Manmohan Singh Passes Away: देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का निधन हो गया है, 92 साल की उम्र में उन्होंने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। उनका चला जाना एक युग का अंत है, उनका चला जाना राजनीति में एक बड़े शून्य के समान है। मनमोहन सिंह को हर कोई शांत कहता था, लेकिन उसी चुप्पी में उनकी असल ताकत छिपी थी। आज की राजनीति में कई नेता खुद को कट्टर ईमानदार बताते हैं, लेकिन मनमोहन सिंह ने वो साबित करके दिखाया था। यहां आपको बताते हैं मनमोहन सिंह से जुड़ी पांच अनसुनी कहानियां-
जब चुनाव लड़ने के नहीं मांगे पैसे
यह बात 1999 के लोकसभा चुनाव की है, नई दिल्ली सीट से सोनिया गांधी के कहने पर मनमोहन सिंह को उतार दिया गया। कभी चुनावी मैदान में नहीं उतरे थे, हर कोई उन्हें बस ‘डॉक्टर साहब’ कहकर बुलाता था। अब राजनीति के दांव-पेच क्योंकि सीखे नहीं, ऐसे में चुनाव लड़ना भी उन्हें नहीं आता था। मनमोहन सिंह का मुकाबला बीजेपी नेता विजय कुमार मल्होत्रा से था। अब राजनीतिक पंडित मान रहे थे कि मनमोहन सिंह जीत जाएंगे, लेकिन कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता ही कोई दूसरा मूड बनाकर बैठे थे।
वे तो मनमोहन सिंह को एक बाहरी के रूप में देखते थे। अब राजनीति में मासूम और अनजान रहने वाले डॉक्टर साहब यह कभी नहीं समझ पाए कि चुनाव जीतने के लिए कार्यकर्ताओं, पार्षदों और दूसरे सभी नेताओं की जरूरत पड़ती है। उन्हें तो लगता था कि टिकट मिल गया है तो यह कार्यकर्ताओं का फर्ज है कि वे आएं और उनके लिए वोट मांगे। लेकिन राजनीति ना कभी इतनी सरल थी और ना ही कभी इतनी ईमानदारी, ऐसे में उसी राजनीति ने डॉक्टर साहब को भी डसने का काम किया।
असल में चुनाव लड़ने के लिए मनमोहन सिंह को 20 लाख रुपये मिले थे। लेकिन चुनाव जैसे-जैसे करीब आया, पैसे खत्म होने शुरू हो गए। कई उद्योगपतियों ने ऑफर दिया, डॉक्टर साहब को मदद करने की बात बोली। लेकिन किसी की इतनी मजाल नहीं हुई कि कोई मनमोहन सिंह को मना पाता। लेकिन फिर जैसे-जैसे चुनाव और नजदीक आया, सवाल उठने लगे कि कार्यकर्ताओं को भी प्रचार के लिए पैसों की जरूरत पड़ेगी, उनके खाने-पीने-चाय का खर्चा भी होता है, पार्टी का एक कार्यालय भी खोलना पड़ेगा। तब जाकर मनमोहन सिंह चंदा लेने के लिए मान गए, यानी कि एक चुनाव लड़ा और सियासी दांव-पेंच के आगे उन्हें भी झुकना पड़ा।
अब वो चुनाव मनमोहन सिंह 30 हजार से ज्यादा वोटों से हार गए, जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी, वो हो चुका था। डॉक्टर साहब मायूस थे, पत्नी निराशा में डूब चुकी थीं, लेकिन कांग्रेस का एक धड़ा सिर्फ मौन था। उस मौन में ही एक छिपी हुई सियासी दांव की दुर्गंध आ रही थी। बताया जाता है कि मनमोहन सिंह ने जो चंदा लिया था, उसके बचे सात लाख रुपये पार्टी फंड में वापस ट्रांसफर करवा दिए।
कैंब्रिज के दिन और ‘वो लड़की’
मनमोहन सिंह को आज की दुनिया इतना सरल इतना साधारण मानती है, एक जमाने में उनके रोमांस के चर्चे भी हुए थे। यह कहानी भी खुद मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह ने बयां की थी। असल में मनमोहन सिंह की पत्नी गुरशरण कौर की जीवनी ‘सीक्रेटली पर्सनल’ में पूर्व प्रधानमंत्री की बेटी ने उन दिनों को याद किया है। दमन सिंह के मुताबिक कैंब्रिज के दिनों में मनमोहन सिंह के पास ज्यादा पैसे नहीं हुआ करते थे। एक समय तो ऐसा आ गया था जब उन्हें अपने दोस्त से 25 पाउंड उधार मांगने पड़े, वहां भी दोस्त ने सिर्फ तीन पाउंड दिए। किताब में खुद एक जगह दमन सिंह ने लिखा है कि मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि पढ़ाई के दौरान मेरे पिता किसी लड़की के बारे में सोचा भी करते थे, अब क्या वह रोमांस था, मुझे तो शायद ऐसा लगता है।
