हरियाणा इस समय एक चुनावी समर से गुजर रहा है, सियासी युद्ध कई पार्टियों के बीच में छिड़ा हुआ है। आरोप-प्रत्यारोप देखने को मिल रहे हैं, बड़े-बड़े वादों की झड़ी लग रही है और हर कोई बस हरियाणा की जनता को मनाने की कोशिश कर रहा है। सभी को जाटों का वोट चाहिए, किसानों का वोट चाहिए, पिछड़ों का वोट चाहिए। उसी को हासिल करने के लिए हर पार्टी तमाम समीकरण भी साधती दिख रही है।
लेकिन जिस हरियाणा की धरती पर आज हम यह सियासी युद्ध देख रहे हैं, इतिहास के पन्ने टटोलने पर पता चलता है कि यह सही मायनों में एक ‘युद्धभूमि’ ही रही है। एक ऐसी युद्धभूमि जो कई बार देश के वीर सपूतों के लहू से, कई बार आक्रांताओं के खून से लाल हो चुकी है। इस हरियाणा धरती का इतिहास हजारों साल पुराना है, युद्ध से उसका नाता भी उतना ही पुराना चला आ रहा है। महाभारत काल में पांडवों और कौरवों का युद्ध हो, कलयुग में पानीपत और दूसरे बड़े संग्राम हों, इस हरियाणा की भूमि ने सबकुछ देखा है। अब इस चुनावी और सियासी युद्ध के बीच आपको बताते हैं कि हरियाणा असल में कितने युद्धों का गवाह बन चुका है।
महाभारत का युद्ध
हरियाणा का कुरुक्षेत्र उस महाभारत का गवाह बना था जहां पर कौरवों को हराकर, पांडवों को मार्ग दिखाकर भगवान श्री कृष्ण ने धर्म की स्थापना की थी, सत्या को विजयी करवाया था। 18 दिन तक चले उस भीषण युद्ध ने हर झूठ, हर फरेब, हर छल को हराने का काम किया था। बड़ी बात यह रही कि इसी कुरुक्षेत्र की धरती से भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था, उन्हें कर्म की अहमियत समझाई थी, धर्म-अधर्म के बीच का अंतर बताया था। महाभारत वाली इस कुरुक्षेत्र की भूमि पर ही ऋग्वेद और मन्नुस्मृति जैसे धार्मिक ग्रंथ रचे गए हैं।
इजरायल की तरह क्या भारत भी कर सकता है हमला?
तराइन का युद्ध
करनाल की धरती भी युद्ध का इतिहास साथ लेकर चली है। इस महान धरती पर ही महान राजा पृथ्वीराज चौहान का शौर्य देखने को मिला था। साल 1191 में जब अफगानिस्तान से आए मोहम्मद घोरी ने आक्रमण किया था, इसी करनाल की धरती पर महान राजपूत राजा ने उसकी सेना को मुंहतोड़ जवाब देने का काम किया था। अब तब तो जीत के साथ करनाल में विजय पताका फहरा दी गई थी, लेकिन ठीक एक साल बाद 1992 फिर घोरी ने ही आक्रमण किया और इस बार पृथ्वीराज चौहान हार गए, उन्हें कई राजपूत राजाओं का ही साथ नहीं मिला था, जयचंद का धोखा तो इतिहास के पन्नों में सबसे बड़ी गद्दारी के रूप में दर्ज किया जाता है। माना तो यह भी जाता है कि पृथ्वीराज की उस हार के बाद ही हिंदुस्तान में इस्लाम का राज स्थापित हुआ था।
पानीपत का पहला युद्ध
पानीपत का पहला युद्ध भारत और हरियाणा के इतिहास के लिहाज से काफी निर्णायक माना जाता है। मुगल शासन का उदय इस युद्ध के बाद ही हुआ था। हरियाणा की धरती पर लड़ा गया यह युद्ध काफी विस्फोटक था, इसमें पहली बार मुगलों ने बारूद, आग्नेयास्त्रों और तोपों का इस्तेमाल किया था। यह युद्ध तब दिल्ली के लोदी वंश के सुल्तान इब्राहिम लोदी और पहले मुगल शासक बाबर के बीच में लड़ा गया था। लेकिन पृथ्वीराज को हराने वाला शासक बाबर के हाथों हार गया था।
पानीपत का दूसरा युद्ध
