“वर्ल्ड का चक्रवर्ती राज भी मिलता तो भी मुझे उतनी खुशी नहीं होती, जितनी खुशी तोलोलिंग की चोटी पर तिरंगा गाड़कर हुई थी, हिन्दुस्तान की पहली कामयाबी तोलोलिंग टॉप पर थी।” ये शब्द हैं कोबरा के, जी हां ठीक सुना आपने। जिस जवान की रगों में खून के साथ साथ फौलाद दौड़ता है उसे आर्मी ने कोबरा नाम दिया है। इस जवान का नाम है महावीर चक्र विजेता दिगेन्द्र सिंह। इस जवान की हौसला अफजाई करते हुए तत्कालीन आर्मी चीफ ने कहा था-“वाह मेरे बेटे, तुझे 48 घंटे पहले हिन्दुस्तान की पहली कामयाबी मुबारक हो, अगर तू ये तिरंगा झंडा फहराता है…13 जून को ये तिरंगा झंडा फहरता है तो तेरा नाश्ता जनरल मलिक खुद अपने हाथ से कराएगा।”
दुनिया के सैन्य इतिहास में जब भी किसी देश की सेना की कायराना हरकत का जिक्र किया जाएगा, तो करगिल पर कब्जे की पाकिस्तान की बुजदिल कोशिश की चर्चा जरूर होगी। 19 साल पहले 26 जुलाई के दिन ही भारतीय सेना ने भारत की भूमि से पाकिस्तानियों को खदेड़ कर भगाया था। गोला और बारूद के साथ झूठ और फरेब को हथियार बनाने वाले पाकिस्तानी जनरलों ने सर्दियों के मौसम में जम्मू-कश्मीर में भारत की चोटियों जैसे, मस्कोह, द्रास, बटालिक पर कब्जा कर लिया था। गर्मी आते ही पहाड़ों पर धूप खिली तो तोशी नाम के एक गड़ेरिये को पहली बार वहां घुसपैठियों के वेश में छुपे पाकिस्तानी सैनिकों को देखा। इस गड़ेरिये ने तुरंत इसकी सूचना इंडियन आर्मी को दी।
भारतीय सैन्य प्रतिष्ठान के लिए ये काफी परेशान करने वाली खबर थी। तब अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे। सैकड़ों जवानों की कुर्बानी देकर देश ने करगिल की चोटियों की पाकिस्तान के कब्जे से मुक्त करवाया। सेना ने इस पूरे अभियान को ऑपरेशन विजय का नाम दिया। भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक लगभग 527 जवान शहीद हुए, जबकि 1300 जवान घायल हुए। यूं तो करगिल की इस लड़ाई में कई योद्धाओं ने अपने प्राण न्यौछावर किये। पर आज हम चर्चा करेंगे महावीर चक्र विजेता नायक (रिटायर्ड) दिगेन्द्र सिंह की।
कोबरा…जी हां अपने कारनामों की वजह से फेमस हो चुके नायक दिगेन्द्र अपनी बटालियन में कोबरा के नाम से ही जाने जाते थे। इंडियन आर्मी के 2 राजपूताना राइफल्स में नायक दिगेन्द्र सिंह को तोलोलिंग चोटी को दुश्मन के कब्जे से मुक्त कराने की जिम्मेदारी दी गई। तब तक दिगेन्द्र सिंह 13 साल तक सेना में काम कर चुके थे। लेकिन उनकी असली परीक्षा तो अब शुरू हुई थी। तोलोलिंग पर चढ़ाई के लिए उस समय के आर्मी चीफ जनरल मलिक ने खुद बैठक की थी। उन्होंने जवानों से पूछा- वो बहादुर जवान कौन है जो इस तिरंगे को तोलोलिंग पर फहराएगा।” महावीर चक्र विजेता दिगेन्द्र सिंह बताते हैं कि उन्होंने इस ऑपरेशन के लिए अपना नाम आगे बढ़ाया। तब तक दिगेन्द्र सिंह कश्मीर में ड्यूटी के दौरान कई आतंकवादियों का सफाया कर चुके थे। उन्होंने श्रीलंका में भारतीय सेना के साथ शांति मिशन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।
दिगेन्द्र सिंह तोलोलिंग पर कब्जे की योजना अधिकारियों को बताई। उनकी इस योजना से अधिकारी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने दिगेन्द्र सिंह को तोलोलिंग को पाक के कब्जे से मुक्त कराने की जिम्मेदारी दे दी। फिर शुरू असंभव को संभव करने का अभियान। इस अभियान में दिगेन्द्र के कमांडिग ऑफिसर बने मेजर विवेक गुप्ता। पाकिस्तानी घुसपैठिए, पहाड़ को चोटी पर थे। इसका सीधा लाभ उन्हें मिल रहा था। वे ऊपर से भारत की सेना पर सीधा हमला कर सकते थे। रात होते ही नायक दिगेन्द्र अपने साथियों के साथ पहाड़ की चढ़ाई चढ़नी शुरू कर दी। रूसी कीलों और रस्सियों के सहारे पहाड़ चढ़ा जा रहा था। पाकिस्तानी सेना ने तोलोलिंग टॉप पर 11 बंकर बना रखे थे। 