Pahalgam News: 22 अप्रैल की उस दोपहर से, जब पहाड़ी पर स्थित घास के मैदान में गोलियों की आवाज गूंजी, तब से पहलगाम से निकलने वाली लिद्दर घाटी के पहाड़ों पर भय का माहौल छाया हुआ है। इससे नूर जहां और उसके पड़ोसियों का इस 10 घरों की बस्ती में जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। इनमें से ज्यादातर मिट्टी की झोपड़ियां हैं।

हर सुबह की तरह 40 साल की नूर जहां और उनका छह साल का बेटा खाना पकाने के लिए लकड़ियां इकट्ठा करने में व्यस्त हैं। कश्मीर में पहले से ही चिल्लई कलां का प्रकोप जारी है। मां और बेटा अपनी झोपड़ी से कुछ मीटर दूर एक छोटी मस्जिद के चारों ओर घूमते हैं और बीच-बीच में झुककर सूखी शाखाएं और टहनियां उठाते हैं। अब वे पहले की तरह पास के जंगलों में लकड़ियां लाने नहीं जा सकते। वह कहती हैं, ”हमें आगे जाना मना है, तो हम नहीं जाते।”

नूर जहां ने देखा था खौफनाक मंजर

नूर जहां ने उस दोपहर का खौफनाक मंजर देखा था, जब 26 नागरिकों का खून हरे-भरे मैदान पर बह गया था और पहलगाम हमेशा के लिए बदल गया था। वह अपनी झोपड़ी के बाहर खड़ी होकर देख रही थीं कि जवान और बूढ़े लोग मैदान से नीचे की ओर भाग रहे थे, चीख रहे थे, डर से कांप रहे थे। वह कहती हैं, “तब से मैंने सिर्फ वर्दीधारी पुरुषों को ही पहाड़ी पर ऊपर-नीचे जाते देखा है।”

अब, जिस साल नागरिकों पर हुए सबसे घातक आतंकी हमलों में से एक हुआ, वह साल अब खत्म होने वाला है, ऐसे में नूर जहां के लिए आगे बढ़ना मुश्किल हो रहा है। काश, यादों और डर को कैलेंडर के पन्नों की तरह पलटा जा सकता। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “हमला दोपहर में हुआ था। मैं शायद खाना बनाने में व्यस्त थी।”

अप्रैल का महीना पहलगाम में टूरिस्ट का सीजन होता है। यही वह समय भी है जब उनके पति को आसानी से काम मिल जाता है, क्योंकि बाजार और होटल भरे रहते हैं। पहलगाम के बाजार से आगे, सड़क 2.5 किलोमीटर तक ऊपर की ओर जाती है, फिर दो भागों में बंट जाती है। ये दोनों रास्ते एक बिंदु पर मिलते हैं, जिसके आगे एक किलोमीटर लंबा रास्ता बैसरन की ओर जाता है।

ये भी पढ़ें: पहलगाम हमले में NIA ने दायर की चार्जशीट

बैसरन जाने वाली सड़क सुनसान पड़ी है

हमले से पहले, बैसरन पहलगाम के तीन अन्य घास के मैदानों के साथ एक फेमस टूरिस्ट प्लेस था। हर टूरिस्ट सीजन में, लगभग 5000 टट्टू चालक टूरिस्टों को बैसरन ले जाते और वापस लाते थे। इस घास के मैदान की सबसे बड़ी खासियत इसकी लोकेशन थी। बैसरन तक ट्रेकिंग करने वाले टूरिस्ट अक्सर घने जंगल के बीच अचानक खुले मैदान को देखकर आश्चर्यचकित होने की बात करते हैं। चढ़ाई कठिन है, रास्ता पत्थरों से भरा है और ज्यादातर जगहों पर घोड़े पर सवार होकर ही पहुंचा जा सकता है, इस यात्रा में लगभग दो घंटे लगते हैं। चीड़ के पेड़ों के अलावा, पहाड़ी की पथरीली सतह पर बहुत कम वनस्पति उगती है।

