फिल्मों में काबिल गीतकार उसे माना जाता है जो सीन और सिचुएशन के हिसाब से गाने लिखे। कवि प्रदीप ऐसे ही गीतकार थे। जहां उन्होंने देशप्रेम से भरा ‘ऐ मेरे वतन के लोगों…’ सामाजिक विसंगतियों पर ‘देख तेरे इनसान की हालत क्या हो गई भगवान…’ जैसे गाने लिखे, तो वहीं ‘मैं तो आरती उतारूं रे…’ जैसे धार्मिक गीत भी उतनी ही सहजता से लिखा। हिंदी सिनेमा की पहली सबसे ज्यादा चलने वाली फिल्म ‘किस्मत’ के गीतकार प्रदीप ने धार्मिक फिल्म ‘जय संतोषी मां’ के गाने भी लिखे थे, जिसकी कामयाबी ने ‘शोले’ और ‘दीवार’ जैसी फिल्मों को टक्कर दी थी। गीतकार और गायक कवि प्रदीप की आज 12वीं पुण्यतिथि है।

वाकया 1975 का है। देश की गली-गली में ‘शोले’ के संवादों का एलपी रिकॉर्ड बज रहा था। जनमानस ‘कितने आदमी थे…’ और ‘तुम्हारा नाम क्या है बसंती’ जैसे संवादों को कान लगाए लाउडस्पीकरों पर सुन रहा था। मगर इसी के साथ एक और घटना भी घट रही थी। गांव और शहरों के मुहल्ले की महिलाएं झुंड बनाए ‘जय संतोषी मां’ देखने के लिए निकल रही थीं। इसमें कोई नामी कलाकार नहीं था। छोटे बजट की इस धार्मिक फिल्म में कवि प्रदीप ने गाने लिखे थे, जोे खूब बज रहे थे।

‘शोले’ अपने दौर की सबसे हिंसक फिल्म मानी गई थी, जिसमें डाकू गब्बर प्रतीकात्मक तौर पर गांव के एक युवक को चीटे की तरह मसलता और ठाकुर के हाथ काट देता है। प्रबुद्ध वर्ग इतनी हिंसक फिल्म की खुलकर आलोचना कर रहा था। मगर यही वर्ग ‘जय संतोषी मां’ की अपार सफलता को देखकर हैरान था। वह उसे अंधविश्वास फैलाने वाली फिल्म बता रहा था। इस वर्ग की आलोचना की परवाह किए बिना ‘जय संतोषी मां’ देखने वाली महिलाएं चप्पलें सिनेमाघरों से बाहर निकाल फूल-दूब लेकर फिल्म देखने जा रही थीं। परदे पर संतोषी माता के प्रकट होने पर हाथ जोड़, शीश नवा रहीं थी। नायिका को प्रताड़ित करने पर सुबक रहीं थीं।

‘जय संतोषी मां’ में प्रथम पूज्य भगवान गणेश पूरे परिवार के साथ दिखाए गए थे। रिद्धी सिद्धी उनकी पत्नियां थीं। शुभ-लाभ उनके पुत्र थे। फिल्म में कवि प्रदीप ने छह गाने लिखे थे और सी अर्जुन उसके संगीतकार थे। सभी गाने लोगों की जुबान पर चढ़े। मगर ‘जय संतोषी मां’ की लोकप्रियता यहीं तक सीमित नहीं रही। थियेटरों में कारोबारी सफलता का समाज में विस्तार शुरू हो गया। शुक्रवार के दिन संतोषी माता का व्रत रखा जाने लगा। गुड़-चने का प्रसाद चढ़ने लगा और खट्टे से परहेज किया जाने लगा। इससे पहले संतोषी माता की पूजा और व्रत का इतना चलन नहीं था।

बाद में इस लोकप्रियता का भी विस्तार होने लगा और संतोषी माता के नाम से पोस्ट कार्ड लिखे जाने लगे। इन पोस्टकार्ड में लिखा होता था कि संतोषी माता के नाम से 101 पोस्टकार्ड लिख कर बांटने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं। कार्ड पढ़ने के बाद न बांटने पर नुकसान का हवाला भी दिया गया। लंबे समय तक कार्ड बांटने का चलन चला। हिंदी सिनेमा के इतिहास में किसी फिल्म के समाज पर होने वाले असर का ऐसा उदाहरण दुर्लभ है।

यह अलग बात है कि इतनी बड़ी कामयाबी मिलने के बावजूद इस फिल्म के कलाकारों आशीष कुमार और कानन कौशल का करियर परवान नहीं चढ़ पाया। फिल्म के निर्माता सतराम रोहरा और निर्देशक अजय शर्मा भी फिर ऐसी कामयाबी नहीं दोहरा पाए। इसके बाद कवि प्रदीप खूब धार्मिक फिल्में मिलीं। उन्होंने ‘जय संतोषी मां’ के बाद धार्मिक पौराणिक फिल्में-‘शिव गंगा’, ‘वीर भीमसेन’, ‘जय बाबा अमरनाथ’, ‘सती और भगवान’, ‘छठ मैया की महिमा’, ‘कृष्ण सुदामा’, ‘करवा चौथ’, ‘बजरंग बली’ जैसी फिल्मों में गीत लिखे। मगर उनकी इमेज देशप्रेम से भरे गीत लिखने वाले गीतकार की ही रही।