सच बोलने और सच की रक्षा के लिए महाभारत के युधिष्ठिर ने जान की बाजी लगा दी थी। एक झूठ जब बोला (याद रहे, अश्वत्थामा मर गया) तो भी उसे सच की चाशनी में डुबोकर बोला क्योंकि आखिर अश्वत्थामा (हाथी) की मौत तो हुई ही थी। लेकिन छोटे पर्दे पर बीआर चोपड़ा की महाभारत के ‘युधिष्ठिर’ गजेंद्र चौहान का अपने किरदार को आत्मसात करने का कोई इरादा दिखाई नहीं दे रहा। लिहाजा देश के प्रतिष्ठित फिल्म और टेलीविजन संस्थान के अध्यक्ष का पद संभालने के बाद और उस पर अपनी नियुक्ति को जायज ठहराते हुए उन्होंने फिल्म जगत में अपने अनुभव और अपनी फिल्मों का सही ब्योरा देना भी जरूरी नहीं समझा।
यह सच है कि चौहान का फिल्म जगत में पदार्पण 80 के दशक की शुरुआत में हुआ था। लेकिन तब से लेकर अब तक उनके खाते में कोई एक भी फिल्म उल्लेख के लायक नहीं। उनकी अदाकारी के क्षेत्र में पहचान टेलीविजन पर दिखाए गए धारावाहिक महाभारत से बनी जिसमें उन्होंने अपनी लीक से हटकर युधिष्ठिर की भूमिका अदा की। वरन इससे पहले का इनका करिअर तो ‘जंगलों’ में भी उलझा रहा। उन्होंने अमूमन दूसरे दर्जे की फिल्मों में काम किया जिसमें उनके फूहड़ संवादों पर प्रथम पंक्ति से तालियों की गूंज होती रही है। हालांकि यह भी शायद ही हो क्योंकि उन फिल्मों के दर्शकों की निगाहें परदे पर चौहाननुमा खलनायक को न ढूंढ़कर कुछ और ही ढूंढ़ती हैं।
देश की नई भारतीय जनता पार्टी की सरकार के साथ त्रासदी यह रही कि एक अरसे से सत्ता से बाहर रहने के कारण पार्टी के पास अपने मजबूत कॉडर के अलावा ख्यातिप्राप्त लोगों का साथ कम ही था। इस पर सरकार के ऊपर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में एक और सुपर शक्ति भी थी। यह अब एक सर्वविदित तथ्य है कि चौहान की नियुक्ति के तार सीधे संघ से जुड़े हैं। माना यह भी जा रहा है कि चौहान ने इस पद पर काबिज होने के लिए संघ के साथ-साथ अपनी राजनीतिक पहुंच का भी बराबर इस्तेमाल किया और उनके नाम का प्रस्ताव भी केंद्रीय सूचना और प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्द्धन राठौड़ ने किया। उनके प्रस्ताव के बाद इस नियुक्ति के बचाव में उनका आना हैरतनाक तो हो नहीं सकता, इसलिए उनका यह कहना कि ‘इसके अलावा भी मुद्दे हैं’, अपने अच्छे-बुरे के पक्ष में खड़े होने जैसा ही है।
इस पद पर नियुक्ति के लिए बड़े नामों से संपर्क साधने का सरकारी दावा खोखला सिद्ध हो चुका है। यह कहा गया था कि अडूर गोपालकृष्णन, राजकुमार हिरानी, जाह्नू बरुआ, विधु विनोद चोपड़ा और गुलजार सरीखे कलाकारों ने इस पद को ग्रहण करने से इनकार कर दिया क्योंकि इनके पास इसके लिए समय नहीं था। बाकी रही-सही कसर इस मामले में सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी से पूरी हो गई जिसमें यह साफ कहा गया है कि इस पद के लिए चौहान के अलावा किसी और नाम पर विचार ही नहीं किया गया।