लेकिन अब, बैसरन जाने वाली सड़क सुनसान पड़ी है और आतंकी हमले के बाद से सुरक्षा समीक्षा होने तक मैदान भी बंद है। उन्होंने कहा, “आम तौर पर, यह बहुत चहल-पहल वाला समय होता था। अब सब शांत है। यह किसी और दिसंबर जैसा नहीं है।”

36 साल के रौफ वानी, घास के मैदान तक जाने वाले 2 किलोमीटर के छोटे रास्ते पर धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हैं। हमले के बाद आठ महीनों में यह उनकी पहली पैदल यात्रा है और उनके साथ उनका टट्टू भी नहीं है। घास के मैदान की ओर घुमावदार रास्ते पर चलते हुए, टट्टू वाला कुछ-कुछ कदम पर रुक जाता है। वह सुरक्षा अधिकारियों द्वारा रोके जाने के डर से चारों ओर देखता है। वह कहता है, “मुझे टायरों के निशान दिखाई दिए हैं। अब तो केवल सेना के ट्रक या सरकारी वाहन ही टट्टू के रास्तों तक जाते हैं।”

बैसरन की चढ़ाई शुरू होते ही, दाहिनी ओर शहर दिखाई देने लगता है और विशाल गोल्फ कोर्स हरे कालीन की तरह फैला हुआ नजर आता है। पहलगाम में अभी-अभी बारिश रुकी है और दिसंबर की सुबह के हिसाब से यहां असामान्य रूप से धूप खिली है। वानी कहते हैं कि कठिन, एक घंटे की चढ़ाई के बाद, बैसारन में ज्यादातर टूरिस्टों को ऐसा ही महसूस होता है, जब मैदान खुलते हैं। उन्होंने कहा, “जैसे बारिश के बाद आसमान साफ ​​हो गया हो।”

लेकिन 22 अप्रैल के बाद सब कुछ बदल गया। उस दिन पार्क में गूंजी गोलियों की आवाज घने जंगलों में समा गई और नीचे की ओर नहीं पहुंची, जहां वानी उस समय मौजूद थे जब आतंकवादियों ने हमला किया था। उन्होंने कहा, “मैं दोपहर में पहाड़ी पर चढ़ने के लिए निकलने ही वाला था कि मुझे पार्क के बाहर खड़े एक टट्टूवाले का फोन आया। जब उसने मुझे बताया कि पार्क में गोलीबारी हुई है, तो पहले तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ। मैं पूरी जिंदगी उस रास्ते से आता-जाता रहा हूं और मुझे कभी डर नहीं लगा।”

महिलाएं और बच्चे ढलान पर दौड़ रहे थे- वानी

उस दिन पुलिस और स्थानीय सेना यूनिटों को किए गए उनके फोन पर भी वैसी ही अविश्वास भरी प्रतिक्रिया मिली। वानी का कहना है कि टूरिस्टों की मदद करने के लिए वह कम से कम 10 अन्य टट्टू मालिकों के साथ 40 मिनट में पहाड़ी पर चढ़ गए। उन्होंने कहा, “महिलाएं और बच्चे ढलान पर दौड़ रहे थे। हमने उनकी मदद की क्योंकि रास्ता पत्थरों से भरा हुआ था, जिससे ठोकर लगकर गिरने का खतरा था।” उन्होंने कहा, “उस दिन भी, मैं घास के मैदान के अंदर जाने की हिम्मत नहीं कर पाया।”

ये भी पढ़ें: कौन है कश्मीरी लड़का जिसका छत्तीसगढ़ में हुआ हीरो जैसा स्वागत? पहलगाम में लोगों की बचाई थी जान

पुलिस, एंबुलेंस और ऑल-टेरेन वाहनों के घटनास्थल पर पहुंचने से पहले, पूरे दिन के दौरान, उन्हें अपने आसपास के सभी लोगों पर छाए शोक और दहशत की लहर याद आती है। उन्होंने कहा, “पहलगाम में नौ गांव हैं। मुझे नहीं लगता कि उस रात किसी को चैन की नींद आई होगी। पहाड़ी पर चढ़ते समय मैंने जो कुछ देखा, उसे मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा। खून और क्षत-विक्षत शरीर। जब भी मैं इस रास्ते को देखता हूं, मुझे उस दिन के खून के धब्बे आज भी दिखाई देते हैं।”