पानीपत का दूसरा युद्ध भी इतिहास के अहम पन्नों में से एक है। इस युद्ध को इसलिए जरूरी माना जाता है क्योंकि इस वजह से मुगलों का शासन और मजबूत हुआ था और अफगानों का खत्म होने की कगार पर आ गया था। यह युद्ध उत्तर भारत के हिंदू शासक हेमचंद्र विक्रमादित्य और अकबर की सेना के बीच हुआ था। अकबर ने अपने सेनापति खान जामन और बैरम खान को उस युद्ध की जिम्मेदारी सौंप रखी थी। उस युद्ध राजा हेमू ने काफी शौर्य दिखाया, मुगलों की फौज को बड़ा नुकसान पहुंचाया, लेकिन एक तीर ने उनसे वो युद्ध भी छीन लिया और भारत के इतिहास में मुगलों का अध्याय 300 साल और लंबा खिच गया।
करनाल का युद्ध
करनाल की धरती भी 1739 में भी लहूलुहान हुई थी, हरियाणा में तब मुगल शासन अपने अस्त की ओर था। असल में पारसी राजा नादिर शाह को हर कीमत पर मुगलों को हराना था, अफगानिस्तान पर कब्जा करने के बाद उसका अगला लक्ष्य हिंदुस्तान था। वो जानता था कि मुगलों की ताकत कम हो चुकी है, ऐसे में उसने मौके का फायदा उठाते हुए करनाल की ओर कूच कर दिया था। तब दिल्ली पर मुगल शासक मोहम्मद शाह का राज था। उसने नादिर को चुनौती देने के लिए अपनी एक लंबी-चौड़ी फौज, हजारों हाथी भेज दिए थे। जानकार बताते हैं कि नादिर की सेना काफी छोटी थी, संख्या के मामले में मुगलों के सामने कही नहीं टिकती। लेकिन क्योंकि रणनीति और हथियार नादिर के साथ थे, उन्होंने सही समय का इंतजार किया और जैसे ही मोहम्मद शाह की सेना उनके करीब आई, गोलियां बरसा दी गईं। मुगल शासक हार गया, मुगलों के शासन का अंत हुआ।
पानीपत का तीसरा युद्ध
पानीपत का तीसरा युद्ध मराठाओं और अफगानों के बीच में लड़ा गया था। इस युद्ध को काफी निर्णायक माना जाता है क्योंकि इसके बाद ही अंग्रेजों के लिए हिंदुस्तान के दरवाजे खुल चुके थे। उस युद्ध में अफगान सेना का प्रतिनिधि कर रहा था अहमद शाह अब्दाली और मराठाओं का प्रतिनिधित्व सदाशिव राव कर रहे थे। उस युद्ध में कहने को मराठाओं के पास ज्यादा बड़ी सेना थी, लेकिन अपनी रणनीति से अफगान सैनिकों ने मराठाओं को हरा दिया। बड़ी बात यह रही कि उस युद्ध में मराठाओं को किसी का भी समर्थन नहीं मिला, ना राजपूत साथ आए, ना सिख साथ आए। लेकिन दो शासकों ने अब्दाली को जरूर समर्थन दिया जिस वजह से युद्ध का रुख बदल गया।
नरनौल का संग्राम
हरियाणा के महेंद्रगढ़ में पड़ने वाले नरनौल का भी काफी शानदार इतिहास रहा है। हरियाणा का यह इलाका 1857 के संग्राम की वजह से इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। 16 नवंबर, 1857 को नरनौल का संग्राम छिड़ा था। तब झज्जर के नवाब अब्दुर रहमान ने रेवाड़ी के राव तुला राम, प्राण सुख यादव, कुशल सिंह जैसे वीरों के साथ मिलकर अंग्रेजों को चुनौती देने का काम किया था। उस चुनौती का असर यह रहा कि ब्रिटिश राज को काफी बड़े झटके दिए गए थे। उनके सबसे बड़े कमांडर जॉन ग्रांट को मौत के घाट उतार दिया गया। लेकिन अंग्रेजों की जवाबी कार्रवाई के आगे नवाब और उनकी सेना नहीं टिक पाई और उस तरह एक और युद्ध में हिंदुस्तान के नवाब को हार का सामना करना पड़ा।
वैसे एक बात गौर करने वाली है, पृथ्वीराज चौहान के अगर एक युद्ध को छोड़ दिया जाए, हरियाणा की धरती पर आक्रांताओं की ही जीत हुई है, हिंदुस्तान को मजबूत करने वाली ताकतें यहां पर युद्ध तो लड़ीं, लेकिन उन्हें ज्यादातर हार का ही सामना करना पड़ा।