जिस तरह समूची सरकार इस मुद्दे पर बचाव की मुद्रा में है उससे तो यह साफ जाहिर है कि सरकार खुद ही अच्छे से जानती है कि यह फैसला गलत है वरना सीना ठोंककर मानने में हर्ज क्या है कि हमने नियुक्ति की है, और अपनी मर्जी से की है। योग्यता से इस नियुक्ति को न्यायोचित ठहराना शायद ही संभव हो, क्योंकि यह माना जा रहा है कि इस पद के लिए सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का भी एक नाम हो सकता था। तो यादगार फिल्में देने वाले अडूर, बच्चन, चोपड़ा और गुलजार सरीखे नामों के सामने ‘खुली खिड़की’ या ‘राधा रानी रामकली’ के किरदार की क्या हस्ती होगी।
यह छुप-छुप के खेलने की जरूरत क्या है? ऐसा तो है नहीं कि भाजपा सरकार ने पहली बार ऐसा कुछ किया है। चुनिंदा लोगों को मनपसंद पदों पर लगाने की यह पहली घटना तो है नहीं। ऐसे कई पदों पर ऐसे महानुभाव सुशोभित हैं जो अपने बायोडाटा के बल पर शायद इंटरव्यू के लिए भी न बुलाए जाएं। इतना राजनीतिक साहस तो प्रचंड बहुमत से चुनी गई सरकार के पास होना ही चाहिए कि वह अपनी मर्जी को सच की चाशनी में लपेट कर पेश करने के बजाए धड़ल्ले से स्वीकार करे। आखिर कोई क्या कर लेगा? थोड़े ही दिनों में इस नियुक्ति पर उठा तूफान शांत हो जाएगा। लोग थक के चुप हो जाएंगे और सरकार का थोपा हुआ फैसला मंजूर हो जाएगा। यह बात शायद सरकार को इन लोगों से बेहतर पता है जिन्होंने तूफान उठाया है।
चाहे राजनीतिक क्षेत्र में, साहित्य में हों या फिर अदाकारी में सरकार की नियुक्तियां ऐच्छिक हैं और कहना न होगा कि इसी का लाभ भी उठाया जाता है। लेकिन शुचिता का दम भरने वाली सरकार से अपेक्षाएं इससे कहीं ज्यादा हैं। जो सरकार पारदर्शिता लाने और भ्रष्टाचार मिटाने का संकल्प लेकर आई हो उसके लिए अपनी इच्छा का ऐसा थोपारोपण क्या भ्रष्टाचार से कम है। योग्यता और क्षमता से समझौता करके अगर कोई नियुक्ति होती है तो क्या वह आपकी निरंकुशता का प्रतीक नहीं?
इस सारे प्रकरण में गजेंद्र चौहान का दोष शायद उतना नहीं, जितना सरकार का ठहरता है। अपने लिए प्रयास करना हरेक का स्वभाव है। चौहान भी इससे ऊपर नहीं। लेकिन जिन लोगों को इस नियुक्ति को हस्ताक्षरित करना था, यह फर्ज तो उनका था कि वे योग्यता की कसौटी पर उन्हें परखते। परंतु ऐसा नहीं हुआ क्योंकि जिन्हें नियुक्ति करनी थी, उनमें इतना सामर्थ्य नहीं था कि वे चौहान का नाम प्रस्तावित करने वालों का विरोध कर पाते।
मशहूर कलाकार ऋषि कपूर जो अब तक फिल्म जगत के दिग्गज का दर्जा पा चुके हैं, की यह अपेक्षा कि खुद चौहान को चाहिए कि वे इस्तीफा दे दें, मौजूदा हालात में यथार्थवादी प्रतीत नहीं होती। क्योंकि अगर चौहान की ऐसी कोई मंशा होती तो वे पहले तो इस पद को पाने का प्रयास ही न करते और अगर पा भी गए थे तो संयम से काम लेते न कि कथित तौर पर यह कहते, कौन है ऋषि कपूर या फिर अनुपम खेर। हालांकि वे अब इस बयान का खंडन कर चुके हैं।
ऐसे में यह जिम्मेदारी सरकार पर ही आती है कि वह चाहे तो इस पर पुनर्विचार करे। लेकिन अब तक के संक्षिप्त इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण न तो है और न ही होने की कोई संभावना दिखाई दे रही है।
किसने क्या कहा:
तो क्या छोटे लोगों की कोई जगह नहीं?
