हिदी सिनेमा की दुनिया भले बहुत बड़ी हो पर यह दुनिया हिंदी के कवियों-लेखकों को बहुत रास नहीं आई है। यहां हमेशा उर्दू की तूती बोलती रही है। ऐसा इसलिए भी कि खासतौर पर उर्दू से जुड़े लोगों ने आम जबान के करीब रखकर अपनी बातें-कहीं-लिखीं।

ऐसे में अगर हम हिंदी की बात करें तो इस भाषा की संभावना और क्षमता के साथ जिस शख्स ने अद्भुत रचनात्मक प्रयोग किए, उनमें सबसे बड़ा नाम है गीतकार शैलेंद्र का। वे अपने समय के अत्यंत महत्त्वपूर्ण गीतकार थे। उनके लिखे गीत न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी मशहूर हुए। उनके गीतों के दम पर ही ‘आवारा’ जैसी फिल्मों को वैश्विक लोकप्रियता हासिल हुई। अलबत्ता उनके योगदान की हमेशा अनदेखी हुई।

बिहार के आरा जिले के धुसपुर गांव के दलित परिवार से ताल्लुक रखने वाले शैलेंद्र का असली नाम शंकरदास केसरीलाल था। उनका जन्म 30 अगस्त, 1921 को रावलपिंडी (जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में है) में हुआ था, जहां उनके पिता केसरीलाल राव ब्रिटिश मिलिटरी हॉस्पिटल में ठेकेदार थे। शैलेंद्र का अपने गांव से कोई खास जुड़ाव नहीं रहा क्योंकि वे बचपन से पिता के साथ पहले रावलपिंडी और फिर मथुरा में रहे। उनके गांव में ज्यादातर लोग खेतिहर मजदूर थे।

पिता की बीमारी और आर्थिक तंगी के कारण पूरा परिवार रावलपिंडी से मथुरा आ गया, जहां शैलेंद्र के पिता के बड़े भाई रेलवे में नौकरी करते थे। मथुरा में परिवार की आर्थिक समस्याएं इतनी बढ़ गई कि उन्हें और उनके भाइयों को बीड़ी पीने पर मजबूर होना पड़ता था ताकि उनकी भूख मर जाए। इन विपरीत हालात में शैलेंद्र ने किसी तरह अपनी पढ़ाई पूरी की और अपने काव्यात्मक अनुराग को बनाए रखा।

आर्थिक तंगी के बीच उन्होंने बंबई (मुंबई) का रुख किया। यहां माटुंगा रेलवे के मेकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में अपरेंटिस के तौर पर काम मिल गया। लेकिन वर्कशॉप के मशीनों के शोर और महानगरी की चकाचौंध के बीच भी उनके अंदर का कवि मरा नहीं और उन्हें अक्सर कागज-कलम लिए अपने में गुम अकेले बैठे देखा जाता था।

काम से छूटने के बाद वे प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यालय में अपना समय बिताते थे, जो पृथ्वीराज कपूर के रॉयल ओपेरा हाउस के ठीक सामने हुआ करता था। हर शाम वहां कवि जुटते थे। यहीं उनका परिचय राज कपूर से हुआ और वे राज कपूर की फिल्मों के लिये गीत लिखने लगे। उनके गीत इस कदर लोकप्रिय हुए कि राजकपूर की चार-सदस्यीय टीम में उन्होंने सदा के लिए अपना स्थान बना लिया। इस टीम में थे शंकर-जयकिशन, हसरत जयपुरी और शैलेंद्र।

उनके लिखे ज्यादातर गीत लोकप्रिय हुए। उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से समतामूलक भारतीय समाज के निर्माण के अपने सपने और अपनी मानवतावादी विचारधारा को अभिव्यक्त किया। ‘आवारा हूं या गर्दिश में’, ‘मेरा जूता है जापानी’ और ‘सब कुछ सीखा हमने’ जैसे कालजयी फिल्मी गीत रचने वाले इस गीतकार ने दबे-कुचले लोगों की आवाज को बुलंद करने के लिए भी कालजयी नारा दिया- ‘हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है।’

यह नारा आज भी हर श्रमिक संघर्ष के लिए मशाल के समान है। उन्होंने फणीश्वरनाथ रेणु की अमर कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित ‘तीसरी कसम’ फिल्म बनाई। फिल्म की असफलता और आर्थिक तंगी ने उन्हें तोड़ दिया। वे गंभीर रूप से बीमार हो गए और आखिरकार 14 दिसंबर, 1967 को महज 46 वर्ष की आयु में उनकी मौत हो गई।