14 घंटे की कठिन चढ़ाई के बाद, बर्फीली वादियों की खून जमा देने वाली हवा के बीच दिगेन्द्र सिंह ने पहली बाधा पार की। दिगेन्द्र सिंह बताते हैं कि यहीं से उनकी बात तत्कालीन आर्मी चीफ जनरल वीपी मलिक से हुई थी। दिगेन्द्र सिंह और उनकी टीम से जनरल मलिक इतने प्रभावित हुए उन्हें 48 घंटे पहले ही जीत की बधाई दी। ये किस्मत का करिश्मा ही था कि जनरल साहब की बधाई सही निकली। तोलोलिंग चोटी जीती गई, लेकिन कई कुर्बानियों के बाद।

हमेशा की तरह नायक दिगेन्द्र सिंह ने पहली चढ़ाई की। उन्होंने कहा कि वे पहला और आखिर बंकर खुद उड़ाएंगे। बाकी नौ बंकरों को तबाह करने का काम उनके नौ साथियों को मिला। 12 जून 1999 को रात के साढ़े आठ बजे थे। करगिल की पहाड़ियों में बर्फीली हवा सांय-सांय चल रही थी। आम आदमी होता तो खून जम जाता। लेकिन इस टुकड़ी की लहू तो उबाल ले रही थी। रफ्ता-रफ्ता, हौले-हौले ये लोग रस्सियों के सहारे उपर चढ़ते गये। अंधेरे में दिगेन्द्र सिंह ने दुश्मन के मगीनगन का बैरल पकड़ लिया, उन्होंने बैरल खींचा तो उससे गोलियां निकलनी शुरु हो गईं, तीन गोलियां दिगेन्द्र सिंह के सीने में लगी। इस बीच दुश्मन के खेमे से भी गोलियां चलने लगी। बारूद फटने लगे। अचानक यूं लगा करगिल की चोटियों पर दिवाली के पटाखे फूट रहे हैं। दिगेंद्र के साथ एल.एम.जी. भी छूट गई। इस बीच उन्होंने ग्रेनेड निकाला और पाकिस्तानी बंकर में फेंक दिया। जोर का धमाका हुआ और बंकर तबाह हो गई। कम से कम से 6-7 पाकिस्तानी सैनिक मारे गये। अब खुलकर लड़ाई हो रही थी। बंकर के पीछे लगभग 30 पाकिस्तानी सैनिक थे। दिगेन्द्र सिंह के टीम में शामिल सूबेदार भंवरलाल भाकर, लांस नाइक जसवीर सिंह, नायक सुरेन्द्र, नायक चमनसिंह और अन्य इन पर गोलियां बरसाने लगे। भंयकर युद्ध हुआ। 30 पाकिस्तानी सैनिक मारे गये। भारत की ओर से आए मेजर गुप्ता समेत सभी 9 सैनिक भी वीरगति को प्राप्त हुए। किसी को 15 तो किसी को 20 गोलियां लगी। इस बीच दिगेंद्र ने बेहद बुद्धि और बहादुरी से काम लिया। उन्होंने बाकी 11 बंकरों में 18 हथगोले फेंके। अकेले दम पर सबको तबाह दिया। सुबह 4 बजे तक युद्ध हुआ।
इसके दिगेन्द्र सिंह की एक पाकिस्तानी मेजर से आमने-सामने की लड़ाई हुई। कल्पना कीजिए इस शख्स के जज्बे को। जो रात नौ बजे से लड़ रहा था। जिसके सीने में कई गोलियां दफ्न हो चुकी थीं। अब एक पाकिस्तानी मेजर से उसकी लड़ाई थी। दिगेन्द्र सिंह के पास एक चाकू और पिस्टल था। दिगेन्द्र सिंह ने अपने साथी सिपाही की एलएमजी ली और आ गये सामने। दरअसल रात के अंधेरे में दिगेन्द्र सिंह को अनवर खान का पिछला हिस्सा दिखा। दिगेन्द्र सिंह ने उसे चुनौती दी और कहा-‘मेजर अनवर खान हिन्दुस्तान का सिपाही पीठ पर गोली नहीं मारता, संभाल अपने आप को।’ तड़-तड़ तड़-तड़ दोनों ओर से गोलियां चलनी शुरू हो गई। दिगेन्द्र सिंह बताते हैं कि इस वक्त किस्मत ने उनका साथ दिया। उन्होंने जो गोली चलाई वो अनवर खान के हाथ में या पिस्टल में लगी। उसका पिस्टल नीचे गिर गया। अनवर खान के द्वारा चलाई गई गोली उनके जांघ में लगी। इसके बाद दोनों के बीच खूब गुत्थमगुत्थी हुई। दिगेन्द्र सिंह पाकिस्तानी पर भारी पड़ रहे थे, लेकिन मेजर अनवर खुद को उनसे छुड़ाने में सफल रहा और भागने लगा। दिगेन्द्र सिंह फिर भागे और उसे पकड़कर पटक दिया। इस बार मेजर अनवर जमीन पर पड़ा था और उसके ऊपर सवार थे दिगेन्द्र सिंह। दिगेन्द्र सिंह चाकू निकाली और पाकिस्तानी मेजर का सर धड़ से अलग कर दिया। दिगेन्द्र सिंह पहाड़ी पर लड़खड़ाते चढ़े और वहां तिरंगा झंडा गाड़ दिया।