Manipur Violence: पिछले चार महीने से हिंसा की आग में झुलस रहे मणिपुर ने देश-दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा है। इस हिंसा में सैकड़ों लोगों की मौत गई, हजारों लोग घायल हुए और हजारों लोग अपना घर छोड़कर दूसरी जगह पलायन कर गए, लेकिन अभी भी हिंसा की आग थमी नहीं है। दुनियाभर के मैतई प्रवासियों ने पीएम मोदी को एक पत्र भी लिखा है। जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से तत्काल हस्तक्षेप की मांग की गई है। हालांकि विपक्षी दल भी पीएम मोदी से इस पूरे मामले पर शांति बहाली की मांग कर चुका है, साथ ही राज्य का दौरा भी कर चुका है। यह हिंसा राज्य में दो समुदाय के बीच है, एक है मैतेई समुदाय और दूसरा है कुकी समुदाय। मैतई समुदाय मैदानी इलाकों में रहता है, जबकि कुकी समुदाय पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करता है।
‘खिड़की से बाहर देखता हूं तो मुझे म्यांमार दिखता है’
हिंसा की चपेट से बचने के लिए मणिपुर से पलायन कर चुके 37 वर्षीय व्यक्ति कहते हैं, “जब हम अपने घर की खिड़की से बाहर देखते हैं, तो हमें बर्मा (म्यांमार) दिखाई देता है।” यहीं मोरेह के 400 अन्य निवासी भी पलायन करके आए, जब सीमावर्ती शहर मणिपुर में हुई हिंसा का केंद्र बन गया था। 37 साल का यह शख्स मुख्य मोरेह शहर में अपना व्यवसाय चलाता है। हिंसा की वजह से उसके परिवार के सात सदस्यों ने म्यांमार में शरण ली है। 18 अगस्त को वे असम राइफल्स की मदद से मोरेह लौट आए और सीमा पर सुरक्षा बल के शिविर में चले गए। वो कहते हैं कि सीमा पार से जो लोग उन्हें ले गए, वे अजनबी नहीं थे, बल्कि वे लोग थे जिनके साथ उन्होंने दशकों के व्यापार और व्यवसाय के माध्यम से रिश्ते बनाए थे।
39 वर्षीय रंजीत मैतेई, जो अपने तीन बच्चों सहित अपने परिवार के 11 सदस्यों के साथ म्यांमार भाग गए लोगों में से थे। उन्होंने कहा कि उन्हें नामफालोंग में बर्मी (म्यांमार) और नेपाली व्यापारियों के घरों में आश्रय दिया गया था, जो कभी एक व्यस्त बाजार था। पहले पांच दिनों तक वो सीमा के किनारे रहे। उन्होंने कहा, उनमें से लगभग 15-20 को एक ही घर में रखा गया था।
‘अंतरराष्ट्रीय सीमा है, लेकिन हम एक-दूसरे के करीब हैं’
मोरेह में वॉटर प्यूरिफायर का व्यवसाय चलाने वाले रंजीत बताते हैं, ‘बीच में भले ही अंतरराष्ट्रीय सीमा हो, लेकिन दोनों बाजार एक-दूसरे के इतने करीब हैं कि हम यहां बाजार से आवाज लगाकर उनसे बात कर सकते हैं। हमारा तो सारा काम ही उनसे खरीदना और बेचना है। हम वहां जाते हैं, और वे आते हैं और हमसे चीजें खरीदते हैं, इसलिए हम उन्हें अच्छी तरह से जानते हैं।’
मोरेह-नमपालोंग सीमा के दोनों ओर के निवासी अनौपचारिक और कभी-कभी अवैध व्यापार के केंद्र का हिस्सा हैं, जो पिछले सालों से प्रभावित हुआ। 2020 में COVID-19 महामारी, 2021 में म्यांमार में सैन्य तख्तापलट और अब 3 मई से मणिपुर में हुई हिंसा। जबकि म्यांमार के साथ मणिपुर की 390 किलोमीटर की सीमा सुरक्षा की दृष्टि से उतनी मजबूत नहीं है। यहां हाल ही में भारतीय सीमा पर 10 किलोमीटर तक कटीले तार लगाए गए हैं।
सीमावर्ती शहर में पले-बढ़े रंजीत ने कहा, ‘जहां तक उन्हें याद है, उनके दूसरे देश के लोगों के साथ संबंध रहे हैं। उनका कहना है कि यह कटीले तार बाद में लगाए गए हैं। दो अलग देशों में रहने का विचार भी बाद में आया है। हम वहां के लोगों को बचपन से जानते हैं और हमने हमेशा एक-दूसरे की मदद की है। जब हम बच्चे थे तो हम बर्मा में खेलते थे, बर्मा में नाश्ता करते थे।’
3 मई को मणिपुर में भड़की थी हिंसा
