भारत का वीर जवान हूं मैं
ना हिंदू ना मुसलमान हूं मैं
जख्मों से भरा सीना है
दुश्मन के लिए चट्टान हूं मैं
भारत का वीर जवान हूं मैं

कैप्टन हनीफ उद्दीन करगिल के वो शहीद जिन्होंने अपने दूसरे साथियों को बचाते हुए महा बलिदान देने का काम किया। हनीफ की पोस्टिंग 11 राज राइफल में हुई थी। उसका उद्घोष था ‘राजा रामचंद्र की जय’। एक समय लगता था एक मुस्लिम क्या कभी राजा रामचंद्र की जय जैसा नारा लगाएगा लेकिन इंसान और किसी सैन्य अधिकारी में यही सबसे बड़ा अंतर होता है। वो जाति-धर्म से ऊपर उठकर खुद की पहचान सिर्फ एक भारतीय के रूप में रखता है, उसके लिए भारत का हित सर्वोपरि होता है। ऐसा ही महान, गौरवान्वित करने वाला काम शहीद कैप्टन हनीफ ने करगिल युद्ध के दौरान किया था।

हनीफ का बड़ा मिशन

करगिल का युद्ध उस समय बस शुरू ही हुआ था। पाकिस्तान की साजिश और उसकी रणनीति पूरी तरह नहीं खुली थी। तब कैप्टन हनीफ को ऑपरेशन थंडरबोल्ट के तहत एक बड़े मिशन पर भेजा गया। मिशन था तुरतुक क्षेत्र की उस चोटी पर कब्जा करना जिससे पाकिस्तान के सैनिकों पर कड़ी नजर रखी जा सके। अब कैप्टन हनीफ हमेशा से ही आगे से लीड करने में विश्वास रखते थे, अनुभव ज्यादा नहीं था लेकिन खून मैं शौर्य की धारा तेज दौड़ रही थी।

साथियों को बचाना था, खुद खाईं गोलियां

चार जूनियर रैंक के साथियों के साथ हनीफ अपने मिशन पर निकल पड़े। तुरतुक क्षेत्र में उन्हें खराब और बर्फीले मौसम के बीच में पाकिस्तानी फौजियों को सबक सिखाना था। 2 दिन की कड़क मशक्कत के बाद वे अपनी मंजिल के काफी करीब पहुंच गए, लेकिन किस्मत ऐसी रही कि पाकिस्तान के सैनिकों ने उन्हें देख लिया। फिर शुरू हुआ बर्फीले मौसम और ऊंची चोटियों पर खूनी खेल। घंटों की गोलीबारी होती रही, दोनों तरफ से गोले बरसाए गए। लेकिन कैप्टन हनीफ के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। अपनी जान की परवाह किए बिना उन्होंने अपने साथियों को बचाना ज्यादा जरूरी समझा।

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25 साल की उम्र, महा बलिदान

इसी वजह से कैप्टन हनीफ ने फैसला किया कि वे दूसरे फ्रंट से गोलीबारी करेंगे। जो पाकिस्तान फौजी थे, वो व्यस्त हो गए और उनका सारा फोकस कैप्टन हनीफ की तरफ चला गया। इसी वजह से एक तरफ अगर अकेले हनीफ बंदूक लेकर गोलीबारी करते रहे तो दूसरी तरफ से बड़ी संख्या में पाकिस्तान के सैनिकों ने गोलियों की बौछार कर दी। काफी देर तक तो हनीफ दुश्मनों के सामने टिके रहे, लेकिन जख्म इतने गहरे थे कि बाद में उन्होंने देश के लिए महा बलिदान दे दिया। 25 साल की उम्र में वे दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गए और उनके नाम के साथ शहीद का तमगा लग गया।

शहीद का मां बनी सच्ची देशभक्त

अब कैप्टन हनीफ की किस्मत उन लकीरों ने लिखी थी जहां पर उनका शव सुरक्षित वापस लाना भी सेना के लिए एक बड़ी चुनौती था। ऑथर रचना बिष्ट ने अपनी किताब ‘करगिल:द अनटोल्ड स्टोरी’ में एक किस्से का जिक्र किया है। बताया गया है उस समय के जनरल मलिक काफी उदास होकर शहीद कैप्टन हनीफ की मां से मिलने गए थे। वहां जाकर जनरल मलिक ने कहा था कि उन्हें इस बात का बड़ा अफसोस है कि 40 दिनों के बाद भी वे उनके बेटे का शव ऊंची चोटियों से वापस नहीं ला पा रहे हैं क्योंकि दुश्मन की तरफ से लगातार गोलीबारी हो रही है। तब हनीफ की मां ने कुछ ऐसा कह दिया जिसने उन्हें भी एक महान देशभक्त बना दिया। हनीफ की मां ने कहा कि मेरा बेटा तो पहले ही शहीद हो चुका है, उसे लाने के लिए मैं नहीं चाहती किसी दूसरी मां का बेटा भी शहीद हो जाए, उसकी जान चली जाए। मेरी बस इतनी इच्छा जरूर पूरी कर देना, जब यह युद्ध रुक जाए तो मुझे उस जगह ले जाना जहां मेरे बेटे का शव पड़ा है।

अब करगिल में जान गंवाने वाले जवानों के प्रति तो सम्मान है ही, उन बहादुर मांओं को भी सलाम करने की जरूरत है जिन्होंने अपने सपूतों को ना सिर्फ युद्ध के मैदान में भेजा बल्कि खुद भी फौलादी इरादे दिखाते हुए देश की सेना को किसी भी मौके पर कमजोर होने नहीं दिया। करगिल विजय दिवस के मौके पर एक श्रद्धांजलि शहीद कैप्टन हनीफ के नाम।