प्रश्न: लॉकडाउन की स्थिति को देखा जाए तो ऐसी समस्या विश्व के सामने पहली बार आई है। इसका प्रभाव समाज के हर वर्ग पर पड़ा है। सांसदों और नेताओं पर किस तरह का प्रभाव पड़ा है? क्या उनके लिए कुछ चुनौतियां आईं हैं या कुछ अवसर बने हैं? एक सांसद के तौर पर क्या कहना चाहेंगे?

उत्तर : निश्चित रूप से हर बड़ा संकट चुनौतियां लेकर आता है तो उसमें बड़े अवसर भी लाता है। भारत में आज हमारे सामने क्या बड़े अवसर हैं। इस पर बहुत बेहतर तरीके से चर्चा शुरू हो गई है। आज जो चुनौतियां सामने आईं हैं, ऐसी चुनौतियां मानव इतिहास में कभी नहीं थीं। मेरी जानकारी में जो बड़े-बड़े रोग और महामारी हुए जैसे 1915, 16-18 में स्पेनिश फ्लू आदि की बात होती है या इस तरह के बड़े रोग दुनिया में फैले, लेकिन तब दुनिया ग्लोबलाइज नहीं थी। दुनिया की आबादी आज जैसी नहीं थी। दुनिया की नियति एक नहीं हो गई थी।

दुनिया के हमारे समय के सबसे बड़े जीव विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग ने अपनी अंंतिम किताब – ब्रीफ आंसर्स टुु दि बिग क्वेश्चंस (Brief Answers to the Big Questions) .में एक जगह कहा है कि हम आज चाहेंं या न चाहें, हमारी नियति ग्लोबलाइजेशन से एक हो गई है। एक देश यदि अपने यहां पर्यावरण के नियम का पालन नहीं करेगा, हमारा पड़ोसी देश, उसका असर हम पर भी पड़ने वाला है। उसमें पांच-छह बड़े खतरे बताए हैं, जो दुनिया के सामने हैं। उन्होंने कहा कि अगर हम इन खतरों का समाधान नहीं निकाल सके तो इंसान को कुछ वर्षों में अपने रहने के लिए नया भूमंडल या नई पृथ्वी तलाश लेनी चाहिए, क्योंकि यह पृथ्वी बचेगी ही नहीं।

भौतिक विकास की जो पश्चिमी अवधारणा है, जिस रास्ते पर आज दुनिया चल पड़ी है, मास कंजम्‍प्‍‍‍‍शन के रास्ते, इसका भविष्य क्या होगा? इसकी ओर किसी ने चेताया था आपको इस देश में। महात्मा गांधी ने 1948 में। हमने अनसुना कर दिया। उन्‍‍‍‍‍‍‍‍होंने सूूूूत्र वाक्य के रूप में एक बात कही थी कि प्रकृति सबकी जरूरत पूरा करती है, किसी का लोभ नहीं संवरण करती। तो यह मास कंजम्‍प्‍‍‍‍शन का ऐरा, लोभ का ऐरा है, पूरी दुनिया के लिए।

भारत के सामने बड़ा रास्ता था। 1948 में। जब गांधीजी ने जवाहरलाल को पत्र लिख कर कहा था कि भारत आजाद होगा। ऐसे में हमें तय कर लेना चाहिए कि भारत के विकास का रास्ता क्या होगा और भारत की भाषा क्या होगी? उन्होंने यह भी कहा था कि गांव के विकास का रास्ता, जो हमारा परंपरागत रहा है, हमारी जो अपनी ताकत रही है, उसके अनुसार हम अपने देश के विकास का रास्ता तय करें। हमारे विकास का रास्ता पश्चिम के विकास के रास्ते से भिन्न होगा।

सन 1930 के आसपास विदेशी, खास तौर से ब्रिटेन के पत्रकारों ने बार-बार महात्मा गांधी से पूछा था कि भारत आजाद होगा तो किस तरह से उसका विकास होगा? गांधीजी ने स्पष्ट कहा था कि कम से कम ब्रिटेन की तरह तो हम विकास का रास्ता अपना ही नहीं सकते और न ही पश्चिम की तरह। क्योंकि, ब्रिटेन, जहां 2-4 करोड़ की भी आबादी नहीं है, हमारे एक प्रांत से भी छोटा है। महात्मा गांधी ने कहा कि भारत बड़ा देश है। बड़ी आबादी है। हमको पश्चिम की तरह संपन्नता, वह जीवन शैली, वैसी भौतिकता हासिल करने के लिए दुनिया छोड़ दीजिए, ना जाने कितने नक्षत्रों को गुलाम बनाना होगा।

