दरअसल, रविवार की रात इस दंपति के दिमाग में यह धारणा हावी हो गई थी कि आज कलयुग समाप्त होकर कल सतयुग शुरू होगा और दैवीय शक्ति से उनकी बेटियां कुछ घंटों में फिर से जिंदा हो जाएंगी। इसके बाद पिता के सामने मां ने त्रिशूल से दोनों बेटियों को मार डाला। उनकी योजना खुद को भी मार डालने की थी, मगर समय पर पुलिसकर्मी वहां पहुंच गए।

हो सकता है कि देश और दुनिया में हो रही बहुत सारी हत्या की घटनाओं की तरह इसे भी किसी आम वाकये के तौर पर दर्ज किया जाए, लेकिन सच यह है कि ऐसी घटनाएं बेहद जटिल प्रकृति की होती हैं, जिसे किसी सूचना या कानूनी मामला मान कर नहीं देखा-समझा जा सकता! सवाल है कि आखिर किन वजहों से दंपति के दिमाग में इस तरह की धारणा बैठी कि सतयुग खत्म होकर कलयुग आने वाला है और फिर बेटियों के साथ वे मौत के बाद फिर से जिंदा हो जाएंगे!

जाहिर है, यह परतों में गहरे बैठे उस अंधविश्वास का त्रासद नतीजा है, जो व्यक्ति को परिवार और समाज में धीरे-धीरे चुपचाप मिलता रहता है। आमतौर पर लोग इसे आस्था के नाम पर हासिल करते और निबाहते हैं, लेकिन इससे उनके भीतर जिस मनोविज्ञान का ढांचा बनता जाता है, उससे आजाद होकर सोचना-समझना उनके लिए कई बार मुमकिन नहीं रह जाता।

आए दिन अंधविश्वास के फेर में पड़ कर अपनी संपत्ति गंवाने की खबरें आती रहती हैं। यही नहीं, संतान प्राप्ति की लालसा में किसी बाबा या ओझा-तांत्रिक की सलाह मान कमजोर तबके की महिलाओं की जान ली जा चुकी है।कर बलि के लिए अन्य बच्चे की हत्या भी दी जाती है। ‘डायन’ बता कर अब तक जाने कितनी गरीब और

हालांकि अंधविश्वास के नाम पर होने वाली हत्या जैसी घटनाओं के बाद उन पर थोड़ी चिंता जताई जाती है, लेकिन असल में यह उन छोटे स्तर के अंधविश्वासों का ही विस्तार होता है, जो आम जनजीवन में घुला-मिला है और जिसे लोग सहज भाव से आस्था की तरह निबाहते रहते हैं।

आमतौर पर अंधविश्वास की बड़ी घटनाओं के सामने आने के बाद उसे कूपमंडूक समझ रखने वाले लोगों का काम मान कर नजरअंदाज कर दिया जाता है। लेकिन सच यह है कि अच्छे-खासे शिक्षित लोग भी अंधविश्वास के दुश्चक्र में फंस कर जीते रहते हैं। आंध्र प्रदेश की ताजा घटना में आरोपी पिता विज्ञान विषय से पीएचडीधारक है, एक कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर और उप-प्रधानाचार्य भी है।

बेटियों की मां भी एक स्कूल की प्रधानाचार्य और स्वर्ण पदक विजेता है। मगर दोनों ही जादू-टोने में लिप्त थे। यह अफसोसनाक सच है कि बाकी शिक्षा तो दूर, विज्ञान विषयों की पढ़ाई भी लोगों को वैज्ञानिक चेतना से लैस नहीं कर पाती है। पढ़े-लिखे लोग भी आस्था के नाम पर जैसे अंधविश्वासों का अनुसरण करते रहते हैं, वह हैरान करने वाला होता है।

विडंबना यह है कि संविधान के अनुच्छेद इक्यावन-ए(एच) के तहत वैज्ञानिक चेतना का प्रचार-प्रसार करना सबकी जिम्मेदारी है। लेकिन धर्म और आस्था को नाजुक विषय बता कर अंधविश्वासों का कारोबार करने वाले बाबाओं या ओझा-तांत्रिकों की गतिविधियों पर रोक नहीं लगाई जाती। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि जब तक अवैज्ञानिक सोच और मानसिकता का प्रसार करने वाले ठिकानों के खिलाफ सरकारें ठोस कदम नहीं उठातीं, शिक्षा को वैज्ञानिक चेतना के विकास का जरिया नहीं बनाया जाता, तब तक अंधविश्वास के ऐसे त्रासद नतीजे सामने आते रहेंगे।