राजेंद्र बज

वर्तमान दौर में भौतिकवादी संस्कृति के चलते हमने अपने जीवन में अनेक गैरजरूरी आवश्यकताओं को अपने आप पर ओढ़ लिया है। नतीजतन, जीवन में तनाव शारीरिक व्याधियों का कारण भी बन रहा है। पहले आवश्यकताएं आविष्कार की जननी हुआ करती थी, लेकिन अब आविष्कार आवश्यकता बनते जा रहे हैं। यह सिलसिला अनवरत रूप से जारी है। यही वजह है कि सामाजिक परिवेश में आपराधिक आंकड़े विस्तार पा रहे हैं। सामाजिक विकृतियां आम नागरिकों का जीवन दूभर कर रही हैं। अनैतिक आचरण आधुनिकता का पर्याय बन रहा है। व्यावहारिकता की ओट में संवेदनशीलता तहस-नहस हो रही है।

तथाकथित सभ्य समाज का ताना-बाना बनावट की बुनावट पर निर्भर होकर रह गया है। जीवन जीने का मकसद ‘जियो और जीने दो’ की परंपरा के अनुपालन के बजाय स्वार्थसिद्धि बनकर रह गया है। ऐसे में उच्चस्तरीय नैतिक संस्कार बीते समय की बात होते जा रहे हैं। समाज का यह नकारात्मक स्वरूप भौतिकवादी संस्कृति को आत्मसात करने के कारण हुआ है। जिस तीव्रता के साथ हम आधुनिकता के नाम पर अपनी गौरवशाली संस्कृति को दांव पर लगाते जा रहे हैं, उतनी ही तीव्रता से हम पतन के गर्त में गिर रहे हैं।

जैसे-जैसे हम भौतिकवादी होते जा रहे हैं वैसे-वैसे अपने मूल चरित्र से भी दूर होते जा रहे हैं। तथाकथित आधुनिक जीवन शैली हमें मानवीयता से परे करती जा रही है। येन-केन-प्रकारेण धनोपार्जन को ही हमने जीवन का मुख्य ध्येय मान लिया है। रिश्ते स्वार्थसिद्धि की तराजू पर तौले जा रहे हैं और मानवीय मूल्यों को ताक पर रख दिया गया है। सामाजिक परिवेश में आया हुआ यह नकारात्मक परिवर्तन एकाएक नहीं हुआ है। दरअसल, हम अपनी जरूरतें निरंतर बढ़ाते रहे और बढ़ती जरूरत हमें बेचैन करती रही। प्रकारांतर से हम यह भी कह सकते हैं कि हम अपना स्वाभाविक जीवन नहीं जी पा रहे हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि हम यंत्रवत जी रहे हैं और खाने-खिलाने तक जीवन सिमट कर रह गया है। यों तो शायद इन संदर्भों में हमें सोचने-समझने का अवसर नहीं मिला होगा, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों के चलते हम इन विषयों पर भी एकाग्र चिंतन कर सकते हैं। कुल मिलाकर इन तमाम विकृतियों के मूल कारण में हमारी जरूरतें अप्रत्याशित रूप से बढ़ती जाना है। अनावश्यक तनाव की भी यही वजह है कि हम अपनी जरूरतों बहुत विस्तार दे चुके हैं। हमारे लिए इन जरूरतों को कम कर पाना संभव नहीं हो रहा है। मन की चंचलता निरंतर हिलोरे लेती रहती है। दूसरों के पद चिह्नों पर चलते-चलते हम अपनी पदचाप का अनुमान नहीं लगा पा रहे हैं।

एक होड़-सी लगी हुई है और हर कोई भौतिक संसाधनों की आपूर्ति के लिए लालायित है। इसके चलते स्थिति यहां तक विकृत हो चली है कि व्यक्ति अपने आप तक को भूलता जा रहा है। निश्चित ही आत्मसंयम के पथ पर अग्रसर होते हुए हम सहज रूप से उपलब्ध संसाधनों में भी असीम आनंद की दिव्य अनुभूति कर सकते हैं। यही दृष्टिकोण हमारे आध्यात्मिक सुकून का कारण बन सकता है। अन्यथा निन्यानबे का फेर हमें इस कदर उलझा सकता है कि हम अपने आप को ही पहचान न सकें। इन तमाम संदर्भों में जरूरत इस बात की है कि हम अपने जीवन का उद्देश्य सामने रखकर अपनी कर्मचेतना जागृत करें।

इसके साथ-साथ आध्यात्मिक दृष्टिकोण विकसित करते हुए जीवन के सारतत्त्व को गहराई से समझने का प्रयास करना चाहिए। गृहस्थ जीवन का पालन करते हुए उच्चस्तरीय नैतिक संस्कारों से अपने परिजनों को आच्छादित करना एक जरूरी काम है। केवल अपने लिए न जीया जाए, बल्कि समाज और राष्ट्र की प्रगति में भी योगदान देने की जरूरत है। हमें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए संतुष्टि मिलती है, लेकिन अन्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए हम असीम आनंद की दिव्य अनुभूति कर सकते हैं। हमारी जिम्मेदारी केवल परिवार तक सीमित नहीं हो, बल्कि समाज और राष्ट्र के लिए भी हमारा जीना हो।

ऐसा होने पर ही हम अपने उत्तराधिकारियों के स्वर्णिम भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। हमारे धर्म-दर्शन में भी परोपकार को महिमामंडित किया गया है। लेकिन इस समय हमने अपनी जरूरतें इस कदर बढ़ा रखी हैं कि हम उसकी आपूर्ति में ही खुद को असमर्थ पाते हैं। यह स्थिति हमें उस सुकून से कोसों दूर ले जाती है जो हम परोपकार करते हुए प्राप्त कर सकते थे। दरअसल, जरूरत इस बात की है कि हम अपनी जरूरतें कम करें। ऐसा होने पर ही हम अपने से अलग दूसरों के विषय में संवेदनशीलता का परिचय दे सकेंगे।

चूंकि हम सामाजिक प्राणी हैं इसलिए हमें अपने आप से अलग समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन भी करना चाहिए। बेहतर हो अगर हम अपनी जरूरतों को सीमित करते हुए अन्य लोगों की जरूरतों पर अपना ध्यान केंद्रित करें। ऐसा होने पर हम समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का भली-भांति पालन करते हुए गौरवान्वित हो सकते हैं।