कोलकाता रेप कांड से पूरा देश आक्रोशित है। एक महिला डॉक्टर के साथ जिस तरह से हैवानियत की हदें पार की गईं, उसने सभी को विचलित कर रखा है। इस बीच देश के कई कोनों से ऐसी मांग उठ रही है कि इस मामले की सुनवाई अब फास्ट ट्रैक कोर्ट में होनी चाहिए। केंद्र सरकार का तो दावा है कि बंगाल सरकार फास्ट ट्रैक कोर्ट खोलने के मामले में उदासीन है। यहां तक कहा गया है कि राज्य में सिर्फ 123 फास्ट ट्रैक कोर्ट है, वहां भी ज्यादातर बंद हो चुके हैं।

क्या होता है फास्ट ट्रैक कोर्ट?

अब बंगाल को लेकर जो राजनीति चल रही है, वो अपनी जगह है, लेकिन बड़ा मुद्दा यह है कि क्या सही में फास्ट ट्रैक कोर्ट में ‘फास्ट सुनवाई’ हो पाती है। क्या सही में फास्ट ट्रैक कोर्ट किसी सामान्य अदालत की तुलना में जल्द फैसला सुनाते हैं? इन्हीं सवालों के जवाब जानेंगे, लेकिन पहले यह समझ लेते हैं कि यह फास्ट ट्रैक कोर्ट होते क्या हैं? असल में साल 2019 में यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों में तेज सुनवाई के लिए न्याय विभाग ने फास्ट ट्रैक कोर्ट की शुरुआत की थी। इन फास्ट ट्रैक कोर्ट में एक न्यायिक अधिकारी और सात सदस्य कर्मचारियों को रखने का प्रावधान है। बड़ी बात यह है कि अभी तक  30 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को इस योजना में शामिल किया जा चुका है। लेकिन इन फास्ट ट्रैक कोर्ट्स से जैसी उम्मीद रखी गई, उतना डिलीवर यह करते नहीं दिखे।

कोलकाता रेप-मर्डर मामले में हुआ बड़ा खुलासा

सामान्य अदालत और फास्ट ट्रैक में नहीं रह गया अंतर

असल में 2018 में NCRB का एक आंकड़ा सामने आया था, जिसमें वैसे तो फास्ट ट्रैक कोर्ट में 28 हजार से ज्यादा ट्रायल चले, लेकिन वहां 78 फीसदी मामलों को पूरा होने में एक साल से ज्यादा का वक्त लग गया। 42 प्रतिशत ऐसे मामले रहे जहां तीन साल तक लोगों को न्याय नहीं मिल पाया, वही 17 फीसदी मामलों में केस खत्म होने की समय सीमा 5 साल से भी ज्यादा रही। यह नहीं भूलना चाहिए कि फास्ट ट्रैक कोर्ट में महिला अपराधों को लेकर तो सुनवाई होती ही है, वहां भी POCSO से जुड़े मामलों में सबसे ज्यादा हीयरिंग रहती है। लेकिन उस डिपार्टमेंट में अभी तक फास्ट ट्रैक कोर्ट का प्रदर्शन निराशाजनक ही माना जाएगा।

POCSO केस: 3 प्रतिशत मामलों में ही सजा

पिछले साल ही इंडियन चाइल्ड प्रोटेक्शन फंड (ICPF) ने एक विस्तृत रिपोर्ट बनाई थी। उस रिपोर्ट एनसीआरबी, कानून विभाग से लेकर कई अहम विभागों से आंकड़े जुटाए गए। उस रिपोर्ट में जो खुलासे हुए, उन्होंने फास्ट ट्रैक कोर्ट की कलई खोलकर रख दी। उस जांच में पता चला कि देश में पॉक्सो के 2 लाख 43 हजार मामले लंबित चल रहे हैं। मात्र 3 प्रतिशत मामलों में ही सजा हो पाई है, यानी कि कनविक्शन रेट काफी कम चल रहा है। 2023 को लेकर एक आंकड़ा सामने आया जहां बताया गया कि  2 लाख 68 हजार 38 मामले दर्ज तो हुए, लेकिन सजा सिर्फ 8909 केस में हुई।

दिल्ली में 27, यूपी में 22 साल… जस्टिस रहेगी Delayed

अगर इसी रफ्तार से फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई चलती रही तो दिल्ली में पॉक्सों मामलों में न्याय मिलने में 27 लग जाएंगे, बिहार में 26, उत्तर प्रदेश में 22, बंगाल में 25 और अरुणाचल में 30 साल। अब यहां यह समझना जरूरी है कि सरकार ने खुद यह आंकड़ा जारी नहीं किया है, लेकिन अगर बस साधारण गणित लगा हिसाब लगेगा तो पेंडिंग केस में पूरी सुनवाई होने तक इतने साल निकल जाएंगे। अब जानकार मानते हैं कि देश में महिलाओं के खिलाफ जितने अपराध हो रहे हैं, जिस तरह से मासूम बच्चियों को भी शिकार बनाया जा रहा है, वर्तमान में बने फास्ट ट्रैक कोर्ट्स में इतने मामलों की सुनवाई संभव नहीं।

कैसे सुधरेंगे हालात?

कहा जा रहा है कि जब तक बड़े स्तर पर इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं हो जाता, जब तक न्याय प्रक्रिया को और ज्यादा सरल नहीं कर दिया जाता, जल्द न्याय मिलने की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसी वजह से कोलकाता मामले में सिर्फ इस बात पर बहस नहीं हो सकती कि फास्ट ट्रैक कोर्ट क्यों नहीं बने, सवाल यह है कि जो बने भी हैं, वहां न्याय मिलने की रफ्तार इतनी धीमी क्यों और कैसे चल रही है।