राकेट विज्ञान भले ही टूटे दिलों को जोड़ने में सक्षम नहीं हो लेकिन बहुत जल्द ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) में विकसित की गई तकनीक हृदय प्रतिरोपण की जरूरत वाले मरीजों के लिए मददगार साबित हो सकती है। इसरो ने एक उपकरण बनाने के लिए भारतीय राकेटों में प्रयुक्त सामग्रियों एवं तंत्र का उपयोग किया है। इस उपकरण को ‘कृत्रिम हृदय’ के विकास की ओर एक कदम माना जा रहा है।

हृदय की सहायता करने वाले इस उपकरण का परीक्षण जानवरों पर किया गया है और इसे सफल पाया गया है। उपग्रहों एवं विशाल राकेटों के प्रक्षेपण के लिए विख्यात इसरो की बहु प्रतिभाशाली टीम ने खाली समय में इस पंप का विकास किया है। इस विकास से हृदय रोग विशेषज्ञ काफी उत्साहित हैं क्योंकि उपकरण की मदद से इस घातक रोग से पीड़ित मरीजों को मदद मिलेगी। इसका कारण यह है कि हृदय प्रतिरोपण आज भी ज्यादातर लोगों की पहुंच से बाहर है। कम भार वाले राकेट और उपग्रह के विकास में दक्ष इसरो के वैज्ञानिकों ने इससे जुड़ी सामग्रियों का इस्तेमाल करते हुए एक उपकरण तैयार किया है जो मानव हृदय को रक्त छोड़ने में मदद करता है, खासकर ऐसे मामलों में जब मानव हृदय का सबसे ताकतवर बायां निलय काम करना बंद करने लगता है। ‘लेफ्ट वेंट्रिकुलर असिस्ट डिवाइस’ नामक यह छोटा विद्युत उपकरण प्रति मिनट तीन से पांच लीटर खून छोड़ने में सक्षम है।

इसरो के अध्यक्ष किरण कुमार ने कहा कि यह राकेट प्रौद्योगिकी बहुत बीमार मरीजों में रक्त बाकी पेज 8 पर उङ्मल्ल३्र४ी ३ङ्म स्रँी 8
छोड़ने में वैकल्पिक प्रणाली के रूप में काम कर सकती है और निश्चित तौर पर जिंदगी बचा सकती है। भारतीय अंतरिक्ष एजंसी द्वारा बनाए गए इस विशेष पंप का उपयोग अत्यधिक ऊर्जा वाले स्वदेशी बैटरी के जरिये किया जा सकता है। राकेट वैज्ञानिकों की एक और टीम ने पहली बार भारत में इस तरह की बैटरी का विकास किया है। करीब 100 ग्राम वजन के इस पंप को शरीर के भीतर या बाहरी हिस्से में लगाया जा सकता है और इसे ऊर्जा देने के लिए बैटरी की आवश्यकता होगी।

तिरुवनंतपुरम के विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र (वीएसएससी) के निदेशक के. सिवान ने कहा कि टाइटेनियम की मिश्र धातु से निर्मित उपकरण जैव अनुकूल है। वीएसएससी के राकेट वैज्ञानिक राकेट इंजन और उपग्रह के घटकों के निर्माण के लिए टाइटेनियम की मिश्र धातु का प्रयोग करते हैं। सिवान ने कहा, ‘हम लोगों ने देखा है कि उपकरण सभी बॉयो-मैकेनिकल आवश्यकताओं को पूरा कर रहे हैं और रक्त छोड़ने की जरूरत को भी। इस खास उपकरण का परीक्षण छह जानवरों पर किया गया।

इसका परीक्षण छह घंटे तक किया गया एवं उसके बाद जानवर के अन्य अंगों की जांच की गई। वे अक्षुण्ण थे। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। यह सफल उपकरण है। निश्चित तौर पर कृत्रिम हृदय के विकास की दिशा में यह इसरो का बहुत महत्त्वपूर्ण कदम है।’ यह उपकरण एक आम तकनीक केन्द्रापसारक तकनीक पर काम करता है। छोटे पंप में उपयोग में लाए गए इलेक्ट्रॉनिक्स एवं चुंबकों का विकास उन्हीं इंजीनियरों ने किया है जो भारतीय उपग्रहों द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले कम भार की प्रणाली का निर्माण करते हैं।

पंप का विकास इस तरह से किया गया है कि लगातार प्रयोग की स्थिति में भी यह गर्म नहीं होता है और इसके असफल होने की संभावना लगभग न के बराबर होती है। इस उपकरण का प्रयोग छह सूअरों पर किया गया। तिरुवनंतपुरम के श्री चित्रा तिरूनल इंस्टीट्यूट आॅफ मेडिकल साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी (एससीटीएमएसटी) के हृदय रोग विशेषज्ञों ने आॅपरेशन करके छह स्वस्थ सूअरों के बाएं वेंट्रिक्ल के स्थान पर इसरो द्वारा विकसित विशेष पंप को लगाया।

प्रयोग के दौरान सूअर छह घंटे तक इस विशेष उपकरण पर रहे। प्रयोग के दौरान उपकरण द्वारा छोड़े गए रक्त पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं देखा गया और न ही उनका कोई और अंग प्रभावित हुआ। एससीटीएमएसटी के वैज्ञानिकों ने कहा कि कार्य अभी जारी है और मनुष्यों में इस्तेमाल में लाए जाने से पहले इस उपकरण का प्रयोग जानवरों पर और किया जाएगा। इस तकनीक से परिचित हृदय रोग विशेषज्ञों ने कहा कि हृदय पंप उपकरण के आयात और प्रतिरोपण में एक करोड़ रुपए से अधिक खर्चा आता है जबकि वीएसएससी के वैज्ञानिकों ने कहा कि टीम ने इस उपकरण का विकास महज 1.25 लाख रुपए में किया है।

’ ‘लेफ्ट वेंट्रिकुलर असिस्ट डिवाइस’ प्रति मिनट तीन से पांच लीटर खून छोड़ने में सक्षम है, इसे कृत्रिम हृदय’ के विकास की ओर कदम माना जा रहा है।
’राकेट वैज्ञानिकों ने पहली बार भारत में ऐसी बैटरी का विकास किया है, इसरो के अध्यक्ष किरण कुमार के अनुसार यह प्रौद्योगिकी निश्चित तौर पर जिंदगी बचा सकती है।
’करीब 100 ग्राम के पंप को शरीर के भीतर या बाहरी हिस्से में लगाया जा सकता है और इसे ऊर्जा देने के लिए बैटरी की आवश्यकता होगी।
’हृदय रोग विशेषज्ञों ने कहा कि ऐसे हृदय पंप उपकरण के आयात और प्रतिरोपण में एक करोड़ रुपए से अधिक खर्चा आता है जबकि भारत ने 1.25 लाख रुपए में विकसित किया।