3 मई को दोपहर में चुराचांदपुर-बिष्णुपुर सीमा पर झड़प की खबर जब इंफाल से 110 किमी दूर मोरेह पहुंची, तो शहर का माहौल तनावपूर्ण होने लगा। मोरेह में मिश्रित आबादी है, जिसमें कुकी बहुसंख्यक हैं। इसके बाद मैतेई, तमिल, नेपाली और पंजाबी सहित अन्य समुदाय आते हैं।
37 साल के व्यक्ति ने मणिपुर हिंसा को याद करते हुए बताया, ‘शाम 4 बजे के करीब, कुछ लोगों ने बाज़ार में छोटी-छोटी दुकानें तोड़ना शुरू कर दिया, जो हमारे घर से 1 किमी से भी कम दूरी पर है। इसलिए हम यह सोचकर अंदर रहे कि प्रशासन इसे संभाल लेगा, लेकिन ये मामला बढ़ने लगा, इसलिए हम नो-मैन्स लैंड (सीमाओं के बीच की ज़मीन) पर गए, जो हमारी बस्ती से बस एक कदम की दूरी पर है। यहां के रहवे वाले सभी लोग वहां मौजूद थे। जब हमारे घरों पर पेट्रोल बम फेंके जाने लगे तो हम बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों को म्यांमार की ओर ले गए। वहां हमारा फिर पीछा नहीं किया गया।’
रंजीत ने कहा, ‘उस समय जाने के लिए कोई और जगह नहीं थी। भीड़ आ रही थी… जब उन्होंने हमारे घरों में आग लगाना शुरू कर दिया, तो हमें एहसास हुआ कि हमारे लिए कोई मदद नहीं होगी। हमने तय किया कि हमारे लिए सीमा पार करना सबसे अच्छा है।”
नामफालोंग में रात बिताने के बाद, 37 वर्षीय व्यक्ति ने कहा कि वह और कुछ अन्य लोग अगले दिन मोरेह लौट आए, लेकिन पता चला कि हमारे 60-70 प्रतिशत घर जल गए थे। इसके बाद हमने फैसला किया कि शहर में रहना उनके लिए सुरक्षित नहीं है। उसके बाद वे नामफालोंग लौट आए।जबकि मोरेह के बाकी 3,000 मैतई लोगों ने शहर में असम राइफल्स शिविर में शरण ली और बाद में उन्हें राज्य में कहीं और ले जाया गया, 400 लोगों ने म्यांमार भागने फैसला किया।
इन लोगों ने अगले चार दिन नामफालोंग में बिताए और एक कृष्ण मंदिर में भोजन किया। चूंकि मोरेह अभी भी उबल रहा है, इसलिए परिवारों को पास के तमू में एक मठ में जाने की सलाह दी गई। जबकि उन्हें वहां के भिक्षुओं द्वारा आश्रय दिया गया था। स्थानीय बर्मी और नेपाली व्यवसायी मोहरे के निवासियों को राशन दान करने के लिए एक साथ आए।
म्यांमार में चल रहे संघर्ष के बावजूद, तमू और नामफालोंग के निवासियों ने सीमा पार से अपने पड़ोसियों की मदद करने के लिए कदम बढ़ाया। एक ऐसा बंधन जो उनके व्यापारिक सौदों से परे था।
तख्तापलट के वक्त मोरेह के लोगों ने म्यांमार के शरणार्थियों को दी थी शरण
2021 में जब म्यांमार में सेना ने तख्तापलट करके देश चुनी हुई सरकार को गिरा दिया था। उस वक्त म्यांमार में जमकर हिंसा हुई थी। उस हिंसा कार्रवाई से भागकर शरणार्थी खुली सीमा के माध्यम से भारत में आ गए थे। शरणार्थियों में म्यांमार के सागांग क्षेत्र के हिस्से तामू और नामफालोंग के निवासी थे, जो मोरेह में रहने लगे थे।
म्यांमार में शरण लेने वाले मैतई लोगों ने कहा कि जिन लोगों ने 100 दिनों से अधिक समय तक उनका समर्थन किया, वे वही लोग थे जिन्हें उन्होंने तख्तापलट के बाद के महीनों में आश्रय दिया था।
मोरेह के मैतेई व्यापारी एल सुरजीत सिंह, जो हाल ही में अपने परिवार के साथ म्यांमार चले गए थे। उन्होंने बताया कि कैसे 2021 के तख्तापलट के बाद मोरेह में शरण लेने वाले लोगों को शहर की एक मल्टी स्टोरी मॉल में रखा गया था।
उन्होंने कहा कि यहां विभिन्न समुदाय क्लबों का हिस्सा हैं। उनकी मदद से हमने शरणार्थियों को भोजन और आश्रय देने के लिए संसाधन और दान एकत्र किया था। उस दौरान, हमने एक ऐसा रिश्ता बनाया जो व्यापार से परे था। उनमें से कई तीन महीने तक वहां थे। इसलिए इस बार, जब हमें उनकी मदद की ज़रूरत थी तो उन्होंने अपना बड़ा दिल दिखाया।
