अंग्रेजों के शासन काल में बनाए गए राजद्रोह कानून को लेकर अक्सर बहस सामने आ जाती है। इन दिनों दिल्ली पुलिस जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में नारेबाजी के एक मामले को लेकर आरोप पत्र दाखिल करने की प्रक्रिया में है और 156 साल पुराने इस कानून की प्रासंगिकता पर पक्ष और विपक्ष में चर्चा शुरू हो गई है। राजद्रोह कानून का दायरा क्या है और किन परिस्थितियों में इसे लागू किया जा सकता है- इसे लेकर विधि आयोग की रिपोर्ट गृह मंत्रालय को मिलनी बाकी है। वहीं सरकार के जारी आंकड़े कहते हैं कि राजद्रोह के आरोपियों पर दोष साबित करने की दर बहुत कम रही है। गृह मंत्रालय के मुताबिक, वर्ष 2014 से 2016 के बीच देश में 179 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें से सिर्फ दो (एक झारखंड और एक आंध्र प्रदेश) पर ही दोष साबित किया जा सका।

क्या कर रही है सरकार
गृह मंत्रालय ने विधि और न्याय मंत्रालय से विधि आयोग से आग्रह करने के लिए कहा था कि वह 124 ए (राजद्रोह) के प्रावधानों के इस्तेमाल का अध्ययन करें और संशोधन सुझाए। अभी राजद्रोह कानून के दायरे और इस्तेमाल को लेकर विधि आयोग के अध्ययन की रिपोर्ट मिलना बाकी है। संसद में दिए गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर के एक जवाब के मुताबिक, विधि आयोग धारा 124 ए का निरीक्षण कर रहा है।

क्या है राजद्रोह का कानून
हमारे देश में राजद्रोह को भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत परिभाषित किया गया है। यह धारा कहती है कि अगर कोई व्यक्ति बोलकर, लिखकर, संकेतों के जरिए या अन्य माध्यम से सरकार के खिलाफ नफरत, अवमानना या असंतोष भड़काता है तो यह राजद्रोह है। देश की अखंडता व एकता को नुकसान पहुंचाने, राष्ट्रीय चिह्नों का अपमान करने या संविधान को नीचा दिखाने वालों पर भी राजद्रोह का ही मामला दर्ज होता है। यह गैरजमानती अपराध है। इसमें उम्रकैद की सजा का प्रावधान है। कन्हैया कुमार व जेएनयू छात्रों पर राजद्रोह का मामला दर्ज हुआ है। दूसरी ओर, जब कोई व्यक्ति आपराधिक बल, हथियार या अन्य साधनों से देश के खिलाफ युद्ध छेड़ता है या इसका षड्यंत्र रचता है तो उस पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया जाता है। ऐसे में भारतीय दंड संहिता की धारा 121 व 121ए के अंतर्गत मामला दर्ज होता है। इसमें उम्रकैद से लेकर फांसी तक की सजा हो सकती है।

भारत में कब आया और दुनिया में कहां-कहां
राजद्रोह कानून वर्ष 1860 में बनाया गया था। 1870 में इसे भारतीय दंड संहिता के छठे अध्याय में शामिल किया गया। इस कानून को ब्रिटिश सरकार ने बनाया था और आजादी के बाद इसे भारतीय संविधान ने जस-का-तस अपना लिया। पहला मामला 1891 में अखबार निकालने वाले जोगेंद्रचंद्र बोस पर दर्ज हुआ था। ब्रिटिश सरकार ने इसका इस्तेमाल बाल गंगाधर तिलक के खिलाफ भी किया था। 1922 में महात्मा गांधी को भी धारा 124ए के तहत आरोपी बनाया था। वर्ष 2010 में ब्रिटेन में राजद्रोह के कानून को खत्म कर दिया गया। न्यूजीलैंड इस कानून से मुक्ति पा चुका है। आॅस्ट्रेलिया ने गिरफ्तारी का प्रावधान हटाकर दायरा सीमित कर दिया है। भारत के अलावा राजद्रोह कानून सऊदी अरब, मलेशिया, ईरान, उज्बेकिस्तान, सूडान, सेनेगल और तुर्की में लागू है।

क्या हैं आरोप साबित होने के आंकड़े
वर्ष 2016 में देश राजद्रोह के कुल 35 मामले दर्ज हुए और इनमें 48 लोगों को गिरफ्तार किया गया। 26 के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया गया। आंध्र प्रदेश में सिर्फ एक आरोपी पर दोष साबित हुआ। 2016 में राजद्रोह के आरोप में आठ के खिलाफ आरोप पत्र लाया गया, लेकिन साबित नहीं हुआ। 2016 में ही राजद्रोह के आरोप में राजस्थान पुलिस ने सात लोगों को गिरफ्तार किया। वहीं केरल, मध्य प्रदेश और दिल्ली में चार-चार मामले दर्ज हुए, लेकिन कहीं भी आरोप साबित नहीं हो सका। वर्ष 2015 में राजद्रोह के 30 केस दर्ज हुए जिनमें 73 लोग गिरफ्तार हुए। बिहार में सबसे ज्यादा नौ मामले दर्ज हुए जिनमें 40 लोगों को गिरफ्तार किया गया।
अब तक आरोप पत्र भी नहीं आया। 2014 में देश में राजद्रोह के 47 मामले दर्ज हुए, जिनमें 58 लोगों को गिरफ्तार किया गया। 16 के खिलाफ आरोप पत्र, लेकिन झारखंड में सिर्फ एक आरोपी पर ही दोष साबित हो सका। गृह मंत्रालय ने 2016 के बाद का आंकड़ा जारी नहीं किया है।

क्या कहते हैं जानकार
यह कानून देश को बदतर मानवाधिकार वाले देशों जैसे सऊदी अरब, मलेशिया, ईरान, उज्बेकिस्तान वगैरह की कतार में लाकर खड़ा कर देता है।
-पीडीटी आचारी, लोकसभा के पूर्व महासचिव और संविधान विशेषज्ञ

राजद्रोह के मुकदमों में हो रहा इजाफा समाज में गहरे फैल रही प्रवृत्ति की ओर इशारा करता है। एक ऐसे माहौल में जहां गुस्सा एक नए लोकतांत्रिक अधिकार जैसी चीज हो चला है, आलोचना और राजद्रोह के बीच भेद समझने की जरूरत है।
– रेबेका जॉन, वरिष्ठ वकील (अदालत में कन्हैया कुमार की पैरवी करती हैं )

भारत में राजद्रोह असंवैधानिक नहीं है। यह अपराध केवल तब माना जाता है जब शब्द, बोले या लिखे गए, विकार और हिंसा और या हिंसा के लिए उकसाए जा रहे हों।
-फली नरीमन, संवैधानिक विधिवेत्ता और सुप्रीम कोर्ट के वकील

क्या कहता है सुप्रीम कोर्ट
केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में 20 जनवरी 1962 को सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को संविधान सम्मत तो बताया था, लेकिन कहा था कि शब्दों या भाषणों को तभी राजद्रोह माना जा सकता है, जब भीड़ को उकसाया गया हो और भीड़ हिंसा पर उतर आई हो। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया था कि नागरिकों को सरकार के बारे में अपनी पसंद के अनुसार बोलने, लिखने का अधिकार है। 1995 के बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि दो व्यक्तियों द्वारा यूं ही नारे लगा दिए जाने से राजद्रोह का मामला नहीं बनता।