अगर हम वैधानिक दृष्टि से भी देखें तो साहित्यिक रचनाओं के अनुवादकों को लेखक के समान माना जाता है। अनुवाद और अनुवादकों को कानूनी संरक्षण प्रदान करने और अनुवादकों की समाज में प्रस्थिति को बढ़ाने में यूनेस्को की भी विशेष भूमिका रही है। यूनेस्को ने 22 नवंबर, 1976 को नैरोबी में आयोजित आमसभा में इस अनुशंसा को आत्मार्पित किया कि- ‘अनुवादकों को सदस्य राष्ट्र उनके अनुवादों के बारे में वे सब सुरक्षाएं प्रदान करेंगे, जो अंतरराष्ट्रीय कापीराइट परंपराओं में अनुबंधों के आधार पर लेखकों को प्रदान की जाती हैं, जिसके लिए वे भी एक पार्टी हैं और/ अथवा अपने राष्ट्रीय कानूनों के अंतर्गत प्रतिबद्ध हैं, किंतु बिना किसी भेदभाव के अर्थात उन लेखकों के हितों की रक्षा करते हुए जिनके मूल कृतित्व का अनुवाद किया गया है।’

इसके अलावा, इलेक्ट्रानिक मीडिया के व्यापक प्रसार और 1990 के दशक में चली भूमंडलीकरण की आंधी ने अनुवाद और अनुवादकों की भूमिका को पुनर्निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, एक स्वतंत्र विषय के रूप में अनुवाद अध्ययन की स्थापना, अनुवाद को भाषावैज्ञानिक और सांस्कृतिक स्वरूपों से आगे बढ़कर चिंतन की ओर ले जा रहा है, नए-नए संदर्भों-आयामों को उद्घाटित-उजागर कर रहा है। अनुवाद अध्ययन के क्षेत्र में हुई अधुनातन खोजों और लेखन ने यह जोर देकर कहा है कि अनुवाद, मूल से कमतर कदापि नहीं।

बुकर पुरस्कार मूल कृति को मिला है या उसके अंग्रेजी अनुवाद जैसे प्रश्न के तकनीकी बिंदु पर विचार करने के लिए अनुवाद की महत्ता को अस्वीकृत करने का भाव नजर आता है। यह वास्तव में हमारी उस कमतर सोच को दर्शाता है, जिसके अनुसार अनुवाद दोयम दर्जे का काम स्वीकार किया जाता रहा है। अनुवाद को दोयम मानने का यह अर्थ हुआ कि इसमें मौलिकता का अभाव है।

यह कुधारणा अनुवाद की मौलिक लेखन से निम्न प्रस्थिति (स्टेट्स) को दर्शाती है; अनुवाद और अनुवादक को मौलिक सृजन तथा सर्जक के बराबर सम्मान नहीं देती। इस प्रकार के आक्षेप पीड़ादायक हैं। यह सही है कि किसी भी धारणा के बनने की प्रक्रिया काफी धीमी होती है और व्यवहार की कसौटी से उभर कर आती है। वह पक्ष में भी हो सकती है और विपक्ष में भी; सटीक भी हो सकती है और पूर्वाग्रह वाली भी; एकांगी भी हो सकती है और अनुभवहीनता का परिणाम भी। अनुवाद को दोयम मानने का इनमें से कोई कारण रहा होगा। ल्ल