देश का अन्नदाता जो दिल्ली कूच की बात कर रहा है, वो कितना सही है और कितना गलत? वो दिल्ली जाना चाहते हैं, ये अलग बहस है, उनकी क्या मांगे, ये सभी को पता चल चुका है, लेकिन सीधा सवाल तो यही बनता है, जो वो कर रहे हैं, जो वो चाह रहे हैं, क्या वो भी सही है या नहीं? इस सवाल का सीधा जवाब मिलना मुश्किल, पक्ष-विपक्ष में कई तरह के तर्क हैं. लेकिन फिर भी अगर सही तरह पूरी स्थिति को समझा जाए तो कुछ निष्कर्ष जरूर निकल सकता है।
अब यहां पर सबसे आसान भाषा में और प्वाइंट टू प्वाइंट इस पूरे विवाद को समझने की कोशिश करते हैं। सबसे पहले किसानों की 12 मांगों को समझ लेते हैं क्योंकि उसी के आधार पर आगे का विश्लेषण किया जाएगा।
इस प्रकार हैं किसानों की 12 मांगे
- स्वामीनाथ आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक MSP का कानून बनाया जाए।
- देश के सभी किसानों का कर्ज माफ किया जाए
- भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 को फिर लागू करें
- लखीमपुर खीरी कांड के आरोपियों को सजा, किसानों को न्याय
- WTO से बाहर निकलें, फ्री ट्रेड एग्रीमेंट खारिज करें
- किसानों को पेंशन देने का ऐलान हो
- मनरेगा के तहत 200 दिन का रोजगार, 700 रुपये मजदूरी
- पिछले आंदोलन में मरे किसानों के परिवार को मुआवजा
- इलेक्ट्रिसिटी संशोधन बिल 2020 रद्द हो
- नकली बीज, कीटनाशक बनाने वाली कंपनियों पर एक्शन
- मिर्च, हल्दी जैसे मसालों पर राष्ट्रीय आयोग
MSP की गणना कैसे करते हैं?
- अब सबसे ज्यादा चर्चा इस समय किसानों की दो मांगों पर हो रही है- पहली MSP गारंटी और दूसरी कर्ज माफी। सबसे पहले MSP की इकोनॉमिक्स समझने की कोशिश करते हैं। ये समझने के लिए भी पहले ये समझना जरूरी है कि आखिर ये MSP डिसाइड कैसी की जाती है, इसका क्या क्राइटेरिया लेकर चला जा रहा है। असल में 1962 में कृषि लागत और मूल्य आयोग की स्थापना हुई थी, इसे अंग्रेजी में CACP कहते हैं। ये जो आयोग है, इसके द्वारा ही सरकार को सुझाव दिया जाता है कि किसी फसल पर कितनी MSP रहनी चाहिए। कुल 23 फसलों पर क्या MSP रहने वाली है, उसकी रूपरेखा इस संगठन द्वारा ही तय की जाती है।
कौन फैसला करता है- कितनी एमएसपी?
अब MSP को लेकर जो भी सुझाव CACP द्वारा दिए जाते हैं, वो सीधे CCEA के पास आते हैं। CCEA का मतलब है- Cabinet Committe on Economic Affairs। देश के प्रधानमंत्री ही इस कमेटी के अध्यक्ष होते हैं और अंतिम मुहर उनके द्वारा ही किसी भी फैसले पर लगाई जाती है। असल में CACP द्वारा जो भी सुझाव दिए जाते हैं, CCEA उन पर मंथन करता है और तब जाकर किसी भी फसल की MSP तय होती है। अब ये तो पता चल गया कि MSP की गणना कौन करता है, लेकिन किस आधार पर ये की जाती है, इसको समझना भी जरूरी है।
स्वामीनाथन के तीन सुझाव
असल में साल 2004 में एम एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन हुआ था। उस कमेटी ने कुल तीन आधार बताए थे जिसके तहत किसी भी फसल की एमएसपी तय की जाती है। वो तीन आधार कुछ इस प्रकार से थे-
- A2: A2 मॉडल के तहत बात सिर्फ किसानों की जमीन या फिर फसल की नहीं की जाती है। कौन सा बीज इस्तेमाल किया गया है, कौन से कीटनाशक, पीरकनाशक का उपयोग हुआ, इसे आधार बनाकर कॉस्ट ऑफ प्रोडक्शन तय की जाती है और फिर उसी से MSP का रेट भी निकलता है।
A2+ FL: अब इस मॉडल में A2 को तो आधार माना ही जाता है, साथ में फैमिली लेबर की कॉस्ट को भी जोड़ा जाता है।
- C2: C2 का मतलब होता है Comprehensive Cost। जैसा इसका नाम है, सबकुछ इसमें जोड़ लिया जाता है, अगर जमीन खरीदने में पैसा लगा है, खद्य, सिंचाई में अलग से पैसा गया है, तो उन सभी पहलुओं को भी जोड़ लिया जाता है। यानी कि ये सब पहलू देखने के बाद एमएसपी का निर्णय होना चाहिए।
कौन सी फसल एमएसपी में?