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पंडित जवाहर लाल नेहरू के जो सबसे अच्छे बायोग्राफर (Walter Crocker) माने जाते हैं, जो दो बार भारत में ऑस्ट्रेलिया के हाई कमिश्नर भी रहे, उनके द्वारा लिखित बायोग्राफी (Nehru: A Contemporary’s Estimate) में भी साफ तौर से लिखा हैै कि नेहरू जी की सबसे बड़ी गलती रही कि उन्होंने पश्चिम के विकास का मॉडल चुना। एचवी कामत ने भी अपनी पुस्तक में पंडित जी के अंतिम दिनों के बारे में लिखा है। उन्होंने लिखा है कि कहीं न कहीं उनको अहसास था कि उनसे बड़ी भूल हुई है। अब हम बहुत आगे निकल आए हैं। अब दुनिया बहुत बदल चुकी है।

1975 में जेडी सेठी ने किताब लिखी इंडिया इन क्राइसिस। तब उन्होंने कहा था कि भारी संकट आने वाला है। सभी ने परंपरागत रास्ते को भारत के विकास का मार्ग बताया।

आज चीन के अवसर को लेकर चर्चा हो रही है। हिमायलन ब्लंडर किताब हर भारतीय को पढ़ना चाहिए। उसमें पता चलेगा कि हमने क्या गलतियां कीं, चीन को लेकर। भारत कितने बड़े अवसरों से चूका।

मैं मानता हूं लोकतंत्र से अच्छी व्‍यवस्था दुनिया में कोई है नहीं। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद (लोकसभा और राज्यसभा) या विधानमंडल (विधानसभा और विधानपरिषद) के सब नेताओं का यह दायित्व है कि आने वाले दुनिया की तस्वीर देख सकें, आंक सकें, और उसके अनुसार अपने देश को ताकत के साथ खड़ा कर सकें, ताकि दुनिया के मुकाबले हम खड़े रह सकें। और कहीं न कहीं इस काम में चूक हुई है।

मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि हमने पहले भी बड़ा अवसर खोया है। अब आज उस अवसर का इस चुनौती (कोविड-19 के) में, भारत कैसे दुनिया का नेतृत्व कर सके, भारत कैसे अलग मॉडल के साथ आ सके, इसकी चिंता बड़े स्तर पर हो रही है। जो आज सत्ता में हैं वह भी कर रहे हैं। लेकिन समाज करे, एक-एक आदमी इसमें शरीक हो, यह काम होना चाहिए।

प्रश्न : जनता की समस्‍याओं के समाधान में नताओं की जो भूमिका उनकी होनी चाहिए थी, वह भूमिका निभाने में वह किस हद तक अब तक सफल साबित हो रहे हैं और आगे उनकी ओर से क्‍या किया जा सकता है?

उत्तर: लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार और राजनीतिक दल ही रहनुमा होते हैं। इसको यदि हम इस रूप में देखें कि जैसे केंद्र सरकार ने जिस रूप में चुनौतियों का सामना किया है, वह दुनिया कह रही है उल्लेखनीय है। हमारी राज्य सरकारों ने भी जिस रूप में चुनौतियों का सामना किया है, प्रयास पूरा किया। लेकिन हमारी आबादी भी दुनिया में दूसरे नंबर की है।

आज जब इकोनॉमिक डेवलपिंग मॉडल पर चर्चा करें तो भारत के मुकाबले चीन का क्षेत्रफल तीन गुना है। अमेरिका की आबादी 30-32 करोड़ है, लेकिन उसका क्षेत्रफल हमसे पांच गुना है। जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से हमारे कई इलाके, कई राज्य दुनिया के बड़े देशों से अधिक हैं। तो हमारी चुनौतियां किस रूप में बड़ी हैं दुनिया से, यह विचारणीय है। सबसे अच्छी बात रही कि अपने पॉलिटिकिल डिफरेंसेज को अलग-अलग रखते हुए लोगों ने राष्ट्रीय चुनौती को एक साथ स्वीकार किया।

दूसरी सबसे बड़ी चुनौती राजनीतिक नेतृत्व वर्ग के लिए देखता हूं कि भविष्य के लिए उन्हें कुछ बोल्ड कदम उठाने पड़ेंगे। पहला बोल्ड कदम यह होगा कि सरकारें चाहें राज्यों की हों या अन्य जगहों की, केंद्र और राज्य मिलकर डेवलपमेंट को पहला मुद्दा बनाएं। डेवलपमेंट को पॉलिटिक्स से अलग करना होगा। अगर नहीं करेंगे तो उसकी बड़ी चुनौतियां हैं, बल्कि मैं यह भी कहना चाहूंगा कि रक्षा की भी चुनौती इससे जुड़ी हुई है।

आज भारत के नौजवानों को रोजगार चाहिए। आज की दुनिया में, जो दुनिया 70-80 के दशक से बदलनी शुरू हो गई थी, उसमें अर्थ, व्यवसाय और विकास सबसे महत्वपूर्ण बन गए हैं। उस पैमाने पर भारत के लोगों को विकास का रास्ता मिलकर अपनाना होगा, जिससे भारत कम समय में विकसित होकर दुनिया के सामने अपनी आर्थिक ताकत के साथ स्वाभिमान से खड़ा हो सके और उसका नारा सरकार ने जो दिया है, उसको मैं मानता हूं कि राजनीति की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए।

