पंकज रोहिला
धुंध व कोहरे में सिग्नल के लिए रेलवे को अभी भी पटाखों का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। इस पुरातन तकनीक का सबसे अधिक प्रयोग उत्तर भारत में हो रहा है। यह धमाका ही कोहरे व धुंध में नहीं दिख रहे सिग्नल के आने की चेतावनी है। इस चेतावनी के बाद ही रेल चालक मार्ग का सिग्नल देखकर रुकता या आगे बढ़ता है। यह पटाखा (डेटोनेटर) जैसे ही इंजन के पहले पहिए के नीचे आता है, दबाव से फट जाता है और जोरदार धमाका करता है। रेलवे अधिकारियों के मुताबिक पटाखे (डेटोनेटर) एक परंपरागत सिग्नल की प्रक्रिया है। इसके लिए रेलवे के पास एक फॉग सिग्नलमैन स्टॉफ होता है। इस स्टॉफ को ही ये पटाखे उपलब्ध कराए जाते हैं।
कर्मचारी किसी भी रेल सिग्नल से एक निर्धारित दूरी पर इन पटाखों को पटरी से ऐसे बांधते हैं कि पटाखे का पिछला हिस्सा सीधे इंजन के पहिए के नीचे आ जाता है। इसके बाद यह पटाखा धमाके के साथ आवाज करता है। इस पटाखे में जानबूझ कर ऐसे केमिकल प्रयोग किए जाते है, जो सिर्फ धमाका करें। इसका कोई भी असर ट्रेन पर नहीं होता। इस धमाके को आने वाले सिग्नल का संदेश माना जाता है। पूरा देश इस समय ठंड व कोहरे की चपेट में है। कोहरे का सबसे अधिक असर उत्तर भारत में होता है।
इन राज्यों को देश के विभिन्न हिस्सों से जोड़ने के लिए रेलवे रोजाना 1000 से 1200 गाड़ियां चलाता है। रेलवे के मुताबिक धुंध व कोहरा रेल की रफ्तार को भी कम कर देता है। इस वजह से कई मार्गों पर इन दिनों ट्रेनों की संख्या भी कम की गई है। इस समय करीब 60-70 ट्रेनें रद्द चल रही हैं। यह व्यवस्था भी मार्ग पर अधिक यातायात नहीं हो, इसके लिए ही लागू की जाती है। लेकिन इन मार्गों पर रेल संचालन के लिए पटाखों का प्रयोग किया जा रहा है। इसे देखकर चालक सिग्नल आगे अपने मार्ग की तरफ बढ़ता है। प्रतिदिन उत्तर रेलवे में कोहरे के वक्त हजारों की संख्या में ऐसे पटाखों का प्रयोग किया जाता है।
फॉग सेफ्टी डिवाइस भी हो रहा है इस्तेमाल : देश में अब इस परंपरागत तरीके के साथ कोहरे से बचाने वाला उपकरण (फॉग सेफ्टी डिवाइस) भी अब रेल संचालन के लिए प्रयोग किया जा रहा है। यह जीपीएस से जुड़ी तकनीक है जो इंजन और स्टेशन मास्टर को किसी भी ट्रेन में चेतावनी संकेत देती है। इस तकनीक के माध्यम से चालक को सुनने वाला (आॅडियो) व दिखने वाला (वीडियो) संदेश दिया जाता है। अब रेलवे धीरे इस तकनीक को पूरे नेटवर्क में विकसित कर रहा है। लेकिन जहां अब तक यह तकनीक नहीं पहुंची है, उन जगहों पर यह परंपरागत सिस्टम प्रयोग किया जाता है।