हैदराबाद का नाम भाग्यनगर होना चाहिए…। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पिछले चार सालों से कई राज्यों में चुनाव प्रचार के लिए जा रहे हैं, और उनका पसंदीदा काम नाम बदलने का वादा होता है। अपने राज्य उत्तर प्रदेश में तो वे इसका कीर्तिमान बना चुके हैं। मुगलसराय जंक्शन से लेकर इलाहाबाद तक के नाम बदल दिए गए हैं। अब अगर फैजाबाद आधिकारिक रूप से अयोध्या है तो उसका भारतीयता और राष्ट्रीयता को लेकर एक पूरा सियासी संदेश है।
आज पूरी दुनिया में पहचान की राजनीति की अपनी अहमियत है और उसमें सबसे पहले नाम ही काम आता है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में देश की सबसे बड़ी पहचान बदली जा रही है। लेकिन अफसोस कि उसके नामकरण में कहीं भी भारतीयता नहीं दिख रही है। सरकार का कहना है कि यह इमारत आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर 2022 में तैयार हो जाएगी जो देश की एकता और अखंडता का प्रतीक होगी। लेकिन आजादी के पचहत्तरवें साल बाद भी अंग्रेजों की बनाई इमारत को ध्वस्त करके देश की लोकतांत्रिक भावना के सर्वोच्च स्मारक को क्या एक औपनिवेशिक प्रतीक ही नसीब होगा?
योगी आदित्यनाथ को वो दिन याद होगा जब उन्होंने संसद भवन की इतिहास बनने जा रही इमारत में आंखों में आंसू के साथ भाषण दिया था। लेकिन क्या अब उन्होंने दिल्ली की तरफ देखना बंद कर दिया है? क्या कभी वो दिल्ली आएंगे तो निर्माणाधीन ‘सेंट्रल विस्टा’ का नाम बदलने की हुंकार भर पाएंगे? 2014 के बाद से तो देश में भारतीयता और राष्ट्रीयता को लेकर ऐसा नवजागरण हुआ है कि घर में नया बच्चा आते ही लोग हिंदी और संस्कृत के विद्वानों से संपर्क कर उनसे अपने बच्चे के लिए अपनी सभ्यता-संस्कृति में कोई सुंदर नाम सुझाने की गुजारिश करते हैं। जब लोग अपने बच्चों के नाम को लेकर इतने संवेदनशील हैं तो सरकार संसद भवन के नाम को अंग्रेजों के जमाने वाला क्यों रखना चाहती है?
आज किसी के भी मन में यह सहज और सरल सवाल उठ सकता है कि नए संसद भवन का नाम ‘सेंट्रल विस्टा’ क्यों? यह इमारत देश की राष्ट्रवादी सरकार की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षी योजना है और यह देश की सबसे बड़ी पहचान बनने जा रही है। फिलहाल इस इमारत के निर्माण पर जो विवाद है वो तो अलग है।
लेकिन जिस इमारत की बुनियाद में राष्ट्रवाद के झंÞडाबरदार नेताओं के नाम खुदेंगे, जिसके कंगूरे पर प्रचंड बहुमत वाली हिंदुत्ववादी सरकार के बुलंद सितारे इतराएंगे, जिसकी दीवारों पर देश के पूर्व प्रधानमंत्री की हिंदी की कविताएं लिखी जाएंगी उसके नाम के लिए विदेशी भाषा से उधार क्यों? आज देश में ऐसी पार्टी की सरकार है जो भारतीय सनातनी सभ्यता को अपना आदर्श मानती है। वर्तमान केंद्र सरकार दक्षिण के राज्यों तक में हिंदी को मजबूत बनाने में जुटी है। इस पार्टी के नेता जब हिंदी में बोलते हैं तो गर्व महसूस करते हैं। लेकिन देश के सबसे बड़े निशान और पहचान को अंग्रेजी का नाम देने की क्या मजबूरी है?
भाजपा की सहायक शाखाओं में आज भी स्वदेशी जागरण मंच का नाम गूंजता है जो स्वदेशी की भावना को जगाता है। सरकार जब हर क्षेत्र में ‘वोकल फॉर लोकल’ का नारा लगा रही है तो देश के सबसे बड़े नाम के लिए हिंदी या संस्कृत का कोई शब्द नहीं खोज पा रही है। हिंदी या संस्कृत के शब्दकोश में क्या कमी है? किसी भी सरकार की केंद्रीय योजनाओं के नाम उसकी विचारधारा के नाम वाले नेताओं पर होते हैं।
पिछले सात दशकों के समय तक देश की ज्यादातर परियोजनाएं महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी या राजीव गांधी के नाम पर होती थीं। 2014 के बाद से यही नाम दीनदयाल उपाध्याय से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी को समर्पित होते हैं। गुजरात में सरदार वल्लभ भाई पटेल की विशालकाय मूर्ति भी राष्ट्रवाद का संदेश देने के लिए ही स्थापित की गई। लेकिन देश की सबसे बड़ी परियोजना के नाम पर औपनिवेशिक मानसिकता की दरिद्रता क्यों दिखाई जा रही है। क्या संस्कृत और हिंदी इतनी संपन्न नहीं हैं कि वो देश की संसद को एक नाम दे सकें?
राष्ट्रीयता की पहचान और संस्कृति के यही मायने हैं कि हम औपनिवेशिकता की पहचान से मुक्त हो कर भारतीयता और राष्ट्रीयता की ओर बढ़ना चाहते हैं। औपविनेशिकता के विकल्प में भारतीयता और विविधता में एकता के चिह्नीकरण के लिए संसद भवन से बेहतर और क्या हो सकता है। लेकिन अगर हम अपनी संस्कृति से वो एक नाम भी नहीं ढूंढ पाए तो यह उस महत्त्वाकांक्षा को सीमित कर देगा जिस भाव से इसे बनाया जा रहा है।
फिर यह राष्ट्रीय नहीं एक खास समय की निजी महत्त्वाकांक्षा ही साबित हो जाएगी। इमारत पर तात्कालिक निजी पहचान तो दर्ज हो जाएगी लेकिन सार्वकालिक सामूहिक पहचान गुम हो जाएगी। यह विविधता में एकता वाली भारतीय संस्कृति की स्मृति का स्मारक नहीं बन पाएगा।