सोनम लववंशी
हम इक्कीसवीं सदी के उस मोड़ पर खड़े हैं जहां तकनीक, विज्ञान और वैश्विक सोच की बात तो बहुत होती है, लेकिन शिक्षा के मूल उद्देश्य और दृष्टिकोण पर आज भी हम बीते युगों की परछाइयों से घिरे हैं। शिक्षा को ज्ञान, चेतना और जीवन कौशल का माध्यम मानने के बजाय अब इसे अंकों की दौड़ में बदल दिया गया है। एक ऐसी दौड़, जिसमें बच्चों से उनका बचपन, उनकी सहजता और कभी-कभी उनका जीवन तक छिन जाने की स्थिति बना दी जाती है। यह दौड़ केवल भारत तक सीमित नहीं है, बल्कि एक वैश्विक बीमारी का रूप ले चुकी है, जिसके सामाजिक, मानसिक और सांस्कृतिक परिणाम भयावह हैं।
ऐसी अनेक घटनाएं सामने आती रहती हैं, जिसमें किसी बच्चे को स्कूली या अन्य प्रतियोगी परीक्षा के नतीजों में अभिभावकों की उम्मीद से कम अंक आते हैं, तो बच्चों को डांट-फटकार मिलती है। इस क्रम में अभिभावकों और बच्चों के बीच अगर कभी तीखी बहस हो जाती है, तो कई बार बच्चों को बुरी तरह पीटा भी जाता है। ऐसी घटनाएं आम होती जा रही हैं। यह स्थिति उस मानसिक जाल का परिणाम है, जिसमें परिवार, समाज और शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह उलझ चुकी है।
आज एक बच्चा केवल इसलिए ‘अच्छा’ या ‘बुरा’ घोषित कर दिया जाता है कि उसने कितने फीसद अंक अर्जित किए। वह कितना ईमानदार, बुद्धिमान या संवेदनशील है, यह कोई नहीं देखता।
भारत में शिक्षा की यह विकृत होड़ पिछले दो दशकों में डिजिटल युग और कोचिंग संस्कृति के साथ और तेज हुई। आज हर माता-पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा डाक्टर, इंजीनियर या आइएएस बने। इसके लिए वह कितने भी दबाव, तनाव और ट्यूशन की शृंखलाओं से गुजरने को विवश हो। राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो की एक रपट के अनुसार 2022 में आत्महत्या करने वाले विद्यार्थियों की संख्या 13,714 थी। इनमें एक बड़ी संख्या कम अंकों या परीक्षा के डर से जुड़ी थी।
ये आंकड़े बताते हैं कि नंबरों की यह लालसा बच्चों को केवल मानसिक रूप से बीमार नहीं बना रही, बल्कि मौत की ओर भी धकेल रही है। यह समस्या केवल भारत की नहीं है। दक्षिण कोरिया, जिसे दुनिया में शिक्षा की गुणवत्ता के लिए जाना जाता है, वहां भी यह एक सामाजिक संकट बन चुका है। जापान में भी हिकारि जैसी मानसिक स्थिति, जिसमें किशोर खुद को सामाजिक जीवन से अलग कर लेते हैं, अंकों और प्रतिस्पर्धा की इसी विकृति का परिणाम मानी जाती है।
भारत में शिक्षा नीति 2020 ने ‘समग्र विकास’ की बात तो की है, लेकिन जमीनी हकीकत अभी भी ‘अंकपत्र आधारित योग्यता’ के इर्द-गिर्द घूम रही है। हर वर्ष बोर्ड परीक्षा के दौरान मीडिया में खबरें आती हैं। स्थिति यह हो चुकी है कि कुछ छात्र-छात्राओं के अंक 99 फीसद से भी अधिक और कुछ विषयों में पूरे सौ में सौ अंक प्राप्त कर रहे हैं और ये खबरें ऐसे प्रस्तुत की जाती हैं, जैसे वे ओलंपिक में स्वर्ण जीत लाए हों। यही नहीं, विभिन्न राज्यों में ‘मेधा सूची’ को लेकर जो प्रतिस्पर्धा चल रही है, वह मानो एक शिक्षा के लिए चलने वाली जंग हो गई है।
