हिंदी भाषा सैकड़ों वर्ष पुरानी है। इसकी जड़ें संस्कृत से जुड़ी हुई हैं। 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ था, तब एक बहस छिड़ी थी- क्या हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जा सकता है? अगर सबसे ज़्यादा लोग हिंदी बोलते हैं तो क्या इसे ऐसी मान्यता देना ठीक रहेगा या नहीं?

आजाद भारत में हिंदी को लेकर बहस

लेकिन इसी सवाल ने देश की आने वाले कई सालों की राजनीति तय कर दी। दक्षिण के राज्यों ने हिंदी को स्वीकार नहीं किया। पूर्वोत्तर के राज्य भी विरोध में उतर आए। ऐसे में 1950 में जब देश का संविधान लागू हुआ, तब हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया, राष्ट्रभाषा का नहीं। वहीं संतुलन बनाने के लिए अंग्रेज़ी को भी सह-राजभाषा घोषित किया गया।

दक्षिण भारत में हिंदी के खिलाफ आंदोलन

उस समय संविधान निर्माता यह मानकर चल रहे थे कि 1965 तक अंग्रेज़ी को धीरे-धीरे हटा दिया जाएगा और हिंदी ही मुख्य रूप से बोली जाने वाली राजभाषा बन जाएगी। लेकिन तमिलनाडु को इसकी भनक थी। इसी वजह से वहां पर एक आंदोलन शुरू हो गया, जिसका केंद्र भाषा ही थी। पूरे राज्य में ऐसी धारणा बन चुकी थी कि हिंदी थोपने की एक साज़िश हो रही है और स्थानीय भाषाओं को हाशिये पर लाने की तैयारी है।

इसी वजह से 1965 में डीएमके ने बड़े पैमाने पर छात्रों के साथ मिलकर एक आंदोलन शुरू किया। इसमें हिंसा तक देखने को मिली। उस आंदोलन की नींव इस विचार पर रखी गई थी कि अगर हिंदी को जबरदस्ती थोपा गया तो ऐसी स्थिति में दक्षिण भारत के लोगों को शिक्षा, नौकरी और प्रशासन में जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ेगा और सारा फायदा हिंदी भाषी राज्यों को मिल जाएगा।

मराठी बचाने के लिए भी हिंदी विरोध

अब ऐसा नहीं है कि हिंदी का विरोध सिर्फ दक्षिण के राज्यों में हो रहा हो। कुछ महीने पहले महाराष्ट्र में भी अस्मिता की लड़ाई के नाम पर हिंदी भाषा को निशाने पर लिया गया था। दरअसल, मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस चाहते थे कि राज्य में नई शिक्षा नीति लागू हो, जिसमें हिंदी को भी अनिवार्य कर दिया जाए। लेकिन विपक्षी दलों के नेताओं ने इस फैसले को मराठी भाषा के खिलाफ़ माना और महाराष्ट्र में भी दक्षिण की तरह हिंदी-विरोध की राजनीति को बल मिला।

इसी वजह से जानकार मानते हैं कि वर्तमान में हिंदी एक ऐसी भाषा बन चुकी है, जिसकी अगर पक्ष में बात की जाए तो कुछ राज्यों में वोट मिलेगा और राजनीति चमकेगी। वहीं अगर इस भाषा का विरोध किया जाए, तो ऐसी स्थिति में भी कई राज्यों में विपक्ष की स्थिति और मज़बूत होगी और उन्हें वोट भी मिलेंगे।

राजनीति की सहूलियत- कभी हिंदी कभी कुछ और

जानकार यह भी मानते हैं कि देश के तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी सहूलियत के हिसाब से अपनी पसंद की भाषा चुन ली है और उसके आसपास ही राजनीति करते रहते हैं। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में 121 भाषाएं और 270 मातृभाषाएं हैं। यहां केंद्र सरकार ने 22 भाषाओं को आठवीं अनुसूची में आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया हुआ है। इस सूची में हिंदी, मराठी, असमिया, तमिल, तेलुगू, मलयालम, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, उर्दू, मैथिली और बांग्ला जैसी भाषाएं शामिल हैं। कुछ आँकड़े यह भी बताते हैं कि देश में हिंदी बोलने वालों की संख्या लगभग 53 करोड़ है।

दक्षिण के इस राज्य से लेना होगा सबक

हिंदी का विरोध करने वाले मानते हैं कि अगर केंद्र सरकार ने हिंदी को ही राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया तो ऐसी स्थिति में दूसरी भाषाएं समाप्त हो जाएंगी। लेकिन दक्षिण का ही एक राज्य, आंध्र प्रदेश, इस मामले में अलग दृष्टिकोण रखता है। वहां के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू 10 अलग-अलग भाषाओं को प्रमोट करने की बात कर रहे हैं। वह चाहते हैं कि सभी विश्वविद्यालयों में हर ज़रूरी भाषा को न सिर्फ़ सम्मान मिले, बल्कि उसका ज्ञान भी दिया जाए। इसमें उन्होंने हिंदी को भी शामिल किया है।

लेकिन दक्षिण के बाकी राज्य, जैसे तमिलनाडु और कर्नाटक, दो-भाषा फ़ॉर्मूले पर चलते हैं। वे एक तरफ अपनी स्थानीय भाषा चाहते हैं और दूसरी तरफ अंग्रेज़ी को बनाए रखना चाहते हैं। नई शिक्षा नीति के तहत केंद्र सरकार तीन-भाषा फ़ॉर्मूले पर फोकस कर रही है, जिसमें हिंदी को भी अनिवार्य करने की बात है।

भाषा तो जोड़ती है, यहां कैसे बंट रहे लोग?

लेकिन केंद्र की यह पहल कई राज्यों को पसंद नहीं आ रही। इसका राजनीतिक विरोध शुरू हो चुका है। भाषा को लेकर ही विविधताओं वाला भारत और भी बंटता हुआ दिखाई दे रहा है। लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि महात्मा गांधी कहा करते थे कि ह्लराष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है, इसका सीधा-सा अर्थ था कि वो भाषा जो समूचे राष्ट्र को एकसूत्र में पिरो दे। लेकिन यहां तो भाषा जोड़ने का नहीं समाज को तोड़ने का काम कर रही है, ऐसे में हिंदी का सफर आगे भी चुनौतियां से भरा दिखाई देता है।

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