समावेशी समाज एक ऐसे समाज को कहते हैं जहां सभी सदस्यों की सक्रिय, न्यायसंगत और सम्मानजनक भागीदारी हो। यहां तक कि ऐसे समाज में प्रत्येक व्यक्ति को उसकी जाति, लिंग, भाषा, धर्म का भेदभाव किए बिना समान महत्त्व दिया जाता है और उनका सम्मान किया जाता है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भी सभी की समान सहभागिता की बात की गई है, लेकिन सवाल है कि क्या इन संवैधानिक मूल्यों को प्रत्येक नागरिक अपनी चेतना का हिस्सा बना पाया है? अगर हां, तो फिर लैंगिक भेदभाव की चर्चा करना बेमानी हो जाता है। अगर नहीं, तो फिर समावेशी समाज की स्थापना कल्पना मात्र रह जाती है।

स्त्रीवादी विचारक इस बात से इनकार करते हैं कि महिलाओं और पुरुषों में असमानता प्राकृतिक और अपरिहार्य है। उनका यह भी मानना है कि पुरुष सत्तात्मक प्रणाली महिलाओं की स्वतंत्रता की कीमत पर पुरुषों की सभी श्रेणियों को स्वतंत्रता प्रदान करती है। इसलिए वे ज्ञान की उस व्यवस्था को भी चुनौती देते हैं, जिसे पुरुष वर्चस्व वाले समाज ने उत्पन्न किया है, क्योंकि पुरुष सत्ता से जुड़ा हुआ ज्ञान महिलाओं को ज्ञान देने वाले के रूप में स्वीकार करने से हिचकता है। इसलिए आज के विकसित और स्वतंत्र आधुनिक समाज में भी लैंगिक संवेदनशीलता पर चर्चा करना महत्त्वपूर्ण हो गया है।

पुरुष की नकल करने का महिलाओं पर लगता है आरोप

लैंगिक संवेदनशीलता सीखने की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है। इससे स्त्री-पुरुष समानता और महिलाओं की गरिमा को सभी नागरिकों, खासकर पुरुषों की चेतना और व्यवहार में शामिल करने का प्रयास किया जाता है। लैंगिक संवेदनशीलता की शिक्षा परिवार से शुरू होनी चाहिए जहां लड़के और लड़की के बीच भेदभाव एक सांस्कृतिक और समाजीकरण की प्रक्रिया के रूप में उपस्थित रहती है। वहां से चलती हुई यह पड़ोस, विद्यालय और पूरे समाज में विस्तार ले लेती है। मीडिया और सिनेमा में स्त्री एक वस्तु बन गई है, उसकी बुद्धि और रचनात्मकता को कम आंका जाता है। उसके व्यक्तित्व को शरीर, रूप-रंग और सुंदरता के आधार पर मूल्यांकित किया जाता है। अगर लैंगिक संवेदनशीलता को समाज के प्रत्येक नागरिक की चेतना का हिस्सा बनाना है, तो परिवार, स्कूल, मीडिया, धर्म और राजनीति जैसी संस्थाओं द्वारा किए जाने वाले समाजीकरण में समावेशी समाज, या कहें कि संवैधानिक मूल्यों को सिखाना होगा।

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सिमोन द बोउवार कहती हैं कि पुरुष को मनुष्य के रूप में और स्त्री को स्त्री के रूप में परिभाषित किया जाता है, क्योंकि जब भी स्त्री मनुष्य की तरह व्यवहार करती है, तो उस पर पुरुष की नकल करने का आरोप लगाया जाता है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि स्त्री को पहले मनुष्य के रूप में तो स्वीकार करना शुरू किया जाए। जब हम ‘वैश्विक लैंगिक अंतर सूचकांक’ की बात करते हैं, तो महिलाओं के संबंध में आर्थिक भागीदारी, शैक्षिक उपलब्धि, स्वास्थ्य और जीवन-यापन तथा राजनीतिक सशक्तीकरण के पहलुओं की जांच करते हैं। इन सभी पहलुओं पर हमें बहुत निराशाजनक स्थिति नजर आती है। यह वास्तविकता बताती है कि महिलाओं के पास कोई वास्तविक समानता, वास्तविक स्वतंत्रता और वास्तविक अधिकार नहीं हैं।

