रमा
देश में जब भी किसी भाषा के विशेष महत्व की बात होती है तो मतभेद हो पैदा जाता है। यह मतभेद कहीं अपनी मातृभाषा के प्रति श्रद्धा भाव तो कहीं दूसरी भाषा के बढ़ते वर्चस्व को लेकर चिंता भी व्यक्त करता है। किसी एक भाषा की अस्मिता दूसरी भाषा को क्यों आहत करे? कोई भाषा किसी दूसरी भाषा के लिए चिंता का विषय क्यों बने? क्या भाषाएं एक दूसरे का संबल नहीं बन सकती हैं? इन बिंदुओं पर गहराई से पहले ज्यादा विचार नहीं किया गया। भारत बहुसांस्कृतिक, बहुधार्मिक और बहुभाषी देश है। यहां कई भाषाएं या बोलियां अस्तित्व में हैं, उनकी अपनी पहचान है, अपना साहित्य है, अपना लोक है।

हालांकि कुछ भाषाएं/बोलियां इस दौरान खत्म होने के कगार तक भी पहुंच गई हैं। भारत सरकार ने इस संबंध में निर्णायक फैसला लिया है। नई शिक्षा नीति के कुछ बदलावों के कारण भाषाओं का इतिहास ही बदल जाएगा। भाषाओं की अविरल यात्रा, जो उपेक्षा के कारण अवरुद्ध हो चुकी थी उसे फिर से नया मार्ग मिलेगा। जिसकी कोई न कोई मंजिÞल होगी। निश्चित ही नई शिक्षा-नीति ने भाषाओं के गुमनाम हो चुके सफर को एक नई दिशा दे दी है। एक उद्देश्य दे दिया है। एक ‘विजन’ दे दिया है।

इधर, लगातार नई शिक्षा नीति के विभिन्न पहलुओं पर लिखा गया। भारतीय भाषाओं के संदर्भ में हुए बदलावों के सकारात्मक पहलुओं पर बात करना बहुत जरूरी है। इस शिक्षा नीति को बनाने के लिए देश के कोने कोने से लोगों की राय ली गई। ग्राम पंचायतों से लेकर शिक्षाविदों, अध्यापकों, विद्याथिर्यों, जनप्रतिनिधियों, अभिभावकों और विद्याथिर्यों के दो लाख से ज्यादा सुझावों पर मंथन किया गया।

भारतीय भाषाओं को लेकर जो ऊहापोह भारत में दशकों से बना हुआ था वह अब नए सिरे से बहस का मुद्दा बनेगा। उसमें जोड़-घटाव की बहस भी शुरू होगी। कुछ प्रतिरोध के स्वर भी उठेंगे। इसके बाद भी यह तारीफ की जाएगी कि इस नई शिक्षा नीति ने भारतीय भाषाओं को पुनर्जीवित करने की दिशा में बड़ी पहल की है। खासतौर पर प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने की पहल भाषाओं की खत्म होती परंपरा जो नया जीवन देगी। जाहिर है कि जब बच्चा प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा में ग्रहण करेगा तो उस भाषा के प्रति उसका आदरभाव भी होगा। उससे जुड़ाव की नींव और गहरी होगी।

अभी तक यही होता रहा है कि अंग्रेजी के प्रति लोगों का रुझान इस कदर बढ़ता जा रहा था कि अपनी मातृभाषा क्या, राष्ट्रभाषा हिंदी ही अपने ही देश में हाशिए पर है। बीसवीं शताब्दी में अपने बच्चों को कॉन्वेंट विद्यालयों में पढ़ाने की ऐसी होड़ मची कि सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा हो गई। सरकार ने भारतीय भाषाओं को शिक्षा की बुनियाद में डालकर न केवल भाषाओं के प्रति सम्मान व्यक्तकिया है बल्कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मजबूत बुनियाद भी रख दी है। इतना ही नहीं भारतीय भाषाओं, कलाओं और भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने वालों को वजीफे का प्रावधान करने की सोच भी स्वागत योग्य है। इससे अपनी सांस्कृतिक चेतना को वैश्विक पहचान भी मिलेगी और रोजगार के नए संसाधन भी शुरू होंगे।

नई शिक्षा नीति में ई-पाठ्यक्रम को क्षेत्रीय भाषाओं से जोड़ने की भी बात कही गई है। यह कठिन लेकिन सुखद प्रयास है। तकनीकि के इस महायुग में अगर हमनें इसका फायदा नहीं उठाया तो दुनिया से बहुत पीछे हो जाएंगे। उम्मीद है कि नई शिक्षा नीति द्वारा भारतीय भाषाओं की अब जाकर प्राण-प्रतिष्ठा होगी। अभी तक तो उसकी पूजा बिना प्रतिष्ठा किए होती रही।

सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार ने यह सारे काम उस कठिन समय में पूरे किए जब पूरा विश्व कोरोना महामारी से जूझ रहा है। भारत की स्थिति भी चिंताजनक बनी हुई है तब भी सरकार लगातार देश, संस्कृति और समाज और भाषा के हित में लगातार सकारात्मक फैसले ले रही है। यह न सिर्फ बड़ी पहल है बल्कि इससे सरकार की नैतिक प्रतिबद्धता भी जाहिर होती है।