अब किसान ये चाहते हैं कि इसी C2 फॉर्मूले के तहत उन्हें हर फसल की MSP मिले, ऐसा होने पर उन्हें ज्यादा ठीक रेट मिलने की उम्मीद है। लेकिन केंद्र सरकार अभी A2 और A2+ FL फॉर्मूले पर ज्यादा फोकस करती है, वहां भी उसकी तरफ से 23 फसलों पर एमएसपी दी जाती है। दूसरे शब्दों में बोलें तो सरकार अभी 7 प्रकार के अनाज, 5 प्रकार की दालें, 7 तरह के ऑयलसीड और चार अन्य फसल के लिए न्यूनतम मूल्य देती है। अनाज में धान, गेहूं, बाजरा, मक्का, ज्वार, रागी, जौ. पर MSP दी जाती है। दालों में चना, अरहर, मूंग, उड़द, मसूर पर न्यूनतम मूल्य मिलता है। इसी तरह ऑयलसीड में मूंग, सोयाबीन, सरसों, सूरजमुखी, तिल, नाइजर और कुसुम पर अभी एमएसपी दी जाती है।
यहां समझने वाली बात ये है कि सरकार का फॉर्मूला 22+1 का रहता है। इसका मतलब ये रहता है कि 22 तो फसलों पर एमएसपी मिलती है, वहीं गन्ने के लिए एक अलग कानून है जिसके तहत उचित और लाभकारी मूल्य देना अनिवार्य रहता है। अब किसान चाहता ये है कि सरकार एमएसपी की कानूनी गारंटी दे दे। इसका मतलब ये है कि चाहे कोई भी स्थिति रहे, किसान को उसका पूरा पैसा मिलना चाहिए।
अगर एमएसपी कानून बनेगा, सरकार पर कितना खर्च?
अब सवाल उठता है कि क्या MSP पर कानूनी गारंटी दी जा सकती है या नहीं? इसका जवाब हां में है, सरकार अगर चाहे तो किसानों को एमएसपी दी जा सकती है। लेकिन दो विवाद हैं- पहला ये कि सरकार को कितना खर्चा करना पड़ेगा और दूसरा ये कि उस आंकड़े तक किस तरह से पहुंचा जाए। अब जिन फसलों का जिक्र किया गया, उससे कुल उत्पादन 10.78 लाख करोड़ रुपये का रहता है। ये आंकड़ा भी साल 2019-20 का है। अब कहा जा सकता है कि सरकार को MSP को गारंटी बनाने के लिए 10.78 लाख करोड़ खर्च करने पड़ेंगे? लेकिन ऐसा है नहीं क्योंकि ये किसने बोला कि किसान द्वारा हर फसल को बेचा ही जाएगा। कुछ फसल तो ऐसी होंगी जो वो अपने घर पर इस्तेमाल करेगा, कुछ ऐसी होंगी जो उसी के दूसरे निजी कामों में इस्तेमाल हो जाएं, ऐसे में ये कहना कि सीधे-सीधे 10.78 लाख करोड़ रुपये आंकड़ा बैठेगा, ये गलत है।
अब अगर इस बात को ध्यान रखा जाए और ‘निजी इस्तेमाल’ वाले आंकड़े को घटा दिया जाए तो नया आंकड़ा 8 लाख करोड़ के आसपास बैठता है। लेकिन बड़ी बात ये है कि ये भी असल खर्चा नहीं है। अगर सरकार किसान को बोल दे कि हम आठ लाख करोड़ नहीं दे पाएंगे, तो ये पूरी तरह गलत है। समझने वाली बात ये है कि जो आठ लाख करोड़ वाला खर्चा है, उसमें गन्ने का रेट भी लगा हुआ है। लेकिन सरकार ये नहीं बता रही है कि गन्ने का पैसा उसको अपनी जेब से नहीं देना होता है। इस देश की जो शुगर मिलें हैं, उनके द्वारा ही गन्ना किसानों को भुगतान दिया जाता है। ऐसे में बात जब MSP के टोटल कॉस्ट की आएगी, गन्ने को भी उसमें से हटाना पड़ेगा। अब गन्ने के भुगतान को हटाने के बाद कुल कॉस्ट 2.7 लाख करोड़ के बीच में आएगी।
