जयंतीलाल भंडारी
पिछले कुछ समय में बैंकों के डूबने की घटनाओं ने बैंकिंग प्रणाली की निगरानी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा कर दिया है। पिछले महीने तमिलनाडु के निजी क्षेत्र के लक्ष्मी विलास बैंक (एलवीबी) और महाराष्ट्र के जालना जिले में मंता अर्बन कोआॅपरेटिव बैंक से लेकर यस बैंक और पंजाब एंड महाराष्ट्र कोआॅपरेटिव (पीएमसी) बैंक के मामले बता रहे हैं कि भारत में बैंकों के निगरानी तंत्र को भी अब निगरानी की जरूरत है। बैंकों का भट्ठा बैठने की घटनाओं से देश के करोड़ों बैंक ग्राहकों के मन में यह पहला सवाल यही उठता है कि आखिर बैंक में उनका पैसा सुरक्षित है भी या नहीं?
पिछली घटनाओं से सबक लेते हुए और बैंकों पर लोगों का भरोसा रहे, इसके लिए इस बार भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) ने एलवीबी के सिंगापुर के डीबीएस बैंक इंडिया में विलय की संपूर्ण प्रक्रिया को जल्द ही पूरा कर दिया, ताकि खाताधारकों को लेनदेन में कोई समस्या न आए। एलवीबी के इस सौदे के जरिए बैंकिंग क्षेत्र को दो कड़े संदेश दिए गए हैं। एक, रिजर्व बैंक बीमार एवं कुप्रबंधन के शिकार निजी बैंकों के जमाकतार्ओं को बचाने के लिए अब सार्वजनिक बैंकों की बजाय विदेशी बैंक की अनुषंगी इकाई इस्तेमाल को प्रोत्साहित कर सकता है और दूसरा यह कि कुप्रबंध और अनियमितता करने वाले बैंकों के प्रवर्तकों एवं निवेशकों को बिना लाभ दिए बाहर किया जा सकता है। लेकिन फिर भी अभी रिजर्व बैंक की निगरानी और नियामक व्यवस्था पर सवाल उठने कम नहीं हुए हैं।
गौरतलब है कि 17 नवंबर से केंद्र सरकार ने एलवीबी पर बैंकिंग लेनदेन के लिए एक महीने के लिए पाबंदी लगाई थी। फिर 25 नवंबर को केंद्र सरकार ने आरबीआइ को बैंकिंग निगरानी व्यवस्था दुरस्त करने की नसीहत देते हुए डीबीएस बैंक आॅफ इंडिया लिमिटेड के साथ संकटग्रस्त एलवीबी के विलय को मंजूरी दी। इसके बाद 30 नवंबर को एलवीबी की डीबीएस बैंक इंडिया में विलय की प्रक्रिया पूरी भी कर ली गई।
सरकार और रिजर्व बैंक ने बैंकिंग नियमन कानून, 1949 की धारा 45 में विशेष अधिकारों के तहत एलवीबी का डीबीएस बैंक इंडिया में विलय किया है। इसके बाद एलवीबी पर लगाई गई बैंकिंग लेनदेन संबंधी पाबंदियां हटा ली गईं। इस विलय से एलवीबी के जमाकतार्ओं, ग्राहकों और कर्मचारियों को बड़ी राहत मिली है और इसकी सभी शाखाओं, डिजिटल माध्यमों व एटीएम का परिचालन सामान्य हो गया। एलवीबी का विलय जिस डीबीआईएल में हुआ है वह कोई विदेशी बैंक न होकर डीबीएस की भारतीय अनुषंगी है। लेकिन बैंकों में पैसा सुरक्षित रहने को लेकर जो भय लोगों के मन में बनने लगा है, क्या उसे इतनी आसानी से खत्म किया जा सकता है?
