उत्तरी दिल्ली में स्थित मजनू का टीला का कनेक्शन एक सूफी फकीर, एक सिख गुरु से लेकर तिब्बती संस्कृति तक फैला हुआ है। दिल्ली विश्वविद्यालय के पास स्थित इस इलाके में न्यू अरुणा नगर और मैगजीन रोड तक आते हैं। इस जगह को यह नाम मजनू का टीला गुरुद्वारे से मिला है। कहानी सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक से जुड़ी हुई है। वह इस इलाके में 1505 में सिकंदर लोदी के शासन के दौरान आए थे। वह यहां एक सूफी फकीर अब्दुल्ला से मिले जो ईरान के रहने वाले थे। अब्दुल्ला को स्थानीय लोग मजनू कहकर पुकारते थे।
INTACH की कन्वीनर डॉ स्वप्ना लिडिल ने बताया, ‘मजनू एक साधारण व्यक्ति थे जो ध्यान लगाते थे और लोगों को यमुना नदी पार कराते थे। गुरुनानक ने उन्हें आशीर्वाद दिया और उसी जगह पर गुरुद्वारा स्थित है। अधिकतर गुरुद्वारे उन जगहों पर बनाए गए हैं, जहां कोई सिख गुरु पहुंचा।’ उन्होंने बताया कि फकीर यमुना के नजदीक एक टीले पर रहते थे, इसलिए यह इलाका मजनू का टीला कहलाने लगा। गुरुद्वारे के मुख्य ग्रंथी भाई बलजिंदर सिंह जी बताते हैं कि गुरुद्वारे का निर्माण 1783 में सिख मिलिट्री लीडर बघेल सिंह ने कराया था।
वहीं, मजनू का टीला गुरुद्वारे पर लगे एक बोर्ड में बताया गया है कि एक दिन गुरु नानक और मजनू ने रोने की तेज आवाजें सुनीं। उन्होंने पाया कि एक महावत रो रहा है क्योंकि शहंशाह का हाथी मर गया। कहानियों के मुताबिक, गुरुनानक ने उस हाथी को जीवित कर दिया। इतिहासकार मानते हैं कि मजनू का टीला का ऐतिहासिक प्रेमी जोड़े लैला मजनू से कोई रिश्ता नहीं है।
दशकों से मजनू का टीला गुरुद्वारे के नजदीक तिब्बती लोगों की कॉलोनियों के लिए मशहूर है। यह जगह कॉलेज स्टूडेंट्स से लेकर टूरिस्टों के बीच बेहद लोकप्रिय है। यहां तिब्बती रेस्तरां, बौद्ध मठ से लेकर छोटी-छोटी कपड़ों की दुकानें हैं। यहां की गलियों में तिब्बत के परिवारों की रिहाइश है जो 60 के दशक की शुरुआत में यहां आकर बस गए।
स्थानीय आरडब्ल्यूए प्रेसिडेंट कारा दोरजे ने कहा, ‘पहले लोग यहां राइस बीयर या छांग बेचते थे, इसलिए यह इलाका छांग बस्ती, छांगिस्तान और मजनू का टीला कहलाता था। जब शीला दीक्षित सीएम थीं तो उन्होंने इस इलाके को न्यू अरुणा नगर नाम दिया। अच्छा महसूस होता है कि एक तिब्बती पुर्नवास कॉलोनी को नाम दिया गया लेकिन लोग अब भी इसे मजनू का टीला बुलाते हैं। हमें कोई ऐतराज नहीं है।’

