पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी बीते तीन दिनों से नागरिकता (संशोधित) कानून के खिलाफ पैदल मार्च कर रही हैं। वह रोजाना 10 किलो मीटर पैदल चल रही है। इस दौरान वह लोगों से मिल रही हैं और इस कानून पर उनके विचार जान रही हैं। यह पहली बार नहीं है जब ममता ने पैदल मार्च निकालकर मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला हो। इससे पहले शारदा चिट फंड स्कैम में कोलकाता के पूर्व पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के खिलाफ सीबीआई कार्रवाई पर भी वह धरने पर बैठ गई थीं।

वह नागरिकता कानून के खिलाफ साउथ और नॉर्थ कोलकाता में पैदल मार्च कर चुकी हैं। इस दौरान उन्होंने कहा है कि केंद्र को नेशनल रजिस्ट्रर ऑफ सिटीजन (एनआरसी) और नागरिकता (संशोधित) कानून पश्चिम बंगाल में लागू करने के लिए उनकी लाश से गुजरना होगा। बनर्जी पैदल मार्च में कम से कम 10 किलो मीटर पैदल चल रही हैं। हालांकि इस पैदल मार्च के कई मायने हैं और कहीं न कहीं ममता बनर्जी एक तीरे से कई निशाने से साधने की कोशिश में जुटी हुई हैं।

इसके जरिए वह अल्पंसख्यकों को अपने पक्ष में करना चाह रही हैं। वहीं बंगाली शिक्षित समाज, जिसे भद्रलोक कहा जाता है उसे भी अपने साथ लानी चाह रही हैं। इसके अलावा छात्र भी नागरिकता कानून के खिलाफ हैं तो पैदल मार्च कर वह युवा शक्ति को अपने साथ लाने की कोशिश में जुट गई हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में टीएमसी के 34 सांसद थे जो कि अब 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद 22 ही रहे गए हैं। बीजेपी ने राज्य की 18 सीटों पर जीत हासिल की है।

ममता को इस बात का आभास हो चुका है कि अगर मिडल क्लास, शिक्षित वोटबैंक को फिर से अपने पक्ष में लाना है तो एनआरसी और सीएए के खिलाफ मुखर होना पड़ेगा। सीएम ममता को लगता है कि इसके जरिए एंटी-बीजेपी वोटर्स को अपने पक्ष में लाया जा सकता है।

तृणमूल यह भी उम्मीद कर सकती है कि सीएए-एनआरसी जैसा भावनात्मक मुद्दा पार्टी नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के कई आरोपों से लोगों का ध्यान भटकाएगा। विधानसभा चुनाव में 2 साल से भी कम समय का वक्त रह गया है ऐसे में तमाम वोट बैंक को अपने पक्ष में करने के लिए आक्रमक बयानों के जरिए और पैदल मार्च की आदत को बीजेपी के खिलाफ हथियार बनाने जा रही हैं।