जेएनयू के कुछ स्टूडेंट्स द्वारा कथित तौर पर देश विरोधी नारे लगाने के बाद उनके खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किए जाने और गिरफ्तारियों को लेकर बहस छिड़ गई है। बहुत सारे लोग इस कार्रवाई को सही बता रहे हैं, वहीं कई लोग इसे जरूरत से ज्यादा कड़ी कार्रवाई बता रहे हैं। उनका कहना है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में दखल है। लोग चर्चा कर रहे हैं कि ‘देशभक्ति’ और ‘राष्ट्रवाद’ से जुड़े मामलों में अन्य देशों ने किस तरह की कार्रवाई की। डालते हैं एक नजर:
>अगर पड़ोसी मुल्क चीन की बात करें तो वहां छात्रों की अगुआई में सबसे बड़ा प्रदर्शन 1989 में हुआ था। त्येनआनमेन स्क्वेयर पर हजारों-लाखों छात्र लोकतांत्रिक सुधारों की वकालत करते हुए प्रदर्शन कर रहे थे कि तभी चीनी सेना ने वहां जमकर कत्लेआम मचाया। चीनी सेना ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियों के अलावा टैंक तक का इस्तेमाल किया। हजारों लोग मारे गए। दस हजार के करीब लोग गिरफ्तार हुए। दर्जनों लोगों को इस प्रदर्शन में हिस्सा लेने के दोष में फांसी दी गई।
>मार्च 1965 में अमेरिका के यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन में 200 टीचर्स और स्टूडेंट्स ने विएतनाम के खिलाफ अमेरिका की जंग के विरोध में सेमीनार का आयोजन किया। रेगुलर क्लासेज कैंसल कर दी गईं। 12 घंटे तक रैलियां और सेमीनार हुए। अमेरिकी सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। यूनिवर्सिटी ने इन सेमिनारों के लिए अपने कैंपस के इस्तेमाल की इजाजत दी। बाद में 1973 तक ऐसे कई जंग विरोधी प्रदर्शन अमेरिकी शिक्षण संस्थानों के कैंपस में हुए। यहां छात्रों ने देश का झंडा तक जलाया। सरकार ने केवल उनके खिलाफ ही कार्रवाई की, जो हिंसा में शामिल थे।
>अप्रैल 1968 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स ने वहां के हैमिल्टन हॉल पर डेरा डाल दिया। इससे पहले, एक सामाजिक कार्यकर्ता ने खुलासा किया था कि वियतनाम की जंग से जुड़े एक लॉबीइंग कंपनी से यूनिवर्सिटी के संबंध हैं। पुलिसवालों ने जब स्टूडेंट्स को बाहर निकालने की कोशिश की तो वहां हिंसक टकराव हुआ। हालांकि, अमेरिकी सरकार ने किसी पर राजद्रोह का मामला नहीं दर्ज किया। कुछ प्रदर्शनकारी छात्र सस्पेंड किए गए।
>इराक के खिलाफ जंग को लेकर फरवरी 2003 में अमेरिका और यूरोप में कई जगह प्रदर्शन हुए। इनमें कुछ अमेरिकी कॉलेज और शिक्षण संस्थान भी शामिल हुए। हालांकि, राजद्रोह की धारा से जुड़ी कोई कार्रवाई नहीं हुई।