अनुवाद को हमारे यहां दोयम दर्जे का काम माना जाता है, इसलिए अनूदित कृतियों को बहुत महत्त्व नहीं दिया जाता। मगर ‘रेत समाधि’ को मिले अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार ने रेखांकित किया है कि अनुवाद भी मूल रचना के समतुल्य होता है। हालांकि कुछ लोग इस पुरस्कार के बहाने फिर से अनुवाद को छोटा काम ही साबित करने पर तुले हैं। यह बहस पुरानी है कि श्रेष्ठ कौन है- मूल रचना या अनुवाद। उसी बहस को आगे बढ़ाते हुए अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार को लेकर छिड़े विवाद का विवेचन और अनुवाद के महत्त्व पर चर्चा कर रहे हैं हरीश कुमार सेठी।

हाल में हिंदी साहित्य की सुपरिचित कथाकार गीतांजलि श्री को उनके उपन्यास ‘रेत समाधि’ के लिए अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसका ‘टूंब आफ सैंड’ नाम से अंग्रेजी अनुवाद अमेरिका में अध्यापन कर रहीं डेजी राकवेल ने किया है। हमारे यहां भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य के अनुवाद पर इसी प्रकार का पुरस्कार साहित्य अकादेमी द्वारा दिया जाता है, ताकि उनमें परस्पर आदान-प्रदान को प्रोत्साहन मिले। अंग्रेजी से इतर भाषाओं की उत्कृष्ट रचनात्मकता को अंग्रेजी माध्यम से अंगे्रजी भाषी समाज तक पहुंचाना बुकर पुरस्कार का मूलभूत उद्देश्य है। यह सुखद सूचना इसलिए भी है, क्योंकि गीतांजलि श्री यह पुरस्कार जीतने वाली हिंदी की पहली रचनाकार हैं।

भारतीय साहित्य जगत में इसे लेकर जहां एक ओर उत्साह और खुशी का माहौल है, वहीं वाद-विवाद भी चल रहा है। कुछ का कहना है कि गीतांजलि श्री को अपने हिंदी उपन्यास पर पुरस्कार नहीं मिला, बल्कि उसके अंग्रेजी अनुवाद को सम्मानित किया गया है। तकनीकी दृष्टि से भले यह सही लगता हो, लेकिन ऐसा कह कर मूल रचना, उसकी भाषा और कलात्मक वैशिष्ट्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती। अगर अंग्रेजी अनुवाद को ही बुकर पुरस्कार पाने का आधार माना जाए, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि रवींद्रनाथ ठाकुर की बांग्ला ‘गीतांजलि’ को भी ‘साहित्य का नोबेल पुरस्कार’ प्राप्त नहीं हुआ था, क्योंकि वह तो उसके ‘सांग आफ रिंग्स’ नाम से किए गए अंग्रेजी अनुवाद पर मिला था।

बुकर पुरस्कार की घोषणा के बाद होना तो यह चाहिए था कि भारतीय साहित्य जगत खुले मन से इसकी प्रशंसा करता, न कि आत्महीनता के भाव से ग्रसित होकर अनुवाद कर्म को मौलिक सृजन के समक्ष कमतर स्वीकार करते हुए पुरस्कार पर प्रश्न चिह्न लगाता। अनुवादक डेजी राकवेल ने भारतीय अनुभूतियों के ताने में बुनी जीवंतता से दुनिया को मूल रचना की साहित्यिक चेतना, मर्म और लक्ष्य से परिचित करवा कर भारतीय चिंतनधारा की मौलिकता से अवगत, उसकी गहनता से साक्षात कराया है। उनके इस प्रयास को किसी भी भाषा में लिखे उत्कृष्ट साहित्य को अनुवाद जैसे सशक्त माध्यम से इतर-भाषियों तक प्रस्तुत करने, उसे प्रचारित और प्रसारित करने को सार्थक और सराहनीय प्रयास के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।

समांतर सृजन है अनुवाद

वर्तमान संदर्भ में, यहां मौलिक सृजन-कर्म और रचनात्मक अनुवाद-कर्म के बीच संबंध की पड़ताल करने की जरूरत है। भाव, अनुभूति और कल्पना के आधार पर किसी एक भाषा में कहानी, कविता, नाटक आदि रचना एक सर्जनात्मक क्रिया है। इसे मूर्त रूप देने का कार्य ‘सर्जनशील लेखक’ करता है। शब्द और अर्थ के बीच सामंजस्य बैठाते हुए लेखक अपने सृजन कर्म से उस सहित भाव को व्यक्त करता है, जो ‘सर्वजन हिताय’ हो, लोक-हित की भावना से युक्त हो। रचनाकार को संसार से जो अनुभव प्राप्त होता है, उसे अपनी भाषा या चातुर्य के माध्यम से और कल्पना के आवरण में ढंक कर रचनात्मक अस्तित्व प्रदान करता है। लोकहित के उद्देश्य से युक्त इस प्रस्तुति को दूसरी भाषा में ले जाकर अनुवादक, लेखक के सार्थक कर्म को विस्तार देता है। लोकहित की भावना के प्रसार के आलोक में ये दोनों एक ही मनोभूमि पर खड़े नजर आते हैं। हमें इसके आधार पर मूल रचना और उसके अनुवाद कर्म के बीच परस्पर संबंध और महत्ता की गंभीरता से पड़ताल करने की जरूरत है।

