सारी दुनिया में सहमति बन चुकी है इन दिनों कि विश्व और इस विश्व की संस्कृति को सबसे बड़ा खतरा है वहाबी इस्लाम से। पेरिस के हमलों के बाद फ्रांस के राष्ट्रपति दुनिया के राजनेताओं से मिलने निकले हैं आइएस को रोकने की रणनीति तय करने के मकसद से। इससे बड़ा कोई मुद्दा नहीं है विश्व भर में, लेकिन भारत महान में नहीं। यहां सबसे बड़ी चिंता हमारे बुद्धिजीवियों और वामपंथी राजनीतिक दलों की राय में है हिंदुत्व की सोच से पैदा हुई तथाकथित असहिष्णुता या बढ़ता ‘इनटालरेंस’। मैंने तथाकथित इसलिए कहा, क्योंकि मुझे पूरा यकीन है कि भारत के चरित्र में ऐसा कोई परिवर्तन नहीं आया है नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद।
मैंने यह भी देखा है कि किस तरह माहौल में खौफ पैदा किया गया है, कभी किसी नासमझ साध्वी के बयान के बहाने, कभी घर वापसी के बहाने, तो कभी गिरजाघरों में छोटी-मोटी चोरियों को बड़ी घटना बना कर। याद कीजिए, किस तरह दादरी की घटना के पहले हर दूसरे दिन पढ़ने को मिलते थे ऐसे लेख, जिनसे लगता था कि ईसाइयों के साथ इतनी ज्यादती हो रही है कि वे देश छोड़ कर जाने को तैयार हैं। मीडिया की पूरी सहायता से बना था यह माहौल और मीडिया का ध्यान जब कहीं और चला गया, तो ईसाई समाज भी अचानक अपने आप को सुरक्षित महसूस करने लगा।
दादरी में मोहम्मद अखलाक की हत्या वास्तव में देश का सिर झुका देने वाली थी और इसके बाद प्रधानमंत्री ने मौन रह कर बहुत बड़ा नुकसान किया अपना और देश का भी। एक छोटी-सी ट्वीट करके भी दुख व्यक्त करते तो मुमकिन है कि तीन बेगुनाह मुसलिम नौजवान इसके बाद बीफ को लेकर न मारे जाते। बहुत बुरा हुआ प्रधानमंत्री के चुप रहने से, लेकिन इस बुनियाद पर यह कहना कि भारत में अब इनटालरेंस बढ़ गया है- गलत है, झूठ है। इसलिए आमिर खान ने इस मुहिम में कूद कर अच्छा नहीं किया। एक तो इतने बड़े सिलेब्रिटी अभिनेता जब इस तरह की बात करते हैं, तो विदेशों में रहने वाले लोगों को लगता है कि वास्तव में भारत में बहुत गलत किस्म का परिवर्तन आ गया है। ऐसा करके आमिर ने उस अहम मुद्दे से ध्यान हटाया है, जो बाकी दुनिया की नजरों में विश्व को सबसे बड़ा खतरा है: वहाबी इस्लाम। इस कट्टरपंथी इस्लाम का असर हमारे देश में भी दिखने लगा है और आमिर खान जैसे उदारवादी, जाने-माने मुसलमानों की खास जिम्मेवारी बनती है मुसलिम नौजवानों को इस जहरीली विचारधारा से दूर रखने की।
भारतीय इस्लाम शुरू से उदारवादी रहा है, क्योंकि इसमें अपने सनातन धर्म का भी असर है, सूफियों का भी और इस देश की प्राचीन संस्कृति का भी। सो, हमारे मुसलमानों में न गाना-बजाना हराम है, न सिनेमा और न ही मौलवियों की बातों पर सवाल उठाना। इस इस्लाम से पैदा हुए हैं गालिब, मीर और इकबाल जैसे महान शायर, जिन्होंने अल्लाह से भी सवाल किए हैं अपनी शायरी में। हमारे इस्लाम से पैदा हुए हैं महान शास्त्रीय संगीतकार और साजिंदे। रही सिनेमा की बात, तो पिछले बीस वर्षों से तीन खानों ने शिखर पर ऐसा कब्जा किया हुआ है कि किसी और के लिए जगह बनाना मुश्किल है आज भी।
बढ़ती इनटालरेंस देखनी है अगर आमिर खान को तो जरा नजरें उठा कर इस्लामी मुल्कों की तरफ देखें। दूर जाने की जरूरत नहीं है, अपने पड़ोस में ही देखें। पाकिस्तान और बांग्लादेश में किस तरह का इस्लाम है आजकल। यहां हर दूसरे-तीसरे दिन हमले होते हैं शियों पर, उनकी मस्जिदों पर। यहां कट्टरपंथी इस्लाम का यह आलम है कि पेशावर में मुजाहिदों ने स्कूल में पढ़ते बच्चों को मारा। मारने से पहले उनसे नमाजें पढ़ार्इं। बांग्लादेश में ‘सेक्युलर’ मिजाज के लोगों को मारा गया है, सिर्फ इसलिए कि उन्होंने इंटरनेट पर सेक्युलरिज्म की तरफदारी की है।
क्या आमिर खान नहीं जानते हैं कि वहाबी इस्लाम के आने से पाकिस्तान का पूरा फिल्म उद्योग खत्म हो गया? पाकिस्तान का हाल फिर भी थोड़ा-सा ठीक है, क्योंकि वहां पहुंचती हैं अब भी भारत से रंगीन हवाएं। लेकिन क्या आमिर खान ने देखा नहीं है कि वहाबी इस्लाम ने अफगानिस्तान का क्या हाल कर रखा है? वहां पर महिलाओं को न पढ़ने-लिखने की इजाजत थी जब तालिबान की सरकार थी और न ही महिलाओं को अकेले बाहर जाने की और अफगानिस्तान जन्नत है आइएस की खिलाफत की तुलना में।
आइएस की खिलाफत में यजीदी औरतों को गुलाम बना कर बेचा गया है बाजारों में, उनके बच्चों की निर्मम हत्याएं की गई हैं, उनकी माताओं की आंखों के सामने सिर्फ इसलिए कि इस नए इस्लामी देश में माना जाता है कि काफिरों को मारने से अल्लाह खुश होते हैं। आइएस ने स्पष्ट किया है एक बार नहीं कई बार कि उनकी जिहाद का मकसद है कि दुनिया में एक भी काफिर जिंदा न बचे, सो उनके निशाने पर हैं ईसाई, यहूदी और हम बुतपरस्त हिंदू भी।
इसलिए आमिर खान से विनम्रता से अर्ज करना चाहूंगी कि दुनिया में वाकई फैल रही है इनटालरेंस की ऐसी लहर, जो हमारे जैसे काफिर देशों को तबाह कर सकती है। आप जैसे लोगों की खास जिम्मेवारी बनती है इस लहर से भारतीय इस्लाम को महफूज रखने की। आपने बिल्कुल ठीक कहा रामनाथ गोयनका पुरस्कार समारोह में कि आपको मायूसी होती है बढ़ती इनटालरेंस को देख कर, लेकिन आपकी आंखों को सिर्फ हिंदू इनटालरेंस दिख रही है, जो आसानी से काबू में लाई जा सकती है, क्योंकि सनातन धर्म का आधार है हर इंसान को अपनी मान्यता से इबादत करना। वहाबी इस्लाम को कैसे रोकेंगे आप, जिसका आधार बिल्कुल उलट है?