ने सर्वे कराया ही क्यों? जब रीडर्स पोल में मोदी जीते तो ‘इबोला फाइटर्स’ को ‘टाइम पर्सन ऑफ द ईयर’ क्यों बनाया गया? ये सवाल अपनी जगह जायज हैं, लेकिन टाइम का भी अपना इतिहास रहा है. आइये जानते हैं उन फैक्टर्स को जिनकी वजह से 2014 में मोदी नहीं बन पाए थे ‘टाइम पर्सन ऑफ द ईयर।’
क्या है टाइम की पॉलिसी?
2007 के बाद टाइम ने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, मार्क जकरबर्ग, पोप फ्रांसिस जैसी हस्तियों को पर्सन ऑफ द ईयर चुना। टाइम के अनुसार अगर कोई सेलेब्रिटी, ग्रुप या आइडिया प्रभाव छोड़ता है, तो उसे ‘पर्सन ऑफ द ईयर’ चुना जा सकता है। इस हिसाब से देखें तो मोदी 2014 में सब पर भारी थे, लेकिन एक कड़वा सच यह भी है कि इन सभी के केंद्र में अमेरिका होना चाहिए। टाइम ने अब तक जिन लोगों को यह अवॉर्ड दिया, उनमें अमेरिका केंद्र में रहा है। भले ही मोदी का मेडिसन स्क्वायर गार्डन पर रॉक स्टार जैसा वेलकम हुआ, लेकिन अमेरिका पर उसका प्रभाव ज्यादा नहीं था। वह भारतीय मूल के लोगों के लिए जरूर अहम था। जिस प्रकार से टिम कुक ‘गे’ के रूप में सामने आए, फर्ग्युसन, इबोला, पुतिन, ओबामा ये सभी अमेरिका को छूते हैं। ऐसे में मोदी के ‘पर्सन ऑफ द ईयर’ चुने जाने की संभावना बेहद कम थी।
ह्यूगो शावेज और अहमदीनेजाद भी रहे थे खाली हाथ
2014 से पहले भी टाइम मैगजीन रीडर्स पोल को नकार चुकी है। 1998 के रीडर्स पोल में WWE रेसलर मिक फॉली के जीतने की संभावना थी, लेकिन तब खबरें आईं, टाइम ने उन्हें पोल लिस्ट से ही हटा दिया था। हालांकि ये खबरें पुष्ट नहीं थीं। इसी प्रकार से 2006 में अमेरिका के कट्टर दुश्मन ह्यूगो शावेज को 35 प्रतिशत वोट मिले थे। इसी पोल में यूएस के दूसरे दुश्मन ईरान के पूर्व राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद दूसरे नंबर पर आए थे, लेकिन दोनों खाली हाथ रहे थे। दरअसल, ‘टाइम पर्सन ऑफ द ईयर’ के लिए वोटिंग कराई जाती है, यह बात सच है, लेकिन फाइनल कॉल एक कमेटी ही लेती है। टाइम के एडिटर रह चुके जिम केली कहते हैं कि मोदी हार गए, क्योंकि एडिटर्स ग्रुप ने उन्हें शॉर्टलिस्ट कर दिया था। ‘पर्सन ऑफ द ईयर’ वोटिंग से नहीं चुना जाना था। यह फैसला तो टाइम मैगजीन के एडिटर्स की च्वाइस का है।
ऐसे शुरू हुआ था ‘पर्सन ऑफ द ईयर’
टाइम मैगजीन की शुरुआत 1927 में हुई थी। इसी साल चार्ल्स लिंडनबर्ग अटलांटिक महासागर को बगैर रुके पार करने वाले विश्व के पहले अकेले पायलट बने थे। चार्ल्स पर कवर स्टोरी नहीं करने की वजह से मैगजीन की काफी आलोचना हो रही थी। मैगजीन ने बदनामी से बचने के लिए चार्ल्स पर कवर स्टोरी की, जिसे ‘मैन ऑफ द ईयर’ के नाम से छापा गया था। यहीं से साल के न्यूज मेकर के नाम की घोषणा की परंपरा शुरू हुई। टाइम मैगजीन 1999 तक ‘मैन ऑफ ईयर’ के नाम से अवॉर्ड देती थी, जिसे बाद में ‘पर्सन ऑफ द ईयर’ कर दिया गया। 1930 में महात्मा गांधी को ‘पर्सन ऑफ द ईयर’ का खिताब ‘मैन ऑफ द ईयर’ नाम से दिया गया था।