उनका कहना है कि उस हमले ने सब कुछ बदल दिया। तब से, पहलगाम में टूरिस्टों की संख्या बहुत कम होने के कारण, वे चंदनवारी मार्ग पर अमरनाथ तीर्थयात्रियों और टूरिस्टों को लाने-ले जाने का काम करते हैं। वे कहते हैं, “हालांकि मैं यहां काम पर वापस लौटना चाहता हूं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैं कभी किसी और परिवार को बैसरन ले जा पाऊंगा।”

हमले से पहले वे बताते हैं टूरिस्ट के सीजन में पार्क गुलजार रहता था, व्यापारी इसके गेट के बाहर हस्तशिल्प, पश्मीना शॉल और पेपर माचे की वस्तुएं बेचते थे। उन्होंने कहा, “कई चाय की दुकानें भी थीं। पोनीवाले पार्क के गेट पर रुकते थे और फिर पर्यटकों को वापस (पहलगाम) बाजार ले जाते थे। एक परिवार घास के मैदान में दो घंटे आराम से बिताता था, नजारों का आनंद लेता था, पहाड़ियों से नीचे लुढ़कता था और जिप लाइनिंग करता था। कुछ दिनों तो वे रात 9 बजे तक रुकते थे।”

जबकि पर्यटन विभाग द्वारा बैसरन जाने के लिए टट्टू किराए पर लेने की दर 1320 रुपये है, वहीं वानी और अन्य लोग आमतौर पर मौसम के आधार पर ट्रेक के लिए लगभग 3000-4500 रुपये वसूलते हैं। पार्क से लगभग 2 किलोमीटर दूर, वानी झुककर एक बोर्ड उठाता है जिस पर लिखा है ‘बैसरन एडवेंचर ट्रेक में आपका स्वागत है।’ वह कहता है कि उसे ठीक से याद नहीं कि यह बोर्ड लकड़ी के बीम से कब टूटा। पहलगाम में, बैसरन की ओर इशारा करने वाले सभी साइनबोर्ड, जैसे कि यह बोर्ड, हटा दिए गए हैं या मिटा दिए गए हैं ताकि लोग उस रास्ते पर जाने से हतोत्साहित हों।

आगे चलने से इनकार करते हुए उन्होंने कहा, “ इससे आगे नहीं जाएंगे। यहां स्पष्ट निर्देश हैं कि यह जगह बंद है।” कस्बे की ओर लौटते हुए वानी कहते हैं, “आगंतुकों ने फिर से बैसरन के मैदान के बारे में पूछताछ शुरू कर दी है, वे पूछ रहे हैं कि क्या वे ऊपर जा सकते हैं, लेकिन हम सुरक्षा निर्देशों का उल्लंघन नहीं कर सकते।”

शहर में क्या है हाल?

29 साल के मोहम्मद यावर उन लोगों में से थे जो उस दिन पार्क के गेट के बाहर ग्राहकों का इंतजार कर रहे थे और दूसरे शॉल बेचने वालों से बातें कर रहे थे। आंखें बंद करते ही उन्हें उस दिन की गोलियों की आवाज सुनाई देती है। बैसरन जाने वाली सड़क के शुरुआती बिंदु पर सड़क किनारे खड़े होकर वे कहते हैं, “अगर मुझे कभी भी हमले के पीछे के लोग मिल गए, तो मैं उन्हें उनकी अमानवीयता का हिसाब चुकाने पर मजबूर करूंगा।” आजकल वे ज्यादतर समय यूं ही इधर-उधर घूमते रहते हैं, कुछ नहीं करते।

