लोकसभा चुनाव का जिक्र जब भी किया जाता है, झारखंड की बात करना जरूरी है। आदिवासी समाज की इस भूमि पर अलग ही तरह की राजनीति चलती है, संघर्ष तो इसके डीएनए में माना जाता है। इस समय तो वैसे भी जिस तरह से हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी हुई है और चंपई सोरेन को सीएम पद की शपथ दिलवाई गई है, ये राज्य सबसे ज्यादा चर्चा का विषय बना हुआ है। ऐसे में इस राज्य को लेकर सभी की रुचि बढ़ चुकी है, हर कोई जानना चाहता है कि यहां की राजनीति कैसी है, यहां के मुद्दे क्या हैं, यहां के सबसे बड़े मुद्दे कौन से माने जाते हैं।

झारखंड में कितनी लोकसभा सीटें?

झारखंड से लोकसभा की 14 सीटें निकलती हैं। यहां भी पांच सीटें पिछड़े समाज के लिए आरक्षित रहती हैं। सियासी रूप से भी राज्य को कुछ हिस्सों में बांटा गया है। हर हिस्से की अपनी राजनीति, अपने जातिगत समीकरण रहते हैं।

कितने हिस्सों में बंटा झारखंड?

झारखंड को राजनीतिक और डेमोग्राफी के लिहाज से कुल पांच डिवीजन में बांटा जाता है। वैसे तो ये राज्य आदिवासी बाहुल है, लेकिन फिर भी अलग-अलग डिवीजन में कुछ लोकल मुद्दे हावी दिख जाते हैं। झारखंड को इन हिस्सों में बांटकर देखा जा सकता है-

पलामू: पलामू झारखंड का एक ग्रामीण इलाका माना जाता है जहां पर बड़ी आबादी गांव में ही निवास करती है। खेरवार, चेरो, उरांव, बिरजिया और बिरहोर जैसी जनजातियां यहां पर सक्रिय भूमिका निभाती हैं। पलामू में एक तरफ हिंदुओं की संख्या 1,683,169 है तो वहीं मुस्लिम आबादी 238,295 चल रही है।

उत्तरी छोटा नागपुर: झारखंड के इस इलाके से लोकसभा की कुल चार सीटें निकलती हैं, वहीं विधानसभा की कुल 25 सीटें रहती हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में यहां की सभी चार सीटों पर बीजेपी ने ही जीत दर्ज की थी। इस हिस्से को 7 जिलों में बांटा गया है- धनबाद, बोकारो,हजारीबाग, कोडरमा, गिरिडीह, चतरा, रामगढ।

संथाल परगना: झारखंड के संथाल परगाना से लोकसभा की कुल तीन सीटें निकलती हैं- डुमका, गोडा और राजमहल। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने यहां से दो सीटें जीत ली थीं, वहीं राजमहल में उसे हार का सामना करना पड़ा था। विधानसभा के लिहाज से तो संथाल परगना से कुल 18 सीटें निकलती हैं।

कोल्हन: झारखंड को सबसे ज्यादा मुख्यमंत्री देने वाला कोल्हन इलाका हर पार्टी के लिए काफी अहम रहता है। यहां से लोकसभा की दो सीटें निकलती हैं, वहीं विधानसभा की 14 सीटें हैं। आदिवासी समाज की राजनीति यहां पर हावी रहती है और कुल चार सीएम इसी कोल्हन से निकले हैं।

दक्षिणी छोटा नागपुर: झारखंड के इस इलाके से लोकसभा की कुल तीन सीटें निकलती हैं जो पिछली बार बीजेपी के कब्जे में गई थीं। विधानसभा की बात करें तो दक्षिणी छोटा नागपुर 15 सीटों के साथ एक अहम गढ़ बना हुआ है। बड़ी बात ये है कि 71 फीसदी आदिवासियों की संख्या इसी इलाके से निकलती है। रांची जैसा अहम इलाका भी दक्षिणी छोटा नागपुर का ही हिस्सा है।

झारखंड- कितनी जातियां, कितने धर्म, क्या समीकरण?

आदिवासी बहुल झारखंड भी जातियों से अछूता नहीं है, यहां भी धर्म और जाति के नाम पर ही सरकारें बन जाती हैं। हर पार्टी के एक खास वोटबैंक बना हुआ है और उसी के आधार पर हार-जीत लगी रहती है।

ओबीसी: झारखंड में ओबीसी समाज काफी निर्णायक माना जाता है। 55 फीसदी के करीब राज्य में इनकी आबादी है। राज्य की सभी 14 सीटों पर इनकी अहम भूमिका रहती है। यहां भी कुर्मी समुदाय का वोट निर्णायक माना जाता है। बीजेपी, जेएमम और कांग्रेस, सभी के पास इस वोटबैंक का कुछ समर्थन हासिल रहता है। जब से पूर्व सीएम द्वारा ओबीसी समाज का आरक्षण बढ़ाकर 77 फीसदी किया गया है, जमीन पर समीकरण बदले हैं।

आदिवासी: झारखंड को आदिवासी बाहुल माना जाता है, यहां की राजनीति सबसे ज्यादा इसी वोटबैंक के इर्द-गिर्द घूमती है। ये अलग बात है कि ओबीसी की आबादी ज्यादा है, लेकिन आज भी आदिवासी समाज के बिना यहां की राजनीति संभव नहीं। झारखंड में आदिवासी समाज की उपस्थिति 26 फीसदी के करीब बैठती है।

