डेढ़ दशक पहले एक कमरे में बैठकर कुछ कंप्यूटर की मदद से मार्क जुकरबर्ग जब फेसबुक का आइडिया इंटरनेट की दुनिया में लेकर आए थे, तो वे अपनी कामयाबी को इसलिए असंदिग्ध मान रहे थे कि उनके पास लोगों के नाम, पते-ठिकाने के साथ पसंद-नापसंद से जुड़ी भावनाएं और विविध जीवन प्रसंगों को लेकर संवेदनाएं भी डिजिटल फार्म में तेजी से जमा होनी शुरू हो गई थीं। वे तब अपने सहयोगी मित्रों से कहते थे कि मैं आने वाले दिनों में बदलाव के सबसे ऊंचे और तेज लहर की सवारी करूंगा क्योंकि मैं महज लोगों तक पहुंचने में नहीं बल्कि उनके अंदर तक झांकने में सक्षम हूं। अमेरिका से लेकर भारत तक चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया तक को प्रभावित करने की ताकत रखने वाले जुकरबर्ग की बातें आज सही साबित हो रही हैं।

वैसे जुकरबर्ग की सच होती भविष्यवाणी का एक दूसरा पक्ष भी है। यह पक्ष सूचना क्रांति को लेकर कई तरह के क्रांतिकारी मुगालतों और व्याख्याओं से जुड़ा है। दरअसल, बाजार की खुली बांहों में जब से डिजिटल तरंगों ने खेलना शुरू किया तब से समाज, संबंध और व्यवहार की ऐसी दुनिया आबाद होती गई है, जिसमें एक तरफ तो अभिव्यक्ति की आकंठ ललक है, वहीं क्रांतिकारी बदलाव की एक फौरी चाह भी है। 2010 में अरब स्प्रिंग के बहाने दुनिया जब सोशल मीडिया की ताकत और इसके बूते सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन को साकार होते देख रही थी, तो उसमें यह उम्मीद भी कहीं न कहीं जगह बनाती जा रही थी कि आंदोलन और नेतृत्व का मुहावरा अब बदलने जा रहा है। पर ऐसा न होना था और न हुआ। अरब स्प्रिंग से पैदा हुई उम्मीद अगर देखते-देखते दम तोड़ गई तो ऐसे कई दूसरे अभियानों से भी कुछ दिनों की सनसनी और चर्चा से ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ। बदलाव और हश्र की इस पूरी कहानी को लैंगिक आधार पर भी समझने की जरूरत है।

मी-टू अभियान बहुत हाल का है। अब जबकि इस अभियान का हैशटैग थोड़ा पिछड़ गया है तो बदले में इसी तरह के कई दूसरे अभियान इसके उत्तर संस्करण के तौर पर सामने आए हैं। इनमें कुछ में महिलाओं की बेबाकी है तो कुछ में यह पहल कि आधी दुनिया अब अपने लिए पूरी शिनाख्त चाहती है। इस चाह में कभी बिना मेकअप के तस्वीरें पोस्ट करने की होड़ लगती है तो कभी यह बताने की कि एक महिला की जिंदगी का सबसे बड़ा अनकहा कैसे पुरुष समाज का वह सामना है, जिसके बारे में सोचकर मन और सोच दोनों आज भी कई तरह के गलगलाते अनुभवों से भर जाता है।

यहां जो एक बात और समझने की है कि ‘सेक्स’ और ‘जेंडर’ के भेद से तार्किक तौर पर जब अवगत हुई तो इस यह समझना आसान हो गया कि कैसे आखिरकार देशकाल और परिस्थिति के बीच एक महिला अंतत: देह बनती चली जाती है और कैसे उसकी दैहिकता ही उससे जुड़ी संवेदना और सरोकारों को हर जगह पर तय करती है। इस बात को स्वीकार करने में शायद ही किसी को हिचक हो कि मोबाइल के टच स्क्रीन से लेकर कंप्यूटर के माउस तक ने महिला अभिव्यक्ति का वह सघन संसार खास तौर पर बीते एक दशक में रचा है, जिसमें महिलाओं को लेकर पुरुषों की दुनिया की सोच और व्यवहार का सच लगातार नंगा हुआ है।

कहने को यह कह सकते हैं कि आज सूचना क्रांति के जोर पर दुनिया भर की महिलाएं अपनी अभिव्यक्ति के सबसे निर्भीक दौर को जी रही हैं। पर इस निर्भीकता से उनके जीवन यथार्थ में कितना फर्क पड़ेगा, इसका मूल्यांकन होना अभी बाकी है। अलबत्ता इस सिलसिले में कुछ बातें जरूर रेखांकित हुई हैं। इसमें सबसे अहम बात यह है कि बाजार और अवसरों के खुले राजमार्गों पर पुरुषों के साथ जिस तेजी से महिलाएं आगे बढ़ीं, उस तेजी से ही उनके घर से बाहर काम करने के हालात भी लगातर जघन्य होते गए। मी-टू अभियान को ही सामने रखें तो कुछ बड़े लोगों की नींदें इससे जरूर हराम हुईं पर यह भी साफ हुआ कि इस असर और बदलाव की असली जमीन बहुत कच्ची है।

इस या इस जैसे तमाम अभियानों में अब तक जो भी कहासुनी या खुलासे हुए हैं, उसमें आम महिला का दर्द, उसकी कचोट, उसके टीसते अनुभवों के लिए कोई जगह नहीं है। अगर जगह है भी तो वह इस अभियान के कारण पैदा हुए विमर्श और परिवर्तन की उम्मीदों के दायरे से बाहर है। जिन महिलाओं ने भी अपनी बात इस दौरान कही हैं, वे या तो जानी-मानी हैं या फिर जिन पुरुषों पर उन्होंने आरोप लगाए हैं, वे बड़े कद और शख्सियत के मालिक हैं।

ऐसा हो भी क्यों नहीं, क्योंकि सूचना क्रांति के जोर पर शुरू हुई सामाजिक सशक्तीकरण की प्रक्रिया के साथ यह विरोधाभास पहले दिन से जुड़ा है कि इसके साथ वही लोग जुड़ सकते हैं जो शिक्षा, अर्थ और पहचान के बूते कामयाबी की राह पर खासे आगे निकल गए हों। यह सच साइबरी दुनिया में बराबरी या लोकतंत्र का ढांचा देखने वालों के एक बड़ी निराशा की तरह है और यह निराशा तब और बढ़ जाती है जब हम तकनीक के इस आभासी लोक को और ज्यादा फैलते और सघन होते हुए देख रहे हैं।