उमाशंकर सिंह

स्लामाबाद की एक अदालत ने मुंबई हमले के मास्टरमाइंड जकीउर्रहमान लखवी को 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया है। इस बार लखवी को जेल अपहरण के एक पुराने मामले में दर्ज नए मुकदमे में हुई है। 18 दिसंबर को मुंबई हमले मामले में जमानत मिलने के बाद यह दूसरा मौका है जब लखवी को जैसे-तैसे जेल में बंद रखने में पाकिस्तान की सरकार कामयाब रही है। पाकिस्तान की सरकार को लखवी को जेल में बंद रखने के लिए इतने पापड़ बेलने क्यों पड़ रहे हैं। जाहिर है इसके पीछे मुंबई हमला केस को लड़ने में बरती गई कोताही है।

18 दिसंबर को लखवी को रावलपिंडी की अडियाला जेल में लगने वाली आतंकवाद विरोधी अदालत या एटीसी ने जब जमानत दी तो उसका बाहर आना लगभग तय हो गया था। लेकिन पेशावर में स्कूली बच्चों पर हमले के बाद पाकिस्तान से साथ कंधे से कंधा मिला कर रोने वाले भारत ने जब लखवी की रिहाई को बड़ा झटका बताया तो पाकिस्तान नींद से जागता दिखा।

एक दिन पहले ही पाकिस्तान ने आतंकवादियों के साथ सख्ती बरतने का संकल्प लिया था। आतंकवादियों के मामलों में फांसी की सजा को दुबारा बहाल करने का फैसला लिया था। ऐसे में मुंबई में 166 हत्याओं के मास्टरमाइंड के जेल से बाहर आने से पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फजीहत हो सकती थी। यही वजह है कि उसकी रिहाई से ऐन पहले उसे मेंटेनेंस आॅफ पब्लिक आॅर्डर के तहत फिर हिरासत में ले लिया गया। लखवी इस्लामाबाद हाईकोर्ट पहुंच गया और हाईकोर्ट ने एमपीओ को गैर वाजिब करार देकर 10 लाख रुपए के मुचलके पर लखवी को रिहा करने का रास्ता साफ कर दिया।

यह एक आतंकवादी के सामने पाकिस्तान सरकार की एक और हार थी। कोई रास्ता न देख कर लखवी के खिलाफ अपहरण के एक 6 साल पुराने मामले के भुक्तभोगी को सामने लाया गया। इसके मामले में दर्ज मुकदमे के तहत अदालत से लखवी की दो दिन की पुलिस रिमांड हासिल की गई। गुरुवार को पुलिस पांच दिन का और रिमांड चाहती थी।

लेकिन कोर्ट ने लखवी को 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया। लखवी के वकील रिजवान अब्बासी ने आरोप लगाया कि इस मुकदमे को भारत के दबाव में दर्ज किया गया है। यह उसके मुवक्किल के अधिकारों का हनन है। कोर्ट ने फिलहाल इस दलील को नहीं माना है। लेकिन सवाल है कि अपहरण के मामले में आखिर लखवी को कितने दिनों तक जेल में रखा जा सकेगा। लखवी ऊपरी अदालत में जाएगा।

इस बीच पाकिस्तान की सरकार सुप्रीम कोर्ट गई है। उसने हाईकोर्ट के उस फैसले के खिलाफ अपील दायर की है जिसमें लखवी पर एमपीओ हटाने का आदेश दिया गया। दलील है कि हाईकोर्ट में सरकार की दलील सुनी नहीं गई। पाकिस्तान के सूत्र बताते हैं कि असल में अभियोजन पक्ष हाजिर ही नहीं हुआ था।

पाकिस्तान की सरकार की तरफ से लखवी मामले में कोताही का लंबा सिलसिला है। इसमें कोर्ट में लखवी के खिलाफ सबूतों को सही ढंग से नहीं रखना शामिल है। यहां तक कि लखवी के खिलाफ पेश गवाहों के साथ भी वह तालमेल नहीं बिठा पाई। इसका सबसे बड़ा नमूना है ओकारा के स्कूल के हेडमास्टर मुदस्सर लखवी की गवाही। मुंबई हमले के दौरान एकमात्र जिंदा पकड़ा गया आतंकवादी अजमल आमिर कसाब इसी स्कूल में पढ़ता था।

