प्रभात कुमार
प्रकृति प्रेम और पर्यावरण के रखरखाव की बातें बहुत होती हैं। प्रकृति प्रेम बढ़ाने के लिए बाजार में दर्जनों किस्म के आकर्षक गमले बिकते हैं, जिन्हें ग्राहक खरीदता भी है। हालांकि मिट्टी के गमले भी उपलब्ध हैं, पर्यावरण और इंसानी जिंदगी में उनके फायदे बारे में सब जानते हैं, लेकिन प्लास्टिक के गमलों की एक साल की नहीं, लंबे समय की गारंटी है, इसलिए ज्यादा खरीदे जाते हैं। उनका रखरखाव आसान है।
बाजार में ही प्लास्टिक, रबड़, कपड़े अन्य सामग्री के सुंदर और धोए जा सकने वाले फूल उपलब्ध हैं। उनमें से ज्यादातर सामान्य क्या, किसी भी नर्सरी में नहीं मिलते। उनका रखरखाव आसान है तो नर्सरी से कुदरती फूल और पौधे क्यों लाएंगे, जिनका रखरखाव इतना भी आसान नहीं। उन्हें भी तो इंसानों की मानिंद पानी, खाना और दवाई चाहिए! एक परिचित के नए फ्रिज में पच्चीस साल से भी ज्यादा पुराना बारह सौ ग्राम अर्ध तरल रखने के लिए उम्दा प्लास्टिक से बना रबड़ के ढक्कन वाला डिब्बा मौजूद है। यह प्लास्टिक की सिर्फ एक वस्तु का जिक्र है। अधिकांश गृहस्थियों में बरसों से प्रयोग हो रही दूसरी अनगिनत, खूबसूरत बहुउपयोगी प्रिय वस्तुएं मौजूद हैं।
हम अपने आसपास इसे खोज और देख सकते हैं। हम प्रसन्नचित हैं कि हमारे पास प्लास्टिक, रबड़ से बना इतना कुछ है जो सालों से हमारा है और हमारा रहेगा। ठीक एक पुराने गीत की तरह हम सोचते हैं कि पचास साल पहले मेरे पास प्लास्टिक था, आज भी है और हमेशा रहेगा। कोई चीज टूट जाती है, फेंक दिए जाने की परीक्षा पास कर लेती है, तभी अपने से जुदा की जाती है। हमारे बीच दांत साफ करने वाले ब्रश की गाथा के बारे में हर भारतीय जानता है। प्लास्टिक की गोद में बैठे हुए सामूहिक रूप से सुबह से शाम तक लोग प्लास्टिक की जरूरत के गीत गुनगुनाते रहते हैं।
दरअसल, लोगों के लिए प्लास्टिक के बिना जीना मुश्किल हो चुका है। इसके नुकसानों को जानते हुए भी हम इसकी जरूरत से परहेज नहीं कर पाते। अभी तक अधिकांश लोग यह समझ नहीं पाए कि पर्यावरण और मानव जीवन के लिए कितना नुकसानदेह है। ‘एकल प्रयोग प्लास्टिक’ प्रतिबंधित है। उसके पुराने भंडार कहीं पड़े-पड़े उदास होने लगे हैं। विक्रेताओं ने नियत थैलों में सामान देना शुरू कर दिया है, लेकिन अधिकांश खरीदारों ने कपड़े का अपना थैला लाना शुरू नहीं किया।
आम बस्तियों, सड़कों और गलियों में कूड़े-कचरे के ढेर लगे हैं, जिनमें प्लास्टिक, पालिथिन भी शामिल है। खरा सच यह है कि लोगों की आदतें बदली नहीं हैं। उन्हें यह भी अच्छी तरह पता है कि शासन और प्रशासन अनुशासन कैसे लागू करता है। कचरे का दुष्प्रभाव हवा और पानी की गुणवत्ता, जमीन की उर्वरा शक्ति जानवरों के जीवन को लील रहा है।
सफाई कार्यक्रम के अंतर्गत गीला सूखा कूड़ा अलग अलग लेने वाले प्लास्टिक के डिब्बे कूड़ा हो चुके हैं। अभी तो यह भी स्पष्ट नहीं है कि किस सीमा तक प्लास्टिक को ‘एकल उपयोग’ माना जाए। पैकिंग में इस्तेमाल हो रहा पाली प्लास्टिक भी तो एकल उपयोग है और रोजाना प्रयोग हो रहे दूध के लाखों-करोड़ों पैकेट भी एकल उपयोग प्लास्टिक हैं। बिस्कुट और खाने के अन्य उत्पाद सस्ते और नुकसानदेह पालीपैक में बेचे जा रहे हैं। ये बस कुछ उदाहरण हैं।
यह मानवीय विकास संस्कृति की असफलता है, जिसने समाज को आला दर्जे का प्लास्टिकजीवी बना दिया है। हम इतिहास में प्रवेश कर प्लास्टिक की शुरुआत को वापस भी नहीं भेज सकते। जबकि इसी प्लास्टिक के कारण नदी को मां मानने वाला और वृक्षों की पूजा करने वाला भारत प्लास्टिक प्रदूषण फैलाने के मामले में दुनिया के बीस शीर्ष देशों में शुमार रह चुका है। दरअसल, पर्यावरण प्रदूषण कभी संजीदा प्राथमिकताओं में रहा ही नहीं। इसीलिए हर सामाजिक और कानूनी प्रतिबंध को बिसराने का प्रयास किया जाता है। मगरमच्छों को प्लास्टिक के समंदर से बाहर नहीं किया जा सकता, फिर छोटी मछलियों को भी क्यों पकड़ा जाए!
जागरूकता की जबरदस्त कमी बीमार शरीर में किसी जरूरी विटामिन की कमी की तरह बरकरार है। लगता है उसके लिए अब कानून के रास्ते ही कोई उपाय निकाले जाने की इंतजार करना पड़ेगा। इस संदर्भ में इसके कारोबार को कायम रखने वालों की दुनिया भी अपनी प्रभावशाली टांग अड़ा सकती है, क्योंकि उनके बिना कोई भी उत्पाद बंद नहीं हो सकता।
फिलहाल जरूरत यह है कि ‘तीन आर सिद्धांत’ यानी प्रयोग की गई वस्तु को पुनर्चक्रण करना (रिसायकल), कम करना (रिडयूस) और पुन: उपयोग करना (रियूज) को बेहद संजीदगी से अपनाया जाए। बहुत से लोगों ने कम चीजों के साथ जीवनयापन को प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया है। प्लास्टिक के उत्पाद जल्दी खत्म न होंगे, लेकिन इनका प्रयोग तो कम किया जा सकता है। उचित रास्ता यही रहेगा कि कुछ सशक्त विचारों को सचमुच व्यवहार में लाकर अपने परिवार से शुरुआत कर अपना योगदान देना शुरू कर दिया जाए।