लेकिन आतंकी हमले से पहले, टूरिस्ट सीजन खूब फल-फूल रहा था। उन्होंने और अन्य शॉल विक्रेताओं ने एक शेड्यूल बना रखा था और बारी-बारी से बैसारन जाते थे “बेचने के लिए एक अच्छी जगह।” उनका कहना है कि बाकी शॉल विक्रेता उस दिन बाजार में ही रहते थे। उन्होंने कहा, “जब मैंने पहली बार अपने पीछे गोलियों की आवाज सुनी, तो मुझे लगा कि कोई पटाखे फोड़ रहा है। मेरे मन में यह ख्याल भी नहीं आया कि कोई इस जगह पर गोलियां चलाएगा।”

मैंने शॉल से भरा अपना थैला वहीं फेंक दिया- यावर

फिर यावर ने कहा कि उन्हें बाईं ओर से गोलियों की और आवाजें सुनाई दीं और उनके रोंगटे खड़े हो गए। उन्होंने कहा, “सब लोग भागने लगे। मैंने शॉल से भरा अपना थैला वहीं फेंक दिया और टूरिस्टों के साथ भागने लगा। पार्क से बाहर निकलते ही मुझे एहसास हुआ कि रुक-रुक कर गोलियां चल रही थीं।”

एक पल टूरिस्टों से भरा पार्क, अगले ही पल दहशत और चीख-पुकार सब कुछ अब दूर का सा लगता है। उन्होंने कहा, “ठंड के बावजूद, क्रिसमस और नए साल पर पहलगाम में कई टूरिस्ट आते थे। इस साल पहलगाम बिल्कुल खाली है।” कुछ ही मीटर दूर, पहलगाम बाजार की मुख्य सड़क पर 65 साल के मोहम्मद अयूब अपनी 85 साल पुरानी हस्तशिल्प की दुकान के दरवाजे पर खड़े होकर सर्दियों की धूप का आनंद ले रहे हैं। उनका कहना है कि इस क्रिसमस पर कारोबार बहुत खराब रहा है। अयूब ने कहा, “टूरिस्टों की संख्या में लगभग 80% की गिरावट आई है। फिर भी, मैं हर दिन दुकान खोलता हूं। मैं लगभग 45 सालों से यह दुकान चला रहा हूं। मुझसे पहले मेरे पिता इसे चलाते थे।”

पहलगाम ने अच्छे और बुरे दोनों दौर देखे हैं

पहलगाम ने अच्छे और बुरे दोनों दौर देखे हैं, लेकिन 22 अप्रैल के बाद सब कुछ बदल गया। उन्होंने कहा, “सबसे बुरे सालों में भी, यह माना जाता था कि पर्यटकों को कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन घास के मैदान में हुए हमले के बाद यह धारणा बदल गई।” अयूब ने पहलगाम शीतकालीन महोत्सव के लिए बाजार में लगाए जा रहे बैनरों और झंडियों की ओर इशारा करते हुए कहा, “यह महोत्सव हमेशा अच्छी भीड़ लेकर आता है और मुझे उम्मीद है कि लोग यह समझेंगे कि यहां वापस आना सुरक्षित है। मैंने काफी कारोबार किया है, काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं और मुझे पता है कि किसी न किसी तरह हालात हमेशा सुधर जाते हैं।”

बाजार में, लगभग 20 साल की उम्र के कुछ युवक स्टायरोफोम के कपों में कॉफी पीते हुए घूम रहे हैं और बारी-बारी से फोटो खिंचवा रहे हैं। ये चारों राजस्थान से कश्मीर में साल के अंत की यात्रा पर आए हैं। उनमें से एक कहता है, “मैं यहां चार दिनों से हूं। हम श्रीनगर में उतरे, गुलमर्ग गए और फिर पहलगाम आ गए।” उनका कहना है कि समूह के चार लोगों में से दो ने पहलगाम की यात्रा के बारे में अपने परिवारों को नहीं बताया है।

ये भी पढ़ें: ‘ऑपरेशन सिंदूर तो ट्रेलर था, आगे के लिए तैयार हैं’, आर्मी चीफ ने कही पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात