महाभारत महागाथा है युद्ध की। कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध को धर्म की पुनर्स्थापना के लिए जरूरी बताते हुए गीता का उपदेश दिया गया। लेकिन इसी महागाथा में एक किरदार ऐसा भी है जो हमेशा युद्ध के खिलाफ रहा। कृष्ण के बड़े भाई बलराम एकमात्र वैसे नायक थे जिन्होंने महाभारत की धुरी बनी द्युत-सभा के लिए धर्मराज युधिष्ठिर को भी दुर्योधन के बराबर ही जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने पांडवों की पक्षधरता रखने के बजाए कौरवों और पांडवों के बीच दुश्मनी खत्म करने का प्रयास किया। जो युद्ध और खास समूह की पक्षधरता के खिलाफ होता है वो मनुष्यता और सहजीवन में यकीन रखता है। बलभद्र, हलधर कहलाने वाले बलराम आज कृषक समुदाय के बीच पूजे जाते हैं। धरती और उसकी उर्वरता के साथ जुड़ा कृषक समुदाय प्रतीक होता है पालक और निष्पक्षता का। कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान के उलट खेतों और खलिहानों में लोकगीत बनकर फूटने वाले बलराम के किरदार पर बेबाक बोल।
मुझे सारी जिंदगी इस बात पर गर्व रहेगा कि दुर्योधन मेरा शिष्य था…। यह संवाद महाभारत में उस जोड़ी में से एक का है जो कृष्ण के साथ बनती है। बलराम महाभारत में किनारे खड़े वह किरदार हैं जिनका नायकत्व मुखर नहीं है। महाभारत में यह संदर्भ है भीम और दुर्योधन के बीच गदा-युद्ध का जिसमें बलराम नियमों को नकारने वाले शिष्य भीम पर शर्मिंदा होते हैं।
गदा-युद्ध से प्रसंग शुरू करने का उद्देश्य बलराम के निष्पक्ष रूप को सामने लाना है। धर्म की पुनर्स्थापना के लिए अधर्म को भी आधार बना लेने वाले नायकत्व को स्थापित करने वाले महाभारत में निष्पक्षता मूल्यहीन सी खड़ी दिखती है। समय के चक्र के साथ उसकी यही मूल्यहीन पहचान आगे बढ़ाई जाती है। कुरुक्षेत्र में हर युद्धविरोधी सुर किनारे कर दिया जाता है तो आज दुनिया के ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में भी सत्ता के खिलाफ उठे सवाल को देश के खिलाफ करार दिया जाता है।
भारतवर्ष के राजाओं में से महज दो ने महाभारत के युद्ध में हिस्सा नहीं लिया था। एक बलराम और दूसरे रुक्मिणी के भाई रुक्मिण। महाभारत में बलराम ही एकमात्र ऐसे चरित्र हैं जो हमेशा अपना निष्पक्ष रूप दिखाते हैं। उन्होंने भीम और दुर्योधन दोनों को गदा-युद्ध सिखाया तो दोनों में कोई भेद नहीं किया। वही भेद जो द्रोण ने अर्जुन के लिए किया था। अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने की रणनीति में कर्ण और एकलव्य जैसे उसके संभावित प्रतियोगियों की प्रतिभा नष्ट करने का उन्होंने पूरा जतन किया। अर्जुन के मुकाबले खड़े हुए एकलव्य का अंगूठा ही मांग लिया।
वहीं बलराम ने इस बात की परवाह नहीं की कि आने वाला वक्त पांडवों का है तो सजग रूप से उनके साथ रिश्ते बेहतर किए जाएं। उनके लिए इतना ही काफी था कि दुर्योधन में अच्छा गदा-योद्धा बनने की ललक थी और वह इसके लिए परिश्रम करता था। वे हमेशा कौरवों और पांडवों के बीच भाईचारा बनाने की पूरी कोशिश करते हुए दिखते हैं। बलराम ही एकमात्र व्यक्ति हैं जो द्युत-सभा के लिए युधिष्ठिर को भी दुर्योधन के बराबर का ही दोषी ठहराते हैं।
महाभारत का युद्ध चरम पर है। कौरव खेमे के सारे महारथी मारे जा चुके हैं। अब अकेला दुर्योधन बचा है। कृष्ण की वजह से दुर्योधन की जंघा वज्र जैसी नहीं बन पाई थी और उसके शरीर के एकमात्र इस हिस्से को ही खतरा था। ऐसे में शकुनि बलराम को संदेश भेजते हैं कि हमारे साथ छल हो रहा है। बलराम कृष्ण से कहते हैं कि धर्म की स्थापना अधर्म से होगी तो समय के पन्नों पर यह दर्ज होगा और भविष्य में तुम सवालों और आलोचना के घेरे में रहोगे। तुम्हारी पक्षधरता ही तुम्हारे विपक्ष का काम करेगी।
युद्ध में धर्म की स्थापना के लिए अधर्म का सहारा लेकर तुम गलत कर रहे हो। शेषनाग के अवतार के रूप में मैं तुम्हारा सेवक हूं। लेकिन मनुष्य रूप में रावण ने अपना काम किया तो राम ने भी अपना काम किया। भीष्म से लेकर अन्य योद्धाओं की हत्या की याद दिलाते हुए बलराम कृष्ण से अनुरोध करते हैं कि कुरुक्षेत्र के मैदान में वे पांडवों के प्रति अपनी पक्षधरता त्याग दें और दोनों पक्षों को नियमों के साथ युद्ध करने दें।