अब यहां भी एक पहलू ये है कि सरकार को तो सारी फसलें भी खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती है। अगर सिर्फ कुल उत्पादन का एक तिहाई हिस्सा भी खरीद लिया गया तो डिमांड-सप्लाई को देखते हुए बाजार की कीमत खुद ऊपर उठ जाएगी और किसान आराम से बाहर उस कीमत पर बेच पाएगा। इस तरह से तो एमएसपी की गारंटी देने के बाद भी सरकार पर बोझ डेढ़ लाख करोड़ का आएगा।
भेदभाव वाली एमएसपी
अब इस विश्लेषण से ये साफ हो जाता है कि सरकार के लिए MSP के लिए गारंटी देना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। लेकिन असल में मैनेजमेंट को दुरुस्त करना एक बड़ी चुनौती है। सोचने वाली बात ये है कि जब 22 फसलों पर पहले से ही एमएसपी मिल रही है, फिर भी किसानों में इतना गुस्सा क्यों? अब इसका कारण ये है कि एमएसपी को लेकर जो सिस्टम चल रहा है, वो राज्य में अलग है। जहां जैसे इंतजाम, वहां उतना लाभ या नुकसान। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि सरकार भी कहने को कई फसलों पर MSP देती है, लेकिन सबसे ज्यादा खरीद तो वो चावल और गेहूं की कर रही है। इसी वजह से कई दूसरी फसलों को उगाने के बाद किसान नुकसान का सौदा कर रहा होता है। उदाहरण के लिए मसूर की दाल का उत्पादन मध्य प्रदेश और राजस्थान में काफी है, लेकिन वहां पर किसानों को कई बार उन दालों को भी एमसएपी से कम दाम पर बेचना पड़ जाता है।
हरियाणा-पंजाब में किसानों की आय खेती, कई कर्जदार
हैरानी की बात ये है कि इस समय हरियाणा और पंजाब के किसान ही सबसे ज्यादा विरोध कर रहे हैं, जबकि तमाम रिपोर्ट बताती हैं कि एमएसपी का अगर सबसे ज्यादा फायदा किसी को मिल रहा है तो वे ये दोनों राज्य हैं। इसका कारण ये है कि हरियाणा और पंजाब में बेचने का सिस्टम बहुत मजबूत है, हर तरफ इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद है, ऐसे में किसानों को बिना ज्यादा दिक्कत के अपनी फसल का सही दाम मिल जाता है। लेकिन वहीं बात अगर बिहार की करें तो वहां तो फसल खरीदने का कोई व्यव्सथित तरीका ही नहीं है, इस वजह से किसान ज्यादातर एमएसपी से काफी नीचे अपनी फसल बेच देते हैं।
एक दूसरी चुनौती ये भी है कि कई राज्यों में खरीदने वाले सेंटर ही पर्याप्त नहीं है, कई जगह पर तो इतनी दिक्कतों के बाद खुलते हैं कि तब तक फसल भी सड़ जाए और किसान को एमएसपी तो दूर थोड़ा पैसा भी नहीं मिल पाता। यूपी में कुछ मौकों पर ऐसा देखने को मिल चुका है जब फसल पड़े-पड़े ही खराब हो जाती है। यानी कि बिना इंफ्रास्ट्रक्चर के एमएसपी का दावा साकार नहीं हो सकता। इसके ऊपर जितनी भी फसलों पर अभी एमसएपी दिया जा रहा है, अगर उसे ही हर राज्य तक पहुंचा दिया जाए, तब भी स्थिति काफी सुधर सकती है।
दूसरी मांग- कर्ज माफी कितनी जायज?
