Maharashtra Language Row: पिछले दिनों महाराष्ट्र की राजनीति में हिंदी को थोपे जाने का आरोप लगाकर खूब बवाल हुआ। राज्य सरकार की कमान संभाल रही बीजेपी इससे इस कदर दबाव में आ गई कि उसे तीन भाषा नीति पर अपना फैसला वापस लेना पड़ा। अब सवाल यह उठा रहा है कि क्या फडणवीस सरकार ने ऐसा करके सेल्फ गोल कर लिया है और विपक्ष को ताकतवर होने का मौका दिया है।
इस मामले में महायुति सरकार का रवैया ढुलमुल दिखाई दिया है।
शासनादेश जारी क्यों किया?
महाराष्ट्र की राजनीति में सवाल पूछा जा रहा है कि फडणवीस सरकार ने आखिर शासनादेश जारी क्यों किया? पहले शासनादेश में कक्षा 1 से 5 तक के छात्रों के लिए तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को अनिवार्य बनाया गया था लेकिन जब इसका शिवसेना (यूबीटी) और एमएनएस ने विरोध किया तो सरकार ने इसमें संशोधन किया।
‘महाराष्ट्र में मराठी और अंग्रेजी को ही प्रमुखता…’
नए शासनादेश में हिंदी को वैकल्पिक बनाने की बात कही गई लेकिन विपक्षी दलों ने कहा कि फडणवीस सरकार हिंदी को नए सिरे से थोपने की कोशिश कर रही है। बीजेपी पर हमला करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कहा कि हम हिंदी के खिलाफ नहीं हैं लेकिन हम प्राथमिक स्तर पर छात्रों पर हिंदी थोपने के खिलाफ हैं।
उद्धव-राज के साथ आने के ऐलान से बवाल
यह मामला इसलिए भी काफी चर्चा में आ गया क्योंकि लंबे वक्त से एक दूसरे से दूर रहे उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे ने सरकार के शासनादेश के विरोध में एक साथ आने का ऐलान कर दिया। हालांकि महाराष्ट्र में हिंदी को लेकर वैसा विरोध नहीं देखने को मिला जैसा दक्षिण के राज्यों में होता रहा है। महाराष्ट्र के गठन से पहले विदर्भ मध्य भारत (अब मध्य प्रदेश का हिस्सा) का हिस्सा था इसलिए हिंदी आज भी इन इलाकों में अपनी अहमियत रखती है।
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मराठी अस्मिता की राजनीति
अविभाजित शिवसेना और मनसे की राजनीति का मुख्य मुद्दा मराठी अस्मिता ही रही है लेकिन अब उन्हें इस मुद्दे का वैसा चुनावी फायदा नहीं मिलता जैसा पहले कभी होता था। शिवसेना की स्थापना ही बालासाहेब ठाकरे ने मराठी मानुष के साथ अन्याय के खिलाफ की बात कहकर की थी। बाद में जब राज ठाकरे शिवसेना से अलग हुए और मनसे बनाई तो वह भी मराठी अस्मिता की ही बात करते रहे।
निश्चित रूप से शासनादेश रद्द करने के फडणवीस सरकार के फैसले से न सिर्फ उद्धव और राज ठाकरे बल्कि महाविकास अघाड़ी गठबंधन में शामिल कांग्रेस और शरद पवार के नेतृत्व वाली NCP को भी ताकत मिली है।
शिंदे सेना और अजित की एनसीपी भी नाराज
इस मामले में बीजेपी को अपने सहयोगी दलों एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की एनसीपी की ओर से भी आलोचना का सामना करना पड़ा क्योंकि इन दोनों दलों ने भी तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को अनिवार्य किए जाने के फैसले का विरोध किया था। इस पूरे प्रकरण से शिंदे की शिवसेना इसलिए परेशान है क्योंकि उसका मानना है कि भाषा विवाद ने सेना (यूबीटी) और मनसे को ‘नया जीवन’ दे दिया है।
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