दुनिया की विभिन्न वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने संकटग्रस्त एलवीबी का डीबीएस बैंक आॅफ इंडिया लिमिटेड के साथ विलय किए जाने के फैसले की तारीफ की है। मूडीज के मुताबिक इस विलय से जहां एलवीबी के जमाकतार्ओं में धन की सुरक्षा संबंधी विश्वास बनेगा, वहीं डीबीएस को भारत में अपनी डिजिटल रणनीति के साथ पारंपरिक शाखा बैंकिंग को संपूर्ण बनाने में मदद मिलेगी और डीबीएस की व्यावसायिक हैसियत मजबूत होगी। डीबीएस को नए खुदरा और छोटे एवं मध्यम आकार के ग्राहक जोड़ने में मदद मिलेगी।
एलवीबी की आर्थिक हालात पिछले तीन साल से लगातार बिगड़ती जा रही थी।
बैंक को लगातार घाटे का सामना करना पड़ रहा था। एलवीबी सही ढंग से कामकाज चला पाने में अक्षम साबित हो रहा था। इसके अलावा अपने कॉरपोरेट ग्राहकों के पीछे भागने की रणनीति के कारण लगातार कर्ज में फंसता गया। इतना ही नहीं, एक उपयुक्त योजना के बगैर और बढ़ती गैर निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) के कारण बैंक का घाटा लगातार बढ़ता गया। एलवीबी की मुश्किलें खासतौर से पिछले साल सितंबर में उस समय से शुरू हो गई थीं, जब रिजर्व बैंक ने इंडिया बुल्स हाउसिंग फाइनेंस के साथ विलय के एलवीबी के प्रस्ताव को खारिज कर दिया और एलवीबी को त्वरित कार्रवाई (पीसीए) में डाल दिया था। पीसीए फ्रेमवर्क में डाले जाने की वजह से बैंक न तो नए कर्ज जारी कर सकता था और न ही नई ब्रांच खोल सकता था।
यदि हम पिछले एक-दो वर्षों में विभिन्न बैंकों कि विफलताओं को देखें, तो पाते हैं कि वित्तीय गड़बड़ी की स्थितियां लगभग एक जैसी ही हैं। इन सभी संस्थाओं की वित्तीय स्थिति खराब होती गई और एनपीए बढ़ते गए। इंफ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेंशियल सर्विसेज, पंजाब ऐंड महाराष्ट्र कोआॅपरेटिव बैंक, दीवान हाउसिंग फाइनेंस कॉपोर्रेशन लिमिटेड, येस बैंक और अब एलवीबी इन सभी मामलों में आरबीआइ के निगरानी तंत्र पर सवाल उठाए गए हैं। यह चिंताजनक है कि एक ओर पीएमसी बैंक के मामले में रिजर्व बैंक समय पर धोखाधड़ी का पता ही नहीं लगा पाया, वहीं इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेंशियल सर्विसेस, येस बैंक और एलवीबी के मामले में रिजर्व बैंक ने लंबे समय तक समस्या को सुलझाने में कोई फुर्ती नहीं दिखाई। यह भी उल्लेखनीय है कि येस बैंक के मामले में बैंक प्रबंधन द्वारा बार-बार पूंजी जुटाने के प्रयासों पर भी रिजर्व बैंक की आंखें नहीं खुलीं।
एलवीबी की विफलता के बाद एक बैंकों के जमाकतार्ओं के मन में यह विचार जरूर आ रहा होगा कि वे अब पैसे को किस तरह से सुरक्षित रखा जाए। सरकारी बैंकों में पैसा जमा करना निजी बैंकों की तुलना में ज्यादा सुरक्षित माना जाता है। चूंकि निजी बैंकों का मालिकाना हक निजी हाथों में होता है, ऐसे में अगर निजी बैंक डूबता है तो उसकी भरपाई के लिए वित्तीय संसाधन भी सीमित होते हैं। जबकि सरकारी बैंक सरकार के अधीन होते हैं। इसलिए सरकारी बैंक डूबने की सूरत में उसे बचाने या ग्राहकों को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए सरकार के पास असीमित वित्तीय संसाधन और विकल्प मौजूद होते हैं और सरकार इन्हें बचाने की पूरी कोशिश करती है। साल 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद किसी भी सरकारी वाणिज्यिक बैंक को नाकाम नहीं होने दिया गया।
वाणिज्यिक बैंक की बैलेंस शीट में जब भी भारी कमियां नजर आईं तब आरबीआइ ने उसके लिए रणनीतिक सुरक्षा घेरा खड़ा कर दिया और बैंक जमाकर्तार्ओं के हितों और बैंक को प्रणालीगत संकट से बचाने के उद्देश्य से सार्वजनिक बैंक में विलय करने की रणनीति को अपनाया। लेकिन मुद्दा केंद्रीय बैंक के निगरानी तंत्र की लापरवाही से जुड़ा है। इसी वजह से बैंकों में होने वाली बड़ी गड़बड़ियों को समय रहते रोका नहीं जा सक। वरना नीरव मोदी और ऐसे अन्य कर्जदार कैसे हिम्मत कर पाते कि बैंकिंग व्यवस्था को ठेंगा दिखाते हुए हजारों करोड़ का गोलमाल करते रहें और बैंक खोखले होते चले जाएं।
इसलिए अब वक्त आ गया है जब रिजर्व बैंक की निगरानी व्यवस्था की भी समीक्षा हो और उसकी खामियां दूर की जाएं। इसमें कोई संदेह नहीं कि केंद्रीय बैंक के पास सरकारी और निजी क्षेत्र के बैंकों और वित्तीय संस्थानों की निगरानी के लिए पर्याप्त अधिकार हैं, लेकिन अगर इसके बावजूद एलवीबी तथा अन्य बैंकों के मामले में केंद्रीय बैंक ने अपने अधिकारों का उपयोग नहीं किया और ऐसे हालात बनने दिए कि बैंक डूबने लगे, तो फिर निगरानी तंत्र का क्या मतलब रह गया।
एलवीबी सौदे के बाद आरबीआइ ने जिस तरह की सक्रियता दिखाई उससे यह संदेश जरूर गया है कि अब केंद्रीय बैंक ने बीमार बैंकों को बचाने से संबंधित रणनीति बदल दी है। अब बीमार और कुप्रबंधन के शिकार निजी बैंकों के जमाकतार्ओं को बचाने के लिए सार्वजनिक बैंकों का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। साथ ही निजी क्षेत्र के किसी बैंक के विफल होने पर दूसरे विदेशी बैंकों को भी स्थानीय निगमीकरण के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा। कुप्रबंधन वाले बैंकों के प्रवर्तकों और निवेशकों को बिना कोई लाभ दिए बाहर किया जा सकेगा।