हाल ही में मिजोरम के बाद त्रिपुरा तीसरा पूर्ण साक्षर राज्य बना और गोवा दूसरा राज्य। सवाल यह है कि साक्षरता और ज्ञान में कितना फर्क समझा जा रहा है? अंकों की इस अंधी दौड़ ने माता-पिता की सोच को इस कदर प्रभावित किया है कि वे अब अपने बच्चों को इंसान नहीं, एक परियोजना की तरह देखते हैं। बच्चों को स्कूल से सीधे कोचिंग, फिर ट्यूशन और फिर ‘टेस्ट शृंखला’ और आखिर में परीक्षा केंद्र तक दौड़ाया जाता है। इस प्रक्रिया में न वे खुद को समझ पाते हैं, न अपने भीतर की रुचियों और संभावनाओं को। एक बच्चा जो विज्ञान में कमजोर हो, वह कला या खेलों में श्रेष्ठ हो सकता है, लेकिन दुखद यह कि उसे ‘असफल’ कह कर दरकिनार कर दिया जाता है।
हाल ही में सिंगापुर की शिक्षा प्रणाली ने यह समझा कि अंकों का बोझ बच्चों की रचनात्मकता को कुचल रहा है। वहां अब प्राथमिक स्तर पर परीक्षा ही खत्म कर दी गई है और विद्यार्थियों को परियोजना आधारित संवादात्मक और अनुभवजन्य शिक्षण दिया जा रहा है। फिनलैंड का उदाहरण तो पूरी दुनिया में मिसाल बन चुका है जहां कोई बोर्ड परीक्षा नहीं होती।
दुनिया मेरे आगे: अंक नहीं जीवन, नंबर से नहीं, संकल्प से बनते हैं कैरियर
शिक्षा का उद्देश्य जीवन कौशल, सामाजिक समरसता और व्यक्तिगत रुचियों का विकास माना जाता है। भारत को भी चाहिए कि वह गहराई से आत्मचिंतन करे। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि अगर कोई बच्चा गणित में 45 फीसद अंक लाता है, तो वह जीवन में सौ फीसद ईमानदार, रचनात्मक और संवेदनशील हो सकता है। हमें शिक्षा के माध्यम से चरित्र निर्माण, सामाजिक चेतना, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सहयोग की भावना को बढ़ावा देना होगा न कि केवल अंक प्राप्ति के हथकंडों को।
माता-पिता को यह स्वीकार करना होगा कि उनका बच्चा डाक्टर या इंजीनियर बनने से अधिक एक अच्छा इंसान बने। शिक्षक को हर छात्र की अलग सोच और गति का सम्मान करना होगा। सरकार को परीक्षा प्रणाली को फिर से गढ़ना होगा। जहां सफलता का पैमाना केवल अंक न हो, बल्कि बच्चे की जिज्ञासा, संवाद शक्ति, रचनात्मक सोच और नैतिक मूल्य भी माने जाएं। बाजार और सोशल मीडिया ने भी अंकों की इस संस्कृति को बढ़ावा देने में बड़ी भूमिका निभाई है।
Blog: अंकों की अंधी दौड़ में गुम होता बचपन, क्या यही है सफलता का पैमाना?
‘90 परसेंट क्लब’ जैसे विज्ञापन बच्चों को उत्पाद बना कर पेश करते हैं। यह एक ऐसा तंत्र बन गया है जो लगातार यह संदेश देता है कि केवल वही बच्चे योग्य हैं जो 95 फीसद या उससे अधिक अंक लाएं। लेकिन क्या जीवन की हर सफलता का गणित अंकों से तय होता है? ऐसे में समय आ गया है कि हम इस प्रवृत्ति को रोकें। हमें शिक्षा को उस रूप में स्थापित करना होगा जहां सीखना मजेदार हो, तनावमुक्त हो और आत्मबोध की ओर ले जाने वाला हो।
आज का विद्यार्थी तकनीक और जानकारी के लिहाज से पहले से कहीं ज्यादा सशक्त है। वह केवल अंकों की दौड़ नहीं, बल्कि एक समग्र जीवन दृष्टि का अधिकारी है। अगर हम उसे समझें, उसकी रुचियों को अपनाएं, उसकी क्षमताओं को दिशा दें, तो वह समाज और देश के लिए एक सार्थक शक्ति बन सकता है। यही शिक्षा का असली उद्देश्य है, जीवन के हर आयाम को समझते हुए आगे बढ़ना।
यही समय है, जब हम समाज को यह बताएं कि अंकों से बड़ी चीज है आत्मा का विकास और नंबरों से अधिक मूल्यवान है मनुष्य का इंसान बने रहना। हम ऐसा नहीं कर पाए, तो वह दिन दूर नहीं जब पूरी पीढ़ी अवसाद और निराशा का बोझ लेकर बड़ी होगी और तब उसका कोई मूल्यांकन फीसद में नहीं किया जा सकेगा। अब जरूरी है कि हम बच्चों को आत्मनिर्भर तो बनाएं, लेकिन अंकों की भूख को यथाशीघ्र त्याग दें। यही राष्ट्र के भविष्य के लिए सबसे आवश्यक है।