Lok Sabha Dalit Members: सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी आरक्षण मामले में हाल में ही उप-वर्गीकरण की बात कही है, जिससे दलित समाज के अंदर भी सभी उपजातियों को आरक्षण में समान अधिकार मिल सकें। कोर्ट के इस रुख के इतर अगर 18वीं लोकसभा पर नजर डालें तो इस बार 84 दलित सांसद में बैठे हैं। इनका विश्लेषण करने पर सामने आता है कि अपने-अपने राज्यों में अन्य एससी समूहों की अपेक्षा, राजनीतिक और आर्थिक प्रभुत्व रखने वाले दलित उप-समूहों को संसद में ज्यादा प्रतिनिधित्व मिल रहा है।
18वीं लोकसभा में उत्तर प्रदेश से 17, पश्चिम बंगाल से दस, तमिलनाडु से 7 , बिहार से 6 सांसद दलित समुदाय के बने हैं, क्योंकि उनके पास समुदाय के लिए सबसे ज़्यादा सीटें आरक्षित थीं। बात कर्नाटक और महाराष्ट्र की करें तो दोनों राज्यों से 5-5 और आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब और राजस्थान से 4-4 दलित सांसद जीतकर संसद पहुंचे हैं।
दलितों को कैसे मिल रहा मौका
इस विश्लेषण में सामने आया कि किसी खास एससी ग्रुप की तुलना में स्पेशल क्षेत्र में जनसंख्या के आधार पर राजनीतिक दलों ने अपने प्रत्याशियों को मौका दिया था। इसके चलते ही उन खास वर्ग के नेताओं ने नतीजों को प्रभावित किया। लोकसभा सांसद एक राजनीतिक ऑफिस के जैसा ही है। इनमें और सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में आरक्षण के बीच एक अंतर यह है कि पूर्व में जनसंख्या मायने रखती है, जबकि बाद में केवल एक विशेष दलित जाति की बात होती है। यह कुछ ऐसा है जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने उप-वर्गीकरण की अनुमति देकर संबोधित करने का प्रयास किया।
यूपी में दो ग्रुप के सांसदों की ज्यादा पकड़
उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित 17 सीटों में से पासी उम्मीदवारों ने सात और जाटवों ने पांच सीटें जीतीं है। राज्य में अनुसूचित जातियों की आबादी में 16% पासी हैं, जो जाटवों के बाद संख्यात्मक रूप से दूसरा सबसे बड़ा अनुसूचित जाति समूह है, जो दलित आबादी का 56% हिस्सा हैं। बीएसपी के पारंपरिक वोट बैंक के रूप में देखे जाने वाले जाटवों ने इस बार आंशिक रूप से एसपी-कांग्रेस गठबंधन को वोट दिया, जबकि मायावती के नेतृत्व वाली पार्टी को पूरी तरह से नहीं छोड़ा। मायावती की पार्टी बीएसपी का इस बार राज्य में वोट प्रतिशत 9 के करीब रहा था।
इन सब में भी नगीना सीट एक अपवाद थी, जहां जाटवों ने आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) के चंद्रशेखर आज़ाद के लिए एकमुश्त वोट दिया, जो भी इसी समुदाय से हैं। उत्तर प्रदेश से पांच अन्य दलित सांसद धनगर, खरवार, गोंड और वाल्मीकि समुदायों से हैं, जो शिक्षा और सरकारी नौकरियों और सेवाओं तक पहुंच के मामले में जाटवों से पीछे हैं।
पश्चिम बंगाल के प्रमुख दलित ग्रुप की हिस्सेदारी ज्यादा
बात पश्चिम बंगाल की करें तो तृणमूल कांग्रेस ने 10 एससी-आरक्षित सीटों में से छह पर जीत हासिल की, जबकि बाकी पर बीजेपी के प्रत्याशी ने जीत दर्ज की है। दलित सांसदों में से चार नामशूद्र समुदाय से हैं, जिसे राज्य में प्रमुख एससी समूहों में से एक माना जाता है। दो राजबंशी सांसद और पौंड्रा समुदाय के एकमात्र सांसद ने उन निर्वाचन क्षेत्रों से जीत हासिल की, जहां उनके संबंधित समुदाय प्रमुख चुनावी ताकत हैं। राज्य के अन्य तीन दलित सांसद सुनरी, माल और बागड़ी समुदायों से हैं जो तुलनात्मक रूप से बाकी की तुलना में अधिक पिछड़े हैं।
दक्षिण भारतीय राज्यों की बात करें तो यहां भी हाल उत्तर भारत जैसा ही है। प्रमुख दलित समूहों के नेताओं को नेतृत्व का बड़ा हिस्सा हासिल हुआ है। इसमें तेलुगू राज्यों तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में 21 एससी-आरक्षित सीटों में से 17 माला जाति वर्ग के पास है। इसके अलावा कर्नाटक के एससी राइट (होलेयास), केरल के पुलाया; और तमिलनाडु के परैयार और पल्लर जाति वर्ग के नेताओं को अधिक वरीयता मिली है। ये सभी दलित समुदाय अन्य दलित उप-समूहों की तुलना में राजनीतिक और आर्थिक रूप से काफी प्रभावशाली हैं।
बता दें कि कई प्रमुख दलित समुदायों ने भी अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध किया है। इसमें आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में माला, कर्नाटक में होलेया और तमिलनाडु और केरल में परैयार और पुलाया शामिल हैं। जाटव समूह को अपना अहम वोट बैंक मानने वाली यूपी की पूर्व सीएम मायावती ने कहा था कि अनुसूचित जातियों का प्रस्तावित उप-वर्गीकरण अनुचित है।
