आजादी की लड़ाई में युवा क्रांतिकारियों की बड़ी भूमिका थी। उनमें से कई ऐसे थे जिन्होंने बेहद कम उम्र में ही अपनी जान न्योछावर कर दी। ऐसे ही क्रांतिकारियों में खुदीराम बोस का नाम भी शामिल है। 11 अगस्त 1908 को उन्हें केवल 18 साल की उम्र में फांसी पर चढ़ा दिया गया था। जब उन्हें जज ने फांसी की सजा सुनाई, तब भी वह मुस्कुरा रहे थे।
13 जुलाई 1908 को जब उन्हें अदालत में सजा सुनाई जा रही थी तब जज ने उनसे पूछ लिया, सजा का मतलब समझते हो? बोस धीरे से मुस्कुराए और कहा, हां, मुझे सब समझ में आता है। मेरे वकील ने कहा कि मैं बहुत छोटा हूं इसलिए बम नहीं बना सकता। लेकिन अगर आप मुझे थोड़ा समय दें तो मैं आपको भी बम बनाना सिखा सकता हूं।
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सजा सुनाए जाने के बाद कोलकाता की गलियों में आंदोलन की आग भड़क उठी। बता दें कि खुदीराम बोस नरायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर हुए बम विस्फोट की घटना में बोस शामिल थे। वह प्रफुल्ल चंद्र चाकी के साथ मिलकर क्रूर अंग्रेज किंग्सफोर्ड को मारना चाहते थे। एक दिन उन्होंने किंग्सफोर्ड की बग्घी में बम फेंक दिया। इसके बाद दोनों वंदेमातरम के नारे लगाने लगे। हालांकि उस दिन किंग्सफोर्ड बग्घी में नहीं मौजूद था। इस विस्फोट में दूसरे अंग्रेज अधिकारी के परिवार की मौत हो गई। इसके बाद पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
जब उन दोनों युवा क्रांतिकारियों को घेरा तो प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली लेकिन खुदीराम पकड़े गए। उन्होंने इस घटना की जिम्मेदारी भी ले ली। फांसी के फंदे तक पहुंचने तक उनके चेहरे पर कभी शिकन नहीं देखी गई। खुशी-खुशी उन्होंने मौत को गले लगा लिया और देश के लिए अपनी कुर्बानी दे दी। कहा जाता है कि जब वह फांसी के तख्ते पर पहुंचे तो उनके पास गीता थी। उनकी शहादत के बाद क्रांति का बिगुल बज उठा। यहां तक कि जुलाहे धोती के किनारे पर खुदीराम बोस का नाम लिखने लगे थे।