मनमोहन के आर्थिक सुधार और बेटी का बहिष्कार
मनमोहन सिंह ने 1991 में आर्थिक सुधार कर देश की अर्थव्यवस्था को खोलने का काम किया था। लेकिन यह बात शायद लोग नहीं जानते कि उन सुधारों से हर कोई खुश नहीं था। तब मनमोहन सिंह के परिवार को काफी कुछ झेलना पड़ा था। अब से सामाजिक बहिष्कार कहा जाए या फिर परिवर्तन होने का डर, लेकिन उस जमाने में डॉक्टर साहब के उस क्रांतिकारी कदम ने उनके बच्चों के जीवन को काफी दुविधा में डाल दिया था।
दमन सिंह ने खुद एक किताब में इस बारे में काफी विस्तार से बताया था। यह उस समय की बात थी जब मनमोहन सिंह की बेटी एक एनजीओ के साथ जुड़ी हुई थीं। वे बताती हैं कि 1991 में मेरी जिंदगी काफी बदल गई थी, कह सकते हैं कि वो मेरे लिए काफी बुरा साल था। मेरे पिता ने तो जरूर आर्थिक सुधार की ओर अपने कदम बढ़ा लिए थे, लेकिन मेरे साथ ही काम करने वाले लोग उस वजह से भड़के हुए थे। हालात ऐसे बन गए थे कि मेरे दूसरे साथियों ने मुझसे किनारा कर लिया था, स्टाफ मीटिंग तक में मुझे जाने नहीं देते थे। मेरे साथ किसी भी तरह का रिश्ता रखने से साफ इनकार कर दिया गया था।
जब मनमोहन ने खेला सबसे बड़ा सियासी जुआ
मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते हुए 1991 में उदारीकरण के जो क्रांतिकारी फैसले हुए थे, उनके पीछे भी एक ऐसी कहानी है जो कम ही लोग जानते हैं। कहने को आज का जमाना उस समय के फैसलों को नरसिम्हा-मनमोहन मॉडल के नाम से याद करता है, लेकिन यह बात शायद लोग भूल चुके हैं कि उस जमाने में तब के तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को भी मनमोहन सिंह पर उतना भरोसा नहीं था। कहने को मनमोहन सिंह आरबीआई के गवर्नर रह चुके थे, बाद में नरसिम्हा राव ने अपने ही एक करीबी और बड़े अधिकारी पीसी एलेक्जेंडर की बात मानकर मनमोहन सिंह को देश का वित्त मंत्री बना दिया था। उस समय मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री बनते ही एलपीजी मॉडल नरसिम्हा राव के सामने रखा। उस मॉडल का मतलब था- लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन।
अब मनमोहन सिंह को तो अपने इकोनॉमिक ज्ञान पर पूरा भरोसा था, लेकिन नरसिम्हा राव ने तब कहा था अगर यह मॉडल सफल हो गया तो क्रेडिट और श्रेय हम दोनों को मिलेगा, लेकिन अगर यह मॉडल विफल रहा तो सारा श्रेय और जिम्मेदारी आपको लेनी पड़ेगी। यानी कि जिस समय वित्त मंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने इतना बड़ा फैसला लिया, कहना चाहिए उनका पूरा करियर ही दांव पर लग चुका था।
जब राजीव गांधी ने सिंह की टीम को बताया ‘जोकर’
बात तब की है जब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे। देश के विकास के लिए पंचवर्षीय योजना चल रही थी, उसी सिलसिले में एक मीटिंग हुई। उस समय योजना आयोग के उपाध्यक्ष मनमोहन सिंह थे। एक विजन उन्होंने राजीव गांधी के सामने रखा और जोर देकर बोल दिया- गांव और गरीबों पर फोकस करना जरूरी है। यह सोच राजीव गांधी से विपरीत थी जो शहरी विकास को प्राथमिकता दे रहे थे। जैसे ही उस दिन की मीटिंग खत्म हुई, मनमोनह सिंह को राजीव से डांट पड़ गई।
अगले ही दिन मीडिया ने मीटिंग के बारे में जानना चाहा, राजीव गांधी ने सामने से गुस्से में कह डाला- जोकरों का समूह है एक। इस घटना के बारे में पूर्व केंद्रीय मंत्री सी.जी सोमैया ने अपनी किताब में लिखा था। उनेक मुताबिक मनमोहन सिंह ने इस्तीफा देने की ठान ली थी, उनसे यह अपमान बर्दाश्त तक नहीं हो रहा था। लेकिन बाद में समझाने के बाद उन्होंने अपने कदम पीछे खींच लिए और अपमान का घूंट पी लिया। लेकिन उस अपमान का घूंट पीने के बावजूद भी डॉक्टर साहब ने मेहनत करना नहीं छोड़ा और अपनी अमिट छाप छोड़ दी। उनकी उपबल्धियां जानने के लिए यहां क्लिक करें