महाराष्ट्र चुनाव इस बार काफी दिलचस्प देखने को मिल रहा है, महा विकास अघाड़ी और महायुति दोनों ने अपने सभी उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतार दिए हैं। लेकिन फिर भी पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार समीकरण कुछ बदले बदले से नजर आ रहे हैं। एक तरफ अगर कांग्रेस सबसे कम सीटों पर चुनाव पहली बार लड़ रही है तो दूसरी तरफ बीजेपी ने भी गठबंधन धर्म निभाते हुए कम सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है।
देश की सबसे बड़ी पार्टी के लिए यह ट्रेंड हैरान करने वाला है क्योंकि ज्यादातर चुनावों में यही देखा गया है कि बीजेपी ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की कोशिश करती है लेकिन महाराष्ट्र में केस पूरी तरह पलट चुका है। इस बार एकनाथ शिंदे और अजित पवार की पार्टी को साथ रखने के लिए बीजेपी ने अपनी ही कई सीटों को छोड़ने का फैसला किया है। अब सामने से देवेंद्र फडणवीस जैसे नेता जरूर इसे गठबंधन धर्म बता रहे हैं लेकिन जानकार इसमें बीजेपी की कई मजबूरियां भी देख रहे हैं।

कितनी सीटों पर चुनाव लड़ रही बीजेपी?
महाराष्ट्र की कुल 288 विधानसभा सीटों में इस बार भाजपा 148 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। अगर पिछले विधानसभा चुनाव की बात करें तो बीजेपी इस बार 15 कम सीटों पर चुनाव लड़ रही है। दूसरी तरफ एकनाथ शिंदे की पार्टी को सीधा फायदा पहुंचा है और वह इस बार 80 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार चुके हैं। दूसरी तरफ अजित पवार की एनसीपी 53 सीटों पर खड़ी हुई है। अब बीजेपी इस बार अगर कुछ कम सीटों पर चुनाव लड़ रही है तो इसके अपने कारण सामने आते हैं।
सत्ता विरोधी लहर को पाटना जरूरी
सबसे पहले तो समझने वाली बात यह है कि भाजपा के खिलाफ राज्य में सत्ता विरोधी लहर कायम है। ऐसी ही स्थिति हरियाणा में भी थी, अब वहां तो नायब सिंह सैनी को आगे कर ओबीसी कार्ड के जरिए उस नाराजगी को जरूर को कुछ कम कर दिया गया, लेकिन महाराष्ट्र में अभी वैसी स्थिति नहीं बनी है। ऐसे में जिन भी सीटों पर भाजपा के लिए अपने दम पर लड़ाई मुश्किल हो सकती थी, उसने वहां अपने सहयोगी दलों को मौका दे दिया है। राज्य की कम से कम 10 ऐसी सीटें सामने आई हैं जहां पर भाजपा ने अपने सहयोगी दलों के साथ अदला बदली की है। जानकार मानते इससे भाजपा अपना स्ट्राइक रेट मेंटेन रख सकती है।
मराठा आरक्षण का गुस्सा डायवर्ट करने की कोशिश
एक दूसरी बात समझने वाली यह भी है कि महाराष्ट्र में अभी भी मराठा आरक्षण का मुद्दा काफी बड़ा बना हुआ है। इस वर्ग में ज्यादातर लोग बीजेपी को अपना विरोधी भी समझते हैं। लेकिन बात जब शिवसेना की आती हो या फिर एनसीपी की, उनको लेकर मराठा समुदाय का रुथ कुछ नरम दिखाई देता है। इसी वजह से बीजेपी मानकर चल रही है कि बात जब लोकल मुद्दों पर आएगी, तब एकनाथ शिंदे और अजित पवार की पार्टी को आगे कर दिया जाएगा। दूसरी तरफ राष्ट्रीय मुद्दों के सहारे और पीएम मोदी को आगे कर बीजेपी अपना चुनावी माहौल सेट करेगी।
बीजेपी का बड़ा खेल, ‘बैकडोर उम्मीदवारों’ का विश्लेषण
वैसे कुछ जानकार इस पूरे गेम को अलग नजरिए से भी देखते हैं। पहली नजर में जरूर ऐसा देखा जा रहा है कि बीजेपी कम सीटों पर चुनाव लड़ रही है लेकिन दूसरी तरफ बीजेपी ने अपने ही कई उम्मीदवारों को शिवसेना और अजित पवार की पार्टी के सिंबल से टिकट दिलवा दिया है, यानी कि नेता उनके हैं लेकिन चुनाव में सहयोगी दलों की पार्टी से लड़ रहे हैं। ऐसा कर भाजपा ने कई फ्रंट पर समीकरण साधने की कोशिश की है। इस तरह से उनके सहयोगी पार्टियों को ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने का मौका मिला है तो वहीं दूसरी तरफ बीजेपी के कई ऐसे नेता जो चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर कर रहे थे, उन्हें भी चुनावी मैदान में उतरने का बड़ा मौका मिल गया। इस तरह से जानकार मानते हैं कि भाजपा ने पार्टी के अंदर पैदा हो रहे असंतोष को कुछ हद तक कम करने की कोशिश की है।
सहयोगी दलों को खुश करने का सटीक फॉर्मूला
इसका सबसे बड़ा उदाहरण दो महाराष्ट्र की कोकण में सामने आया है जहां पर भाजपा नेता नारायण राणे के बेटे नितेश राणे एकनाथ शिंदे की पार्टी की तरफ से चुनावी मैदान में उतर चुके हैं। चुनाव से ठीक पहले उन्होंने बीजेपी छोड़ एकनाथ शिंदे की पार्टी ज्वाइन की और फिर उन्हें कुडाल मालवन सीट से उम्मीदवार बना दिया गया। इसी तरह बीजेपी की प्रवक्ता शाईना एनसी इस बार मुंबादेवी से चुनाव लड़ रही हैं, पहले वे बीजेपी की टिकट पर मुंबादेवी से ही टिकट चाहती थीं, लेकिन जब गठबंधन धर्म की वजह से यह सीट शिवसेना के खाते में चली गई तो शाईना ने बीजेपी छोड़ शिंदे की पार्टी ज्वाइन की और फिर वहां से चुनावी मैदान में उतर गईं।
रणनीति मजबूत लेकिन बीजेपी की मजबूरियां अनेक
ऐसे में बीजेपी ने कई सीटों पर चुनाव ना लड़ते हुए भी अपने ही उम्मीदवार उतार दिए हैं। इस नजरिए से जरूर कहा जा सकता है कि भाजपा पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले कुछ अतिरिक्त सीटों पर चुनाव लड़ रही है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पार्टी के सामने चुनौतियां कम हैं। एक तरफ अगर मराठा आरक्षण वाला मुद्दा भाजपा के लिए सिर दर्द बना हुआ है तो दूसरी तरफ उनकी पार्टी के सबसे बड़े नेता देवेंद्र फडणवीस ब्राह्मण समुदाय से आते हैं जिनका महाराष्ट्र में असर काफी कम है। इसके ऊपर किसानों की नाराजगी, बढ़ती बेरोजगारी जैसे मुद्दे भी बीजेपी को बैकफुट पर कर देते हैं। अब सवाल वही है- क्या गठबंधन के सहारे बीजेपी अपनी छवि सुधारने की कोशिश कर रही है? क्या गठबंधन के सहारे वो अपने प्रति पैदा हुए आक्रोश को कम करने की कवायद में है?