लेखक और अनुवादक, दोनों ही अनुकरण करते हैं- लेखक प्रकृति का; और अनुवादक लेखक की भावानुभूतियों का मूल पाठ और विषयवस्तु पर आश्रित रहते हुए। कल्पना के आवरण वाले सृजित और कहानी-उपन्यास, कविता आदि किसी भी साहित्यिक विधा का रूप प्राप्त पाठ को दूसरी भाषा में सृजित करना, साहित्य-अनुवाद कर्म को ‘पुनर्सृजन’ (रिक्रिएशन), ‘पुनर्रचना’ या ‘अनुसृजन’ (ट्रांसक्रिएशन) की श्रेणी में ला देती है। इसमें अनुवादक सर्जक के मौलिक भावों, विचारों एवं चिंतन की अभिव्यक्ति को दूसरी भाषा में समांतर सृजित करता है, उसका सहपाठ तैयार करता है।

किंतु यह सहज कार्य नहीं। कारण, कोई भी साहित्यकार अपने मनोगत भावों-विचारों और संवेदनाओं को किसी भी प्रकार से ढाल कर प्रस्तुत करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र होता है- जैसी मर्जी हो और जो मर्जी हो लिखे या रचे। लेकिन, अनुसृजक या पुनर्सृजक को मूल संदेश (कथ्य) की लक्ष्मण-रेखा के भीतर अपने रचनात्मक कौशल से उसे दूसरी भाषा में अंतरित करने जैसा रचनात्मक कर्म करके वह दूसरी भाषा में एक नया रचना संसार रचता है। उसे मूल कृति की सृजनात्मक शक्ति और सौंदर्य को, उसके रूपपरक और शैलीपरक वैशिष्टय के आलोक में दूसरी भाषा में पृनर्सृजन करना होता है।

यह एक ऐसा सृजन-व्यापार है, जिसमें हमेशा सृजनात्मक प्रतिभा की अपेक्षा होती है। रचयिता तो अपनी कारयित्री प्रतिभा के बल पर मौलिक सृजन कर देता है, लेकिन अनुवादक कृति और विषय-वस्तु पर आश्रित रहते हुए समांतर सृजन करता है। अनुवादक मूल भाव जगत से समन्वय-तादात्म्य स्थापित करते हुए पुनर्सृजन करता है। इस कर्म में मूल रचना का रूपांतरण तो होता ही है, साथ ही उसका पुनर्नवीकरण भी होता है। उमर खय्याम की रूबाइयों का फिट्ज्जेराल्ड द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद और उसके आधार पर हरिवंश राय बच्चन द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद एक तरह से ‘अनुसृजन’ का ही प्रमाण प्रस्तुत करती रचनाएं नजर आती हैं। इसलिए इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए अनुवादक में सृजनशीलता और संवेदनात्मकता की अपरिहार्य अपेक्षा होती है। इसलिए अनुवादक का कर्म दोहरी प्रतिभा-संपन्न व्यक्तित्व की अपेक्षा रखता है। जो अनुवादक इस दायित्व को निभाने में सफल हो जाता है, वह मौलिक सृजक से कम सम्मान्य नहीं है।

डेजी राकवेल द्वारा किया गया ‘रेत समाधि’ का अंग्रेजी अनुवाद भी मौलिक सृजन के समकक्ष है। तभी तो मूल के समकक्ष भावों को व्यक्त करते अंग्रेजी अनुवाद से प्रभावित होकर इंटरनेशनल बुकर प्राइज देने वाली संस्था के निर्णायकों ने कहा कि ‘टूंब आफ सैंड उत्तर भारत की कहानी है, जो एक अस्सी वर्षीय महिला के जीवन पर आधारित है। ओरिजनल होने के साथ-साथ यह धर्म, देशों और जेंडर की सरहदों के विनाशकारी असर पर टिप्पणी है।’ अनूदित पाठ के आधार पर ही वे इस बात से सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं कि एक त्रासदी को गंभीरता से बयान करने के बजाय उपन्यास में एक ऐसे स्वर में पेश किया गया है, जिसमें सब कुछ नया है और पूरी तरह से मूल है। ल्ल