कर्नाटक में सिद्धरमैया सरकार ने अपने ही फैसले को बदल दिया है, प्राइवेट नौकरी में कन्नड लोगों को अब आरक्षण नहीं मिलेगा। अपने ही विधेयक पर राज्य सरकार ने रोक लगा दी है। यह बड़ी बात है क्योंकि इससे पहले राज्य सरकार इस बिल को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थी, इसे पारित तक करवाने की बात हो रही थी। लेकिन विवाद जब बढ़ता गया, राज्य सरकार को भी झुकना पड़ा।
क्या बिल था जिस पर हुआ विवाद?
अब जानकारी के लिए बता दें कि कर्नाटक सरकार ने बुधवार को निजी क्षेत्र की नौकरियों में कन्नड़ लोगों के लिए 100 फीसदी आरक्षण अनिवार्य कर दिया था। कहा गया था कि राज्य में नौकरी में वहीं लोग रहेंगे जो कर्नाटक के ही निवासी होंगे। इस व्यवस्था को ग्रुप सी और ग्रुप डी कैटेगरी की नौकरियों पर ही लागू की गई थी। दूसरी तरफ सरकार ने प्राइवेट सेक्टर में मैनेजमेंट लेवल के 50 फीसदी पदों को आरक्षित करने के लिए कहा था। लेकिन इन फैसलों का एक वर्ग ने जबरदस्त विरोध किया जिस वजह से राज्य सरकार को ही अब झुकना पड़ा।
तर्क क्या दे रही थी सरकार?
वैसे बड़ी बात यह है कि अभी इस बिल को सरकार ने सिर्फ रोक दिया है, खत्म नहीं किया है। इसे वापस लाने की पूरी संभावना है। असल में राज्य सरकार की मंशा थी कि कन्नड बोलने वाले स्थानीय लोगों को भी सुविधाएं दी जाएं, कन्नड भाषा बोलने वालों को सम्मान मिले। सरकार ने यहां तक कहा था कि उनकी पहली प्राथमिकता तो कन्नड लोगों का कल्याण करना है।
बीजेपी ने क्या कहा था?
अब इस बिल पर रोक तो लग गई है, लेकिन बीजेपी खासा नाराज है। जोर देकर कहा गया है कि कर्नाटक सरकार ने सिर्फ सियासी ड्रामा करने का काम किया है। इस तरह के किसी भी बिल को लाने तक की जरूरत नहीं थी। सच्चाई तो यह है कि सरकार को जनता के हित से कोई लेना देना नहीं है। अब अभी के लिए राज्य सरकार खुद बैकफुट पर आ गई है, जिस बिल को वो जरूरत बता रही थी, उसे ही वापस ले लिया गया है।
कंपनी के मालिक भी थे नाराज
समझने वाली बात यह है कि इस बिल का विरोध सिर्फ राजनीतिक पार्टियों ने नहीं किया था बल्कि कुछ बड़ी कंपनियों के मालिक भी इससे खुश नहीं थे। इंफोसिस के पूर्व CFO मोहनदास पई ने तो उस बिल को ‘असंवैधानिक’, ‘गैर-जरूरी’ और ‘फासीवादी’ करार दिया था।