युद्ध-पीड़ित क्षेत्रों में बमबारी से बचा हर छठवां बच्चा भुखमरी और कुपोषण की मार झेल रहा है। सबसे ज्यादा नवजात शिशु प्रभावित हो रहे हैं, क्योंकि प्रसूताओं को पर्याप्त भोजन नसीब नहीं है। इस बीच दुनिया के लगभग एक अरब बच्चे जलवायु संकट की चपेट में आ चुके हैं। विश्व भर में, दस से उन्नीस वर्ष के हर सात में से एक बच्चा-किशोर अवसाद में जी रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र बाल कोष की एक नई रपट बताती है कि यूक्रेन पर रूसी सैन्य आक्रमण से प्रतिदिन कम से कम दो बच्चे चपेट में आ रहे हैं। बच्चों को हर दिन करीब छह घंटे भूतल या अन्य भूमिगत स्थानों पर रहना पड़ रहा है। डेढ़ हजार से अधिक शैक्षणिक संस्थान और 660 स्वास्थ्य केंद्र युद्ध में क्षतिग्रस्त या ध्वस्त हो चुके हैं। सर्दी के मौसम में बच्चों को जमा देने वाली ठंड का सामना करना पड़ रहा है।
नार्वेजियन शरणार्थी परिषद (एनआरसी) के मुताबिक, गाजा और यूक्रेन जैसे हिंसा ग्रस्त क्षेत्रों में कक्षाओं में बच्चे सो जाते हैं। पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई के कारण उनका शैक्षणिक प्रदर्शन खराब हो रहा है। यूक्रेन में युद्ध के दौरान 1,072 विश्वविद्यालयी विद्यार्थियों (इनमें 80 फीसद लड़कियां) पर केंद्रित एक अध्ययन में बताया गया है कि जो बच्चे कभी अंतरिक्ष यात्री, फुटबाल खिलाड़ी, वैज्ञानिक और डाक्टर बनने के सपने देखा करते थे, वे अभिघातजन्य नींद की समस्याओं से पीड़ित हैं। उनमें भयावह मानसिक आघात के लक्षण मिल रहे हैं। चिकित्सा क्षेत्र में, गहरे आघात, अनिद्रा, बुरे सपनों के बीच तरह-तरह के लक्षण रेखांकित होते रहे हैं, लेकिन अध्ययनकर्ताओं को वर्तमान जटिलताएं ज्यादा असाध्य लग रही हैं।
युद्ध प्रभावित क्षेत्रों में बच्चों की स्थिति ठीक नहीं
पश्चिमी यूक्रेन, सूडान और गाजा के बच्चों में युद्ध से संबंधित आघात, डर, बुरे सपने, अनिद्रा और अभिघातजन्य तनाव गंभीर रूप लेते जा रहे हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका, स्वीडन, नार्वे, ब्रिटेन और जर्मनी में हुए अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों और शोध के मुताबिक, पीड़ित बच्चों पर केंद्रित मनोवैज्ञानिक परिणाम चौंकाने वाले हैं। अवसाद पीड़ित किशोर-किशोरियों में आत्मघाती विचार जड़ें जमा रहे हैं। विस्थापन की यातनाएं भोग रहे बच्चों और किशोरों को अपने परिवार के लिए रोटी-पानी, चाय और र्इंधन के साथ रसोई गैस के लिए कतारों में छह-छह घंटे खड़े रहना पड़ता है।
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निरंतर हमलों, हिंसा के भय और खतरों का बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर असर हुआ है। विस्थापन ने लाखों बच्चों को अपने परिवारों से अलग कर दिया है। सूडान में युद्ध पीड़ित एक करोड़ चालीस लाख बच्चों को जीवनरक्षक सहायता की जरूरत है। वहां की आंतरिक हिंसा ने दुनिया में सबसे बड़े बाल विस्थापन को जन्म दिया है। गाजा में संघर्ष बढ़ने और यूक्रेन पर रूसी हमले तेज होने से सूडान को भुला देना भी एक त्रासदी है। वहां पैंतीस लाख से ज्यादा किशोर-किशोरियां सुरक्षित स्थानों की तलाश में अपने घरों से भाग गए हैं। पांच साल से कम उम्र के तीस लाख से अधिक बच्चे गंभीर कुपोषण का शिकार हैं। अगर उपचार नहीं मिला, तो सात लाख बच्चे अपनी जान गंवा सकते हैं। दुखद यह भी है कि वहां बड़ी संख्या में बच्चे स्कूलों से वंचित हो गए हैं।
युद्ध के तौर-तरीके बच्चों के मानवाधिकारों का कर रहे उल्लंघन
संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञों का मानना है कि युद्ध के तौर-तरीके बच्चों के मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहे हैं। ऐसे करोड़ों बच्चों का शिक्षा-संकट तो कल्पना से परे हो गया है। अगर बच्चे कुछ सीख-पढ़ नहीं पा रहे हैं, तो युद्ध-पीड़ित देशों में भविष्य का आधार कैसे बनेगा, समझा जा सकता है। शिक्षा, शांति स्थापित करने का एक शक्तिशाली कारक होती है, क्योंकि जब बच्चे कक्षाओं में होते हैं, तो स्वयं को सुरक्षित-संरक्षित महसूस करते हैं। अपने अवचेतन में शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में रहना सीखते रहते हैं। ये ऐसे मूल्य हैं, जिन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता। जिन मूल्यों के साथ बच्चों को जीना चाहिए, उनका पालन-पोषण होना चाहिए, सब नदारद हैं। शिक्षकों और अन्य कर्मचारियों को वेतन तक नहीं मिल रहा है, तो बच्चों की फुलवारी कौन सींचे, यह सबसे बड़ा सवाल है।
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युद्ध और हिंसा पीड़ित देशों से भारी विस्थापन के कारण अछूते क्षेत्र भी इस समस्या की चपेट में आ रहे हैं। एक रपट के अनुसार, पांच वर्ष से कम उम्र के लगभग 40 करोड़ बच्चे, घरों में आक्रामक बर्ताव और शारीरिक दंड का सामना कर रहे हैं। इस बीच यूनिसेफ के मुताबिक, हर आठ में से एक और लगभग 37 करोड़ लड़कियों और महिलाओं को यौन आक्रामकता का सामना करना पड़ रहा है। आनलाइन उत्पीड़न ने तो लगभग 65 करोड़ लड़कियों- महिलाओं का जीना दुश्वार कर दिया है। ये स्थितियां ऐसे करोड़ों घरों के बच्चों का वर्तमान और भविष्य चौपट कर रही हैं।
बालश्रम, मानव तस्करी और यौन शोषण से जूझ रहे 16 करोड़ बच्चे
गंभीर टकरावों वाले क्षेत्रों में रहने को विवश बच्चों की सुरक्षा और शिक्षा के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है। इन बच्चों में इंटरनेट के जरिए बढ़ती कनेक्टिविटी और लगातार बढ़ता आनलाइन दुर्व्यवहार भी भयानक मुद्दा हो गया है। रपट बताती है कि अब भी लगभग 16 करोड़ बच्चे बालश्रम, मानव तस्करी और यौन शोषण से जूझ रहे हैं। उनका मानसिक स्वास्थ्य खराब हो रहा है। ऐसे में नशीले पदार्थों की लत उन्हें आत्महत्या के लिए उकसा रही है।
युद्ध और हिंसक घटनाओं के अनुभवों से गुजर रहे बच्चों और किशोरों में कई तरह के मानसिक आघात के लक्षण पाए गए हैं। मानसिक आघात के बाद उपजे तनाव से ग्रस्त बच्चों को बार-बार बुरे सपने आते हैं। बचपन में ही उन्हें नींद न आने की बीमारी हो रही है। हर वक्त तनाव का सामना करते हुए, खतरे के उच्च स्तर तक वे नींद में भी डरे-डरे पाए जा रहे हैं। अभिघात के लक्षण बच्चों की सीखने की क्षमता को नष्ट कर रहे हैं।
ऐसे 83 अध्ययनों में, लगभग 60 फीसद बच्चे दीर्घकालिक दुस्वप्नों के आघात का शिकार हैं। उनकी सामाजिक समझ का तेजी से लोप हो रहा है। युद्ध और हिंसक झड़पें उनके जीवन पर इतनी अमानवीय छाप छोड़ रही हैं कि उनकी दुनिया जैसे जंगल में तब्दील हो चुकी है। गाजा पट्टी की तो 2007 से सैन्य घेरेबंदी है, जिससे लगभग बीस लाख फिलिस्तीनी बुनियादी जरूरतों से वंचित हो चुके हैं। उनको अब तक चार बड़े युद्धों का सामना करना पड़ा है। इजराइली सैन्य अभियानों से मौत और हिंसा का अकल्पनीय तांडव हुआ है। गाजा में 64 से 67 फीसद बच्चे तनाव झेल रहे हैं।
इस बीच संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, दक्षिण एशिया में अगले वर्ष 2025 में जलवायु और स्वास्थ्य आपदाओं तथा आर्थिक झटकों के कारण लगभग 4.70 करोड़ बच्चों को मानवीय सहायता की आवश्यकता होगी। इस समय भी बाढ़, भूस्खलन, समुद्री तूफान और सूखा आदि से लाखों बच्चे लगातार जलवायु आपदाओं में फंसे पड़े हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं आपात स्थिति से गुजर रही हैं। इससे खासकर बच्चे गंभीर रूप से प्रभावित हो रहे हैं।