औसतन महिलाओं से ज्यादा कमाते है पुरुष

अगर महिलाओं की आर्थिक भागीदारी और अवसर की बात की जाए, तो भारत में महिलाओं के लिए औसत वेतन पुरुषों की तुलना में लगभग 20 से 30 फीसद कम है। शैक्षिक उपलब्धि के स्तर पर पुरुषों में साक्षरता दर 78.8 फीसद और महिलाओं में 59.3 फीसद है, इसके अलावा केवल एक तिहाई भारतीय महिलाएं इंटरनेट का उपयोग करती हैं, जबकि आधे से ज्यादा पुरुष इंटरनेट का उपयोग करते हैं। स्वास्थ्य और जीवन रक्षा के स्तर पर देखें, तो महिलाएं स्वास्थ्य सेवाओं तक कम ही पहुंच पाती हैं। भेदभावपूर्ण व्यवहार और असमान पोषण जैसे कारकों के कारण खराब स्वास्थ्य परिणामों का अनुभव करती हैं। इससे महिलाओं में मृत्यु दर अधिक होती है।

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राजनीतिक विश्व में महिलाओं की भागीदारी मामूली है। भारत में यह लगभग 14 फीसद है। राजनीतिक सहभागिता में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने की जरूरत है। वास्तव में महिला परिवार में अराजनीतिकरण की प्रक्रिया से गुजरती है, जो उसे अराजनीतिक बनाती है। परिणामस्वरूप उनके समकक्ष पुरुष उनके राजनीतिक विचारों और निर्णयों को नियंत्रित करते हैं। नेतृत्व और उच्च वेतन वाले पदों पर महिलाओं की संख्या कम है, जिससे आय का अंतर और बढ़ रहा है। ‘ग्लोबल जेंडर गैप’ की रपट के अनुसार पूर्ण समानता तक पहुंचने में अभी 134 वर्ष और लगेंगे।

स्त्री परिवार के साथ बच्चों का भी रखती हैं ध्यान

स्त्री परिवार में व्यस्त रहती है। बच्चों का पालन-पोषण करती है और अपेक्षा अनुरूप धार्मिक कार्यों को संपन्न करती है। इसके बावजूद परिवार में उसके घर के कामों को आर्थिक दृष्टि से नहीं गिना जाता। स्त्रीवादी लेखिका रोजा लग्जमबर्ग तर्क देती हैं कि जिस दिन औरतें अपने श्रम का हिसाब मांगेगी, उस दिन मानव इतिहास की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी चोरी पकड़ी जाएगी। इसलिए आज के समाज में इन सभी आयामों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। क्या लैंगिक समानता केवल एक दस्तावेजी वास्तविकता है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां महिलाएं कार्यरत हैं।

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स्त्री की आधारभूत भूमिका घरेलू है, इसलिए सभी समाजों में पारिश्रमिक केंद्रित अर्थव्यवस्था में वह हाशिए पर नजर आती है। दरअसल, महिलाओं को भावनात्मक, शारीरिक दृष्टि से कमजोर, निम्न बौद्धिक स्तर, स्वयं की सुरक्षा में असमर्थ माना जाता है। समझा जाता है कि जीवन के लिए वह पुरुष पर निर्भर रहती है। वह केवल घरेलू गतिविधियों के लिए निर्मित है, निर्णय लेने में असमर्थ है। धार्मिक-सांस्कृतिक दुनिया में सक्रिय भागीदारी पर भी कई बार सवाल उठते हैं। जबकि पुरुषों से आत्मविश्वासी, तर्कसंगत होने और निर्णय लेने में सक्षम एवं स्वाभाविक नेता होने की उम्मीद की जाती है। मगर इन विशिष्ट विशेषताओं का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, बल्कि यह विभेदीकरण तो समाज द्वारा निर्मित है।

पुरुष तथा महिला दोनों को मिलना चाहिए समान अवसर

समाजीकरण की प्रक्रिया में प्रतिमानात्मक परिवर्तन कर, समानता प्रदान करके, निर्णय लेने में भागीदारी के लिए प्रोत्साहन देकर तथा स्वायत्तता देकर इन लैंगिक पूर्वाग्रहों को दूर किया जा सकता है। इसके साथ ही औपचारिक संस्थाओं में पुरुष तथा महिला दोनों को भूमिकाओं में समान अवसर दिए जाने चाहिए, न कि उन्हें यह बताना चाहिए कि वे क्या कर सकती हैं और क्या नहीं। यह नहीं भूलना चाहिए कि वक्त बदल रहा है और आने वाले समय में राजनीति से लेकर कारपोरेट और कृषि से लेकर विनिर्माण क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका बढ़ने वाली है। इसलिए अब जीवन के हर क्षेत्र में महिला कर्मचारियों के महत्त्व को समझना होगा। उनकी योग्यता और प्रतिबद्धता का सम्मान करना होगा।