नामफालोंग और तमू दोनों चीन परिवारों का भी घर हैं, जो कुकी-ज़ोमिस के समान जातीयता के हैं, जो वर्तमान में मणिपुर के मैतई के साथ संघर्ष में हैं। जिन मैतई परिवारों को वहां आश्रय दिया गया था, उन्होंने कहा कि उनकी उपस्थिति को स्थानीय चीन आबादी के प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा। हालाँकि, तमू में सब कुछ ठीक नहीं था, सागाइंग में जुंटा विरोधी सभाओं पर बमबारी हुई।
‘हम अपनी सुरक्षा की चिंता’
रंजीत ने कहा, ‘जब हम पहली बार (म्यांमार) गए थे, तो हम भविष्य के बारे में नहीं सोच रहे थे, सिर्फ अपनी तत्काल सुरक्षा के बारे में सोच रहे थे। हम मोरेह में सुरक्षित महसूस नहीं करते थे। इंफाल का रास्ता भी सुरक्षित नहीं था। बर्मा में हम जीवित थे। हम वहीं रुके रहे क्योंकि हमारा घर पास में ही था और हमने सोचा कि एक बार चीजें शांत हो जाएंगी, हम मोरेह वापस जाएंगे और वहां फिर से जीवन शुरू करेंगे। लेकिन दिन बीतते गए और हिंसा रुकने का कोई संकेत नहीं मिला।’
घर लौटने लगा मैतेई समुदाय
मई के अंत तक म्यांमार भाग गए बहुत कम संख्या में लोग मणिपुर लौटे, जब उनके पिता बीमार पड़ गए, तो सुरजीत और उनके आठ लोगों के परिवार ने राज्य लौटने का फैसला किया और असम राइफल्स के पास पहुंचे, जिन्हें भारत-म्यांमार सीमा की सुरक्षा का काम सौंपा गया है। उन्होंने कहा कि उनसे बात करने के बाद हम नामफालोंग गए और वहां इंतजार किया। वे हमें वहां से मोरेह में अपने शिविर में ले गए, और हमें रहने के लिए जगह और खाने के लिए चीजें दीं।
चार दिन बाद, 3 अगस्त को, उनके परिवार को इंफाल ले जाया गया, जहां वे अब एक राहत शिविर में रह रहे हैं। बाद में 18 अगस्त के आसपास 212 मैतेई को मोरेह वापस लाया गया। असम राइफल्स के एक अधिकारी के अनुसार, म्यांमार से लौटने वाले लोगों की कुल संख्या लगभग 400 हो गई है, जिसमें मई के अंत से वापस आने वाले छोटे बैच भी शामिल हैं। अधिकारी ने कहा कि 18 अगस्त को सबसे बड़े जत्थे के आने के साथ, अधिकांश लोग वापस लौट आए होंगे। वहां अभी भी कुछ और लोग हो सकते हैं और उनकी वापसी को सुविधाजनक बनाने के लिए समन्वय जरूरी है।
शनिवार को जो लोग लौटे उनमें से 22 को प्राथमिकता के रूप में पहचाना गया, क्योंकि उनके पास चिकित्सा संबंधी समस्याएं थीं। उन्हें वहां के नागरिक प्रशासन के समन्वय से मैतेई-प्रभुत्व वाले काकचिंग जिले के पल्लेल में ले जाया गया। अगले दिन अन्य 163 लोगों को वहां ले जाया गया। वे या तो राहत शिविरों में रह रहे हैं या रिश्तेदारों के यहां।
इंफाल पहुंचकर सुरजीत का कहना कि वह म्यांमार में अपने दोस्तों से संपर्क नहीं कर पा रहा है, जिन्होंने उसके परिवार को आश्रय दिया था। जबकि म्यांमार के तमू और नामफालोंग और मणिपुर के मोरेह में व्यापार पहले से ही पिछले कुछ वर्षों में आई मार से जूझ रहा था, लेकिन मणिपुर हिंसा ने इसे एक और झटका दे दिया। सुरजीत ने कहा कि म्यांमार की ओर के कई व्यापारियों ने यांगून और मांडले जैसे शहरों में कहीं और व्यापार करना शुरू कर दिया है।
उन्होंने कहा, ‘जब मैं इंफाल पहुंचा, तो मैंने अपने कुछ दोस्तों को यह बताने के लिए संदेश भेजा कि मैं सुरक्षित पहुंच गया हूं, लेकिन मैं उनसे संपर्क नहीं कर पाया। वे शायद दूर चले गए होंगे। मुझे नहीं पता कि वे अब कहां हैं।’
म्यांमार और मोहरे के बीच व्यापार
अंतरराष्ट्रीय सीमा के पार इस व्यापार का एक बड़ा हिस्सा अनौपचारिक और अवैध व्यापार है।
आधिकारिक व्यापार अनुमान-
लैंड्स पोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के अनुसार, साल- 2018-19 के बीच 30.70 करोड़ रुपये, साल- 2019-20 के बीच 355.52 करोड़ रुपये, साल 2020-21 के मध्य 3.11 करोड़ रुपये (कोई कार्गो मूवमेंट नहीं) और साल 2021-22 के कोई व्यापार नहीं हुआ।