कुछ समय पहले राजस्थान में सुबह नौ बजे से शाम सात बजे तक बिना हेलमेट दुपहिया वाहन चलाने वालों के विरुद्ध एकदिवसीय सघन अभियान चलाने का निर्देश दिया गया था।इसमें बिना हेलमेट दुपहिया चलाने पर एक हजार रुपए जुर्माना और लाइसेंस निरस्त करने का प्रावधान रखा गया। समय-समय पर अलग-अलग राज्य अपनी ओर से इस प्रकार के अभियान चलाते रहते हैं जिससे सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों और घायलों की संख्या में कमी आ पाए।
जब हम एक नियम से चलने की कोशिश करते हैं, तब वहीं तक सीमित नहीं रहते। दूसरे नियम को भी मानने की ओर भी अपने आप ही जाने लगते हैं, उसके प्रति प्रतिबद्ध होने लगते हैं। इसके ठीक विपरीत जब एक नियम के प्रति बेपरवाह होते हैं तो दूसरे को भी धता बताने की हिम्मत जुटा लेते हैं। सन 2022 में अकेले छत्तीसगढ़ में ही 5,834 दुपहिया चालकों ने जान गंवाई, जिसमें सत्तर फीसद बिना हेलमेट के वाहन चालक थे।
अगर दुपहिया वाहन चालक हेलमेट के साथ होते तो यह आंकड़ा इतना बड़ा नहीं होता। इन आंकड़ों से हम पूरे देश के बारे में एक अनुमान तो लगा ही सकते हैं। जब यातायात पुलिस इस प्रकार के अभियान चलाती है तो बिना हेलमेट के दुपहिया वाहन चालकों रसीद कटवाते, रास्ता बदलकर पतली गलियों से भागते, बिना रसीद काटे यातायात पुलिस कार्मिकों को जेब गरम करते, चालकों को पुलिस के सामने रिरियाते और रसूखदारों के नाम ले कर छूटते देखा जा सकता है।
कुछ दिनों पहले किराए पर चलने वाली मोटरसाइकिल के चालक से जब सवार ने कहा कि ‘आप हेलमेट लगाइए’ तो चालक ने कहा ‘मुझे अच्छा नहीं लगता हेलमेट लगाना’। इस पर सवारी ने कहा कि ‘तो फिर आप बाइक भी मत चलाएं, कुछ और काम करें’। एक और बार चालक से हेलमेट के बारे में कहा गया तो उसने कहा कि ‘अभी तो सुबह-सुबह कोई नहीं पकड़ता’।
यानी अगर कोई पकड़े तभी हेलमेट लगाना है। इसमें खुद की और अपने साथ बैठने वाली सवारी की सुरक्षा चालक को नहीं लगती है। जबकि जब दुर्घटना होगी तो नुकसान सबसे ज्यादा सवार को ही होना है! यह बात चालक को समझ में नहीं आती। बहुत से चालक इसलिए हेलमेट लगाते हैं कि कहीं उन्हें यातायात पुलिस न पकड़ ले। लोग कब समझ पाएंगे कि नियम उनकी सुरक्षा के लिए हैं। ये नियम व्यवस्था को चलाने में तो मदद करते ही हैं, लोगों को भी सहूलियत देते हैं, परेशानी से बचाते हैं। जितने भी अपराध होते हैं, उनमें अधिकतर स्थितियों में अपराधी यही समझते हैं कि उन्हें कोई नहीं पकड़ेगा या कोई देख थोड़े ही रहा है।
बैंकों, रेलवे स्टेशनों पर लगी पंक्तियों में जब कोई बीच में घुसपैठ करने लगता है तो कई बार बात गाली-गलौच से हाथापाई तक जल्दी ही पहुंच जाती है। कुछ जैसे-तैसे महिलाओं की पंक्ति छोटी होने पर अनुनय-विनय करके टिकट लेने का जुगाड़ करते रहते हैं और जो पुरुष लंबी पंक्ति में खड़े होते हैं, उनकी बारी का समय और बढ़ जाता है।
यानी उनकी असफलता है जो वे किसी महिला के माध्यम से अपना टिकट जल्दी प्राप्त नहीं कर सके। शादियों या होटलों में बुफे व्यवस्था के तहत खाने के दौरान जब लोग पंक्ति में खड़े होते हैं तो कुछ बातचीत करते हुए चुपचाप बीच में घुस कर अपनी जगह बना लेते हैं। अब ऐसे आयोजनों में शर्म के चलते और लोग कुछ कह नहीं पाते। क्या कहें… हमेशा तो ऐसा नहीं होगा न… छोड़िए!
जबकि टोकना भर आदमी को रोकता रहता है। यह मौका आपको तात्कालिक फायदा पहुंचाता है। साथ ही यह मौकापरस्ती आपको एक प्रकार का सुख भी देती है कि कैसे बात ही बातों में दूसरों को मूर्ख बनाकर मौका बना लिया गया। लेकिन ऐसे लोग नहीं जानते कि वे कैमरे की नजर में नहीं, कुछ आंखों की नजर में जरूर आ रहे हैं। वे आंखें उन्हें बेनकाब कर देती हैं और उनके बारे में राय बना लेती हैं कि वे किस शातिरपने से नियमों की धज्जियां उड़ाना जानते हैं।
लोगों को नियमों का पालन करना पसंद नहीं। ऐसे में यह भी पता चलता है कि लोग कोई नियम अपनी ओर से नहीं बना पाएंगे। बनाएंगे तो खुद उसके प्रति प्रतिबद्ध नहीं रह पाएंगे। साथ ही उसकी अवहेलना होने पर कैसी प्रतिक्रिया करेंगे? जब लोग नियमों की अहमियत नहीं समझते, तब वे उन्हें थोपा हुआ समझते हैं और उन्हें तोड़ने की फिराक में रहते हैं।
सोच कर देखा जा सकता है कि आज कोई एक नियम तोड़ता है, कल दूसरा और फिर कल तीसरा। यों नियमों का लगातार तोड़ना किसी व्यक्ति को निरंकुशता की ओर ले कर जाता है। कोई नियम पालन करते देखे, तभी नहीं, बल्कि खुद नियम पर चलना आत्मविश्वासी, संयमित और बेहतर इंसान बनाने की ओर ले कर जाता है। स्थितियों की नब्ज भांपते हुए नियमों में समय के अनुसार फेरबदल किया जा सकता है। तब तक निर्धारित नियमों का पालन करने की अपेक्षा है, जब तक उससे कोई और बेहतर विकल्प न आ जाए।