दलित: झारखंड में 11 प्रतिशत दलित की आबादी है। बीजेपी को इस आबादी का झारखंड बनने के बाद से ही अच्छा खासा वोट मिला है। इसका कारण ये भी माना जाता है कि जेएमएम को एक आदिवासी पार्टी के रूप में ज्यादा मान्यता मिली हुई है, इसी वजह से दलित वोटर बीजेपी की ओर आकर्षित रहता है।

मुस्लिम: झारखंड में मुस्लिम आबादी की भी निर्णायक भूमिका रहती है। राज्य में मुस्लिमों की आबादी 14.5 फीसदी के करीब है। लेकिन सत्ता में इसी समुदाय की उपस्थिति काफी कम रहती है। लेकिन आंकड़ों में बात करें तो 7 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां पर इनकी संख्या 22 प्रतिशत से लेकर 38 प्रतिशत तक दर्ज की जाती है।

हिंदू: झारखंड में हिंदू धर्म मानने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। यहां हिंदुओं में ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कायस्थ शामिल हैं। यादव, कुर्मी और बनिया भी कम आबादी में ही सही, अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं।

झारखंड के बड़े सियासी चेहरे

झारखंड की राजनीति कहने को सिर्फ 24 साल पुरानी है, लेकिन यहां से कई दिग्गज नेता निकले हैं। कई तो ऐसे भी हैं जो सिर्फ अपनी जाति के दम पर चुनाव जीत जाते हैं। यहां के नेता आदिवासियों की राजनीति करते दिख जाएंगे, कुछ दूसरे पिछड़े समाज पर फोकस करेंगे तो कुछ अन्य छोटी जातियों को साधने की प्लानिंग में दिख जाएंगे।

अर्जुन मुंडा: झारखंड में बीजेपी के सबसे वरिष्ठ नेताओं में अर्जुन मुंडा का नाम आता है। उन्होंने तीन बार राज्य के सीएम के रूप में शपथ ली है, ये अलग बात है कि पांच साल का कार्यकाल एक बार भी पूरा नहीं हो पाया। आदिवासी समाज की राजनीति करने वाले अर्जुन मुंडा को कई लाभकारी योजनाओं को शुरू करने का क्रेडिट भी दिया जाता है।

शिबू सोरेन: झारखंड मुक्ति मोर्चा के फाउंडर रहे शिबू सोरेन भी राज्य के कई मौकों पर मुख्यमंत्री रह चुके हैं। झारखंड की राजनीति में उन्हें ‘गुरु जी’ की पदवी भी दी जाती है। उन्होंने भी अपनी सियासत को आदिवासी समाज के अधिकारों के इर्द-गिर्द भुनाया है।

बाबूलाल मरांडी: झारखंड के पहले मुख्यमंत्री के रूप में बाबूलाल मरांडी के काम को आज भी याद किया जाता है। तीन सालों तक उन्होंने सीएम रहते हुए झारखंड के विकास का जिम्मा अपने कंधों पर रखा था। संघ की पृष्ठभूमि से आए मरांडी वर्तमान में बीजेपी के लिए झारखंड में सबसे बड़ा चेहरा हैं। उनके जरिए आदिवासी वोटरों को साधने की बड़ी कवायद की गई है।

हेमंत सोरेन: हेमंत सोरेन कुछ वक्त पहले तक झारखंड के मुख्यमंत्री रहे थे। जेएमएम के प्रमुख सोरेन भी आदिवासी समुदाय से आते हैं और उनके नेतृत्व में इस समाज के लिए कई बड़े कदम उठाए गए हैं। दुमका और बरहट में हुए अभूतपूर्व विकास के लिए उन्हें 2019 में सम्मानित भी किया गया है।

सुदेश मेहतो: झारखंड की राजनीति में सुदेश मेहतो का नाम भी हर बार लिया जाता है। शिभू सोरेन की सरकार में डिप्टी सीएम रह चुके सुदेश मेहतो वर्तमान में AJSU के प्रमुख हैं। साल 2000 में सबसे पहले वे सबसे पहले विधायक बने थे, उसके बाद से सिली विधानसभा उनका गढ़ बन गया।

झारखंड के अहम मुद्दे?

झारखंड में वैसे तो एक आदिवासी बाहुल राज्य है, लेकिन यहां पर लंबे समय से अवैध घुसपैठ एक चर्चित मुद्दा बना हुआ है। असल में बीजेपी संथला इलाके को लेकर इस मुद्दे को लगातार उठा रही है। दावा किया जा रहा है कि बांग्लादेश से बड़ी संख्या में घुसपैठ हो रही है जो झारखंड के अलग-अलग इलाकों में इस समय प्रवास कर रहे हैं। इसके अलावा झारखंड में पलायन भी एक अहम मुद्दा बना हुआ है। राज्य से ज्यादा तादात में युवाओं का बाहर जाना भी सरकारों पर सवाल उठाता है, एक बार फिर चुनाव में इस मुद्दे का भी शोर रहने वाला है। इसके साथ-साथ मानव तस्करी और कानू व्यवस्था का मुद्दा भी वोटरों की सोच को प्रभावित करता है।