मुदस्सर ने कोर्ट में कह दिया कि कसाब तो जिंदा है। जांच एजंसी ने कोर्ट को यह भरोसा दिलाने की पूरी कोशिश नहीं की कि असली कसाब वही है जो मुंबई हमले में शामिल था और जिसे 2012 में भारत में फांसी दी गई। जबकि कसाब के इकबालिया बयान को अदालत में बतौर सबूत आॅन रिकार्ड ले लिया गया था और उसी आधार पर लखवी की 2009 में गिरफ्तारी भी हुई थी।

पाकिस्तान की तरफ से कोताही का सिलसिला यहीं नहीं रुका है। 18 दिसंबर को लखवी को जमानत देने के फैसले की कॉपी वह अदालत से 22 दिसंबर कर हासिल नहीं कर पाई जो ऊपरी अदालत में इस फैसले के खिलाफ अपील का आधार बनती। एफआइए के वकील चौधरी अजहर इस बात का रोना रोते हैं कि ये सब साजिशन किया गया है। आर्डर की कॉपी नहीं दी गई। लेकिन क्या वहां आतंकवादी तंजीमें न्यायिक व्यवस्था चलाती हैं कि वह सरकारी एजंसी को फैसले की कॉपी लेने से रोक दे? जवाब है नहीं। तो फिर जज ने आर्डर की कॉपी अभियोजन पक्ष को क्यों नहीं मुहैया कराया जबकि वह रिहाई के लिए जेलर के पास पहुंच गया। क्या जज किसी दबाव में काम कर रहे हैं? लखवी की जमानत याचिका पहले कई मौकों पर खारिज हो चुकी थी। लेकिन इस बार ग्राउंड मुदस्सर लखवी के बयान, मुकदमे के लंबा खींचने और गलत धाराएं लगाने को बनाया गया।

वैसे एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि आतंकवाद विरोधी अदालत के जज सैय्यद कौरस अब्बास जैदी शिया हैं और उनको किसी तरह की कोई सुरक्षा नहीं दी गई है। इसके पहले कई जज और अभियोजन पक्ष के वकील लखवी मामले से किनारा कर चुके हैं क्योंकि उनको धमकियां मिलीं थीं। इस्लामाबाद हाईकोर्ट के जज नासिर उल मुल्क जिन्होंने लखवी पर लगे एमपीओ को निरस्त किया, उनको भी कोई सुरक्षा नहीं मिली हुई है।

यह तस्वीर का वह पहलू है जो किसी मामले से जुड़े फैसले में डर, दबाव, धमकी की आशंका को रेखांकित करता है। लेकिन असल बात घूम-फिरकर वहीं आ जाती है। पाकिस्तान ने लखवी के खिलाफ गंभीरता नहीं दिखाई। दिखाई होती तो उसे जमानत नहीं मिलती। पाकिस्तान की सरकार अब जो कानूनी लड़ाई लड़ रही है, वह बस अपने चेहरे को बचाने की कवायद लग रही है। जैसे लश्करे-तैयबा का मुखिया और मुंबई हमले का सबसे बड़ा मास्टरमाइंड हाफिज सईद लाहौर हाईकोर्ट से सबूतों की कमी के आधार पर रिहा हो गया और अब आजाद जीवन जी रहा है। लखवी का मामला भी कुछ उसी दिशा में जाता प्रतीत हो रहा है। पाकिस्तान अभी बस नजरों की थोड़ी-सी हया दिखा रहा है।

असल में लखवी जैसों को वहां आतंकवादी माना ही नहीं जाता। सरकार को इस बात का डर भी सताता है कि अगर वह जमात उद दावा जैसे संगठनों या उससे जुड़े आतंकवादियों के खिलाफ सख्ती करेगी तो पूरा पंजाब जल उठेगा क्योंकि यह सूबा ही इन तंजीमों का गढ़ है। और यह सूबा ही नवाज शरीफ को सत्ता तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाता है।

अंत में, अगर यह भी मान लें कि शरीफ सरकार लखवी के मामले पर संजीदा है और वह नतीजा देना चाहती है तो क्या यह माना जाए कि लखवी के पक्ष में फैसले इसलिए आ रहे हैं कि पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार की फजीहत हो? लेकिन ऐसा मानने का मतलब पाकिस्तान की न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाना होना, उसका सेना के असर में काम करने जैसा आरोप लगाना होगा जो कि हम करना नहीं चाहते।