कृष्ण बलराम से उनकी बात मानने का वादा करते हैं। इसलिए दुर्योधन और भीम के अंतिम गदा युद्ध में बलराम निर्णायक बनने का फैसला करते हैं। निर्णायक के रूप में वो दोनों पक्षों को स्वीकार्य भी थे। गदा-युद्ध के नियमानुसार कमर के नीचे वार नहीं किया जा सकता है। इसलिए दुर्योधन अपनी कमजोर जंघा को लेकर निश्चिंत था। जब युद्ध शुरू होता है तो दुर्योधन भीम पर हावी हो जाता है।
एकबारगी तो लगता है कि दुर्योधन के हाथों भीम की मौत तय है। तभी कृष्ण अर्जुन को इशारा करते हैं कि भ्राता भीम को उनकी प्रतिज्ञा याद दिलाओ कि दुर्योधन की जंघा तोड़नी है। नियमों के खिलाफ होने के कारण अर्जुन ऐसा करने से इनकार कर देते हैं। फिर कृष्ण ही भीम को जंघा पर वार करने का इशारा करते हैं। यह अधर्म देख बलराम नाराज होकर चले जाते हैं। उसी वक्त वे कहते हैं कि भीम जैसे शिष्य के लिए हमेशा शर्मिंदा रहेंगे।
बलराम महाभारत का युद्ध खत्म होने के बाद किसी भी उत्सव में हिस्सा नहीं लेते हैं। एकमात्र बलराम ही नायकत्व के असल गुणों से भरे चरित्र के रूप में दिखते हैं। उनकी शांतिपसंद छवि महाभारत जैसे सामंती समाज के लिए किसी काम की नहीं थी।
कृष्ण और बलराम की जोड़ी को एक आदर्श रूप माना गया है। कृष्ण अवतार हैं विष्णु के तो बलराम शेषनाग के। लेकिन दोनों का परिप्रेक्ष्य अलग है। पक्षधरता व नीति-अनीति के सवाल पर दोनों आमने-सामने हो जाते हैं। महाभारत में बलराम का बहुत ज्यादा वर्णन नहीं किया गया है। उनकी निष्पक्षता उन पर युद्ध का रोमांच नहीं चढ़ने देती है। इसलिए वे महाभारत की पूरी पटकथा से बेदखल से दिखते हैं।
महाभारत के समय से युद्ध का जो महिमामंडन किया जा रहा था उसमें बलराम महात्मा गांधी की तरह अहिंसात्मक हस्तक्षेप कर रहे थे। प्राचीन भारत के इतिहास के पन्नों को पलटेंगे तो बलराम के अस्त्र को हल और मूसल के साथ दिखाया गया है। ये दोनों अस्त्र खेती से यानी जीवन के उपहार से जुड़े हुए हैं। युद्ध विरोधी बलराम कुरुक्षेत्र नहीं बल्कि भारत के खेत से जुड़ कर हलधर बन जाते हैं।
आज भी देश के कई हिस्सों में बलराम पालक की भूमिका में पूजे जाते हैं। शेषनाग धरती को धारण करते हैं। वे धरती की उर्वरता, जीव-जंतु और उनके पालन-पोषण से जुड़े हैं। यही काम विष्णु का भी है। ब्रह्मा जीवन देने वाले हैं। यहां पालक की भूमिका बलराम में दिखाई देती है। हल और मूसल उनका प्रतीक है जो हथियार बन जाता है। खेती-किसानी में यह तत्व आज तक बना हुआ है। भारत के कई हिस्सों के कृषक समुदाय में बलराम सबसे पूज्य हैं। वे खेती-किसानी के मुहावरों, लोककथा और लोकगीतों में बसे हुए हैं।
बलराम को पूजने वाला किसान वह वर्ग है जो आज भी सत्ता का पक्षधर नहीं। वह अपना कर्म करते हुए निष्पक्ष बना रहता है। मानो वहीं पर उसका परम संतोष है। जो जिम्मेदारी मिली है, बस पूरी ताकत और ईमानदारी से उसका पालन करना है। यह वर्ग नीति-अनीति, व धर्म-अधर्म के शास्त्रार्थ को ज्यादा तवज्जो नहीं देता। किसानों का पूरा चरित्र ही निष्पक्षता वाला है।
किसानों में मेहनत करने की ताकत के साथ गुण है जीवन से जुड़ने का। कैसे दूसरों को जीवन दें और उसका पालन करें। इसीलिए वह अन्नदाता भी कहलाता है। हमारे देश में जवान (सेना) के साथ किसान की भी जयकार की गई है। हलधर की पूजा करने वाले देश के किसानों का असल युद्धक्षेत्र तो उसका खेत ही है। इन किसानों का सरहद के जवानों से भी नाता है।
आज भी देश की सुरक्षा के लिए सबसे ज्यादा जवान, किसानों ने ही दिए हैं। इसलिए यह वर्ग बलराम की तरह युद्ध से अलग रहकर निष्पक्षता से अपना कर्म करता है। हलधर और उसका पूजक किसान वर्ग आज भी दुनिया को संदेश देते दिखते हैं कि वही देश सबसे मजबूत होता है जहां सेना को बैरक से निकलने की कम से कम जरूरत होती है।
महाभारत में बलराम की भूमिका वैसे ही कमतर की गई है जैसे आज के समय में युद्धोन्मादी देशों ने गुटनिरपेक्ष विचारधारा को हाशिए पर धकेला है। नीति और अनीति के संघर्ष में निष्पक्षता का कोई मूल्य नहीं होता। मूल्य तो पक्षधरता से ही तय हो सकती है। तभी युद्ध के पक्षधरों के लिए बलराम का कोई मूल्य नहीं है।