अब बात किसानों की दूसरी बड़ी मांग की- कर्ज माफी। किसान चाहते हैं कि उनका सारा कर्जा माफ कर दिया जाए। देश के सभी किसानों के लिए उन्होंने सरकार के सामने ये डिमांड उठा दी है। अब ये मांग कितनी जायज है, इसका विश्लेषण किया जाएगा, लेकिन सबसे पहले ये जानना जरूरी है कि आखिर किसानों पर कर्ज कितना है। आजाद भारत की ये सबसे बड़ी विडंबना है कि खेती करने वाला किसान कभी भी मुनाफे में नहीं रह पाता, वो हर बार कर्ज लेने को मजबूर होता है और फिर उस कर्ज को चुकाना उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी आफत बन जाता है।
किसानों पर कुल कितना लोन होगा?
सरकार का ही एक आंकड़ा है जो बताता है कि इस देश में किसानों पर कितना कर्ज है। इस समय पूरे देश में 16 करोड़ किसान ऐसे हैं जिन पर कुल 21 लाख करोड़ तक का कर्ज चल रहा है। अलग-अलग बैंकों से ही ये कर्ज लिया गया है। अगर औसत निकाला जाए तो एक किसान पर करीब 1.35 लाख का कर्ज चढ़ जाएगा। ये हालात तो तब हैं जब किसानों की आय का कोई मजबूत स्त्रोत भी नहीं है। अब इसी हालात को देखते हुए किसान कर्ज माफी की बात कर रहे हैं। उनकी मांग में दम इसलिए है क्योंकि कम अवधि में ये उपाय ही किसानों के लिए सबसे कारगर साबित होता है।
इसे ऐसे समझ सकते हैं कि देश के जो 85 फीसदी किसान हैं, उनके पास बस एक से दो हेक्टेयर तक की जमीन है जिस पर वे खेती करते हैं। ऐसे में कोई ज्यादा पैसे वाले ये किसान नहीं हैं। अब अगर कर्ज माफी की जाती है तो ऐसे गरीब किसानों को सीधे इसका फायदा होगा। अब ये तो किसानों का तर्क है, लेकिन जानकार ये भी मानते हैं कि देश में हर किसान गरीब नहीं है। वहीं कई ऐसे भी किसान हैं जो कर्जा चुका सकते हैं, लेकिन इस उम्मीद में बैंक को पैसे वापस नहीं करते कि सरकार उनका कर्जा माफ कर देगी। ये मानसिकता खतरनाक है जो बैंकों को एक तरफ तगड़ा नुकसान देगी तो वहीं दूसरी तरफ भविष्य में कर्ज लेने की प्रक्रिया को और ज्यादा जटिल बना देगी।
बैंकिंग सेक्टर पर बड़ा खतरा
इसका एक नुकसान ये भी है कि जो बैंक कर्ज देंगे, वो दिवालिया वाली स्थिति में आ सकते हैं। साल 2008 में यूपीए सरकार ने पूरे देश में किसानों के लिए कर्जमाफी का ऐलान किया था। आंकड़ा बताता है कि करीब 71,680 लाख करोड़ रुपये का कर्ज माफ किया गया था। लेकिन इसका परिणाम ये रहा कि बैंकों पर जो एनपीए था, वो तीन गुना से भी ज्यादा बढ़ गया। इसी वजह से जानकार मानते हैं कि कर्ज माफी कभी भी ज्यादा कारगर उपाय नहीं हो सकता है। इसके बजाय अगर किसानों की आय बढ़ाने पर जोर दिया जाए, सिंचाई व्यवस्था ठीक की जाए, कोल्ड स्टोरेज बनवाएं। ये सारे वो उपाय हैं जो लंबे समय में खेती को जमीन पर मजबूत करेगा और किसानों की स्थिति में भी सुधार आएगा।