महाराष्ट्र की राजनीति पर पिछले कुछ महीनों में ऐसे सियासी घटनाक्रम हुए हैं कि उसने दो सबसे बड़े नेताओं की राजनीति पर गहरा असर छोड़ा है। एक हैं पूर्व सीएम उद्धव ठाकरे तो वहीं दूसरे हैं शरद पवार। शरद पवार को तो सबसे बड़ा सियासी झटका उनके ही भतीजे अजित से मिल गया है। पहले तो सिर्फ बगावत की थी, फिर पार्टी तोड़ी और अब एनसीपी ही अपने नाम कर ली है। चुनाव आयोग ने भी क्योंकि मुहर लगा दी है, ऐसे में कानूनी रूप से भी सुरक्षा कवच हाथ लग चुका है।
इस समय महाराष्ट्र की राजनीति को अगर सरल भाषा में समझा जाए तो दो सबसे बड़ी पार्टियां हीं अब दो हिस्सों में बंट चुकी हैं। एनसीपी जो पहले कभी शरद पवार की हुआ करती थी, वो अब अजित के पास चली गई है। बड़ी बात ये है कि नाम और चुनाव चिन्ह भी अजित के साथ गया है, यानी कि असल एनसीपी अब उन्हीं की रहने वाली है। दूसरी तरफ खड़ी है बाला साहेब ठाकरे की बनाई शिवसेना। वो पार्टी जिसने मराठाओं और हिंदुओं को साधकर महाराष्ट्र की राजनीति में हमेशा से ही सक्रिय भूमिका निभाई है।
उद्धव-पवार का समान दर्द, समान चुनौतियां
लेकिन इस समय उसी शिवसेना के दो हिस्से हो चुके हैं। यहां भी वही हाल है जो एनसीपी का देखने को मिला है। बगावत करने वाले सीएम एकनाथ शिंदे को रिवॉर्ड मिला है, उन्हें शिवसेना सौंप दी गई है, वहीं उद्धव ठाकरे खाली हाथ रह गए हैं। दोनों ही मामलों में कॉमन बात ये भी है कि सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग के फैसले को चुनौती दी गई है। अब कोर्ट का फैसला तो जब भी आए, लेकिन जब लोकसभा चुनाव एकदम करीब है, इन दो घटनाओं का बड़े लेवल पर असर पड़ना लाजिमी है।
अब इस असर का विश्लेषण भी दो तरीकों से करना पड़ेगा। एक प्वाइंट रहे विपक्ष के नजरिए से जहां पर बात इंडिया गठबंधन की होगी और महा विकास अघाड़ी पर भी बात करनी पड़ेगी। दूसरा प्वाइंट होगा बीजेपी को मिलने वाला संभावित फायदा। सवाल रहेगा कि क्या शिंदे और अजित के साथ आने से महाराष्ट्र की 48 सीटों पर बीजेपी के लिए माहौल और ज्यादा तगड़ा बन जाएगा?
शरद पवार के झटके का विपक्ष पर असर?
बात सबसे पहले विपक्ष की करते हैं जहां पर इस समय स्थिति कुछ खास अच्छी चल नहीं रही है। एनसीपी की पहचान जरूर शरद पवार की वजह से मानी जाती है, लेकिन पिछले कुछ सालों में अजित पवार ने भी अपनी स्थिति मजबूत की है। उनका भी जनाधार, उनके पास भी बड़ा समर्थन है। इसी वजह से जब अजित ने बगावत की, उनके साथ शरद पवार के करीबी माने जाने वाले छगन भुजबल, दिलीप वाल्से पाटिल और धनंजय मुंडे भी चल दिए। ये सारे वो नेता हैं जिनकी वजह से महाराष्ट्र में एनसीपी खड़ी थी और शरद पवार की सियासत भी चल रही थी। लेकिन अब जब ये सभी दूसरी तरफ से बैटिंग करने वाले हैं, इसका असर पड़ना लाजिमी है।
उद्धव के झटके का कैसा असर?