आत्मनिर्भर भारत। यही गांधी ने कहा था। उसके रास्ते कैसे हों, इस पर हमारी बहस हो सकती है। लेकिन यह हमें करना ही होगा। क्यों करना होगा हमें मिलकर? मैं आपको छोटी सी बात बताता हूं।

मैंने देखा 2 से 4 जुलाई तक 72 घंटों के लिए देश भर की कोयला खदानों में स्ट्राइक हुई। मजदूरों ने की। उनको लग रहा है कि कोयला खदानों का निजीकरण हो रहा है। वह अलग समस्या है। पर आज की तारीख में वास्तविक स्थिति यह है कि डेढ़ लाख करोड़ रुपए का कोयला आप बाहर से खरीद रहे हैं। आपके पास कोयले का चौथा सबसे बड़ा भंडार है, जो कुछ दिनों में खत्म हो जाएगा। खराब हो जाएगा। उसकी कोई उपयोगिता नहीं बचेगी, क्योंकि दुनिया ऊर्जा का कोई दूसरा विकल्प ढूंढ़ लेगी। तो आज इस डेढ़ लाख करोड़ रुपए से भारत के अंदर की ताकत को मजबूत बनाएं। अपने यहां का कोयला निकालें या बाहर से खरीदें, यह देश को सोचना होगा।

क्या राष्ट्रीयकरण इसके लिए था? मैं पहले जिस इलाके में काम करता था, वहां बहुत कोयला खदानें थीं। मैंने सर्वे कराकर छापा था कि कोयला खदान से जुड़े कर्मचारियों की कॉलोनियों पर 25 हजार अवैध लोगों ने कब्जा कर लिया था। मजदूरों की यूनियन के एक-एक नेता ने 200-200 फ्लैट्स पर कब्जा कर रखा था। यानी वे क्वार्टर हैं सरकार के, लेकिन रेंट वसूल रहे हैं नेता। क्या यह व्यवस्था चल सकती है?

इसी तरह मैं दूसरी बात आपको कहना चाहूंगा कि हमारे यहां आपने देखा कि चीन से तनाव बढ़ा तो हथियार हम बाहर से खरीद रहे हैं। बराबर खरीदते रहे हैं। लेकिन एक बात मुझे समझ नहीं आई और इस बात पर पूरी दुनिया में चर्चा होनी चाहिए। भारत में 41 ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियां हैं। नौ प्रशिक्षण केंद्र हैं। तीन क्षेत्रीय मार्केटिंग केंद्र हैं। चार क्षेत्रीय सुरक्षा नियंत्रक हैं। 80 हजार कर्मचारी हैं। यह सब अंग्रेजों ने व्यवस्था बनाई थी। मैं रक्षा समिति में लगातार कई वर्ष रहा। खंडूरी (भुवन चंद्र) जी हमारे चेयरमैन होते थे। मैं बार-बार चीन से लगे बार्डर से जुड़े सवाल उठाता था। उस समिति में कई वरिष्ठ सदस्य थे। पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ाजी, अंबिका सोनीजी, आनंद शर्माजी, सुब्रह्मण्यम स्वामीजी…।

बताया गया कि चीन की व्यवस्था अलग है, हमारी अलग है। तब मैंने कहा था कि मुकाबला तो आपका चीन से होगा किसी न किसी दिन। वे व्यवस्थाएं तो आपको चुनौती देंगी। आप व्यवस्था की बात कर रहे हैं। मैं हमारी सुरक्षा के लिए आपकी तैयारी की बात रख रहा हूं। मेरा कहना है कि हमारे यहां इतनी चीजें हैं, लेकिन हम शुरू से बाहर से हथियार खरीद रहे हैं। हथियारों की खरीद में ही सबसे ज्यादा पैसा बाहर जाता है। तो हमने क्यों ऐसी नीति अपनाई? चीन 1955 से सीधे आपकी जमीनें ले रहा है। यह डॉक्‍युमेंटेड है। जेपी दलवी की किताब में।

तो उन फैक्ट्रियों को क्यों नहीं मजबूत बनाते कि हम दुनिया में हथियार बेच सकें? या तो गांधी का रास्ता अपना लें, कि हम बनाएंगे ही नहीं। यदि दुनिया के साथ होड़ में रहना है तो आप बाहर नहीं जा सकते। आप क्यों हथियार बाहर से खरीदते रहे अब तक? कम से कम इस सरकार ने मेक इन इंडिया की बात की है। मेरा कहना है कि मेक इन इंडिया 1948 में होना चाहिए था।

तो हमारा रास्ता क्या होगा? हम कैसे रहेंगे? वे सारे मुद्दे आज हमारे सामने खड़े हैं। जिन पर हम पार्लियामेंटेरियन, सरकारों, राजनीतिक दलों को सोचना होगा।

इंटरव्‍यू का अनएडिटेड वीडियो (पार्ट-2) यहां देखें:

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