उद्धव ठाकरे की बात करें तो उनकी सियासत भी झटकों से उबरने की कोशिश कर रही है। जब से शिवसेना की चाबी एकनाथ शिंदे के पास पहुंच चुकी है, उनके पास भी ज्यादा विकल्प अब बचे नहीं हैं। जानकार मानते हैं कि उद्धव को अब उस जनता का आसरा है जिसने ही उन्हें और पहले उनकी शिवसेना को राज्य की राजनीति में सक्रिय बनाकर रखा है। उद्धव के पक्ष में सिर्फ एक बात बनती दिखती है, वो है सहानुभूति वाला फैक्टर। असल में जिस तरह से उद्धव को सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा था, उसके बाद जिस तरह शिंदे ने बगावत कर ज्यादातर विधायकों को तोड़ लिया, उद्धव अकेले पड़ गए।
अब ये अकेलापन ही विक्टिम कार्ड खेलने का अवसर बन सकता है। वैसे भी राजनीति में कई बार सभी समीकरण और मुद्दों पर ये सहानुभूति ही भारी पड़ जाती है। 1984 के चुनाव में राजीव गांधी की सरकार को मिला 400 प्लस वाला जनादेश इसका सबसे सटीक उदाहरण है। वैसे ये सहानुभूति वाला एंगल शरद पवार पर भी लागू रहने वाला है, 40 साल से भी लंबी सियासत कर चुके पवार जनता के बीच में तो लोकप्रिय हैं। 83 साल की उम्र में भी जब वे हार ना मानने की बात करते हैं, जनता का दिल भी पिघलता ही है।
नई पहचान बनाना चुनौती, ग्रामीण वोटर में जागरूकता की कमी
लेकिन शरद पवार और उद्धव ठाकरे के सामने एक समान चुनौती भी है। वो चुनौती है खुद की अलह पहचान स्थापित करना। आज भी हर कोई शरद पवार को एनसीपी प्रमुख के रूप में याद रखता है, वहीं उद्धव के नाम के साथ भी शिवसेना जुड़ी ही जाता है। लेकिन जब वोटिंग का वक्त आएगा, दोनों नेताओं की पार्टी अलग नाम, अलग चिन्ह के साथ खड़े होंगे। ऐसे में कम समय में वोटरों को, खास तौर पर ग्रामीण वोटरों को कैसे जागरूक किया जाता है, कैसे उन्हें समझाया जाता है कि उन्हें एनसीपी या शिवसेना को नहीं बल्कि उनकी नई पार्टी को वोट करना है, ये एक बड़ी चुनौती रहने वाला है।
ये बात कहने में जितनी छोटी लग रही है, इसका इमपैक्ट उतना पड़ा है। आज भी देश के कई हिस्सों में ये कहकर वोट डाला जाता है कि हम कमल का बटन दबाएंगे या हम धनुष बाण के साथ जाएंगे। ग्रामीण क्षेत्रों में तो ऐसा आम तौर पर होता दिख जाता है, ऐसे में जितनी जल्दी नई पार्टियों को लेकर जागरूता लाई जाएगी, उतना ही फायदे में ये दोनों नेता रहेंगे।
मजबूत गढ़ में भी होने वाली है सेंधमारी?
वैसे महाराष्ट्र की वर्तमान सियासत का असर सिर्फ उद्धव या शरद पवार तक सीमित नहीं रहने वाला है। ये नहीं भूलना चाहिए राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया गठबंधन बना हुआ है, महाराष्ट्र में भी उसी के तले चुनाव लड़ने की तैयारी है। लेकिन जैसे हालात बन गए हैं, शरद पवार, उद्धव ठाकरे और कांग्रेस की राह आसान नहीं रहने वाली है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि अगर एनसीपी एकजुट होती, शिवसेना में दो फाड़ नहीं होती तो बीजेपी को इस बार कड़ी टक्कर मिलती। इसका कारण ये है कि एनसीपी अगर पश्चिमी महाराष्ट्र और पुणे क्षेत्र में अपना दबदबा दिखाती तो वहीं शहरी इलाकों में शिवसेना बीजेपी की उम्मीदों पर पानी फेरती।
बीजेपी पर कैसे असर डाले ईसी का फैसला?
लेकिन ये दोनों ही समीकरण अब उल्टे पड़ सकते हैं। अजित के आउट होने से एक बड़ा जनाधार वाला नेता विपक्ष से दूर हो चुका है, वहीं शिंदे के जाने से भी एक बड़ा वोटबैंक खिसका है। अब इसका सीधा फायदा बीजेपी को मिलने की उम्मीद है, जहां चुनौती पेश हो सकती थी, वहां भी अवसर बनने का मौका दिख रहा है। बीजेपी के पास वर्तमान महाराष्ट्र से लोकसभा की 23 सीटें हैं, वो हर कीमत पर इस आंकड़े को बढ़ाना चाहती है। ऐसा होने की संभावना भी है क्योंकि अगर अजित पवार के जरिए ग्रामीण और पश्चिमी महाराष्ट्र के वोटरों को साधने की तैयारी है तो वहीं शिंदे के जरिए मुंबई और दूसरे शहरी इलाकों में और मजबूत करने की कवायद है।
अजित से राहत, शिंदे का रिकॉर्ड ना कर दे नुकसान
इसके ऊपर ये भी बड़ी बात है कि एनसीपी का महाराष्ट्र की राजनीति में सहकारिता क्षेत्र में बड़ा दबदबा है। पिछले 25 सालों से इस सोसायटी के पांच करोड़ से भी अधिक लोग पार्टी का वोटबैंक बने हुए हैं। अजित के एनडीए के साथ आने से इस वोटबैंक में भी कुछ हद तक तो सेंधमारी संभव दिख रही है। लेकिन बीजेपी का चिंता का विषय ये है कि एकनाथ शिंदे को साथ लाने के बाद भी पार्टी को हाल के कुछ उपचुनावों में वैसी सफलता नहीं मिली, जिसकी वो उम्मीद लगाए बैठी थी। यानी कि बीजेपी समीकरणों के लिहाज से जरूर मजबूत दिखाई देती है, लेकिन अनुभव और पवार की पावर विपक्ष के पास भी मौजूद है, ऐसे में लोकसभा रण के दौरान महाराष्ट्र की 48 सीटों पर दिलचस्प खेल देखने को मिलने वाला है।