मुझे यह पद बालीवुड और टेलीविजन जगत में मेरे 34 सालों के योगदान को ध्यान में रखकर दिया गया है। मैंने कुछ ब्री गेड की फिल्में की हैं, लेकिन यह कोई कसूर तो नहीं है। मेरे खिलाफ छात्रों को भड़का कर साजिश की जा रही है। मेरी नियुक्ति केंद्र सरकार ने की है और मुझे केंद्र से जो निर्देश मिलेगा मैं उसका पालन करूंगा। मुझे जिम्मेदारी देने के साथ ही विरोध शुरू हो गया। किसी ने मुझे अब तक काम करने का मौका ही नहीं दिया है और मेरी काबीलियत जाने बगैर सवाल कैसे किए जा सकते हैं? राजनीति की अपनी विचारधारा होती है और क्रिएटिविटी की अलग। दोनों को मिलाकर नहीं देखा जा सकता है। मेरा काम देखे बिना बच्चों में इस तरह का रोष मेरी समझ के बाहर है। मैं पूरी ईमानदारी से संस्थान को नया चेहरा देने की कोशिश करूंगा। अगर आप बड़े नामों को ही काम देते रहेंग तो छोटे लोगों की कोई जगह नहीं होगी।… गजेंद्र चौहान
चुना गलत विकल्प
एफटीआइआइ जैसे संस्थान को एक दिन में किसी मंत्री और आला अधिकारियों के इशारे पर बंद नहीं किया जा सकता। अगर सरकार ने गलत विकल्प चुना है तो उसे सही करना उनपर निर्भर है। मैं व्यक्तिगत रूप से उनसे इस पद को ठुकराने का अनुरोध करूंगा क्योंकि इससे उन्हें कोई फायदा नहीं होगा। यह छात्रों के लिए अच्छा नहीं होगा। यह सभी संबद्ध लोगों के लिए नुकसानदेह होगा।… अडूर गोपालकृष्णन
मंदिर में रखिए, एफटीआइआइ में नहीं
अध्यक्ष पद पर गजेंद्र की नियुक्ति एक बेतुका फैसला है। क्या यह सारा वाकया शर्मनाक नहीं है? यह मंत्रालय का लिया गया एक शर्मनाक फैसला है। इस व्यक्ति (गजेंद्र चौहान) को जानता ही कौन है? जरा उनके काम को देखिए। ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति कर सरकार क्या करना चाहती है? इतना विवाद होने के बाद भी वे अपने पद से हटने को तैयार नहीं हैं। यह बहुत ही निराशाजनक है। आखिर हम कैसे देश में रह रहे हैं? अगर गजेंद्र चौहान युधिष्ठिर के रोल में इतने ही अच्छे थे, तो उन्हें आप मंदिर में रख लीजिए। एफटीआइआइ में नहीं।… कुंदन शाह, फिल्म निर्माता और एफटीआइआइ के पूर्व छात्र
अहंकार का विषय न बनाए सरकार
सरकार इस मुद्दे को अहंकार का विषय ना बनाए। सरकार को अपनी गलती स्वीकार करते हुए उसे सुधारना चाहिए। गजेंद्र चौहान का काम और उनका सोच फिल्म और टीवी संस्थान के योग्य नहीं है।… अमोल पालेकर
संस्थान से पास व्यक्ति को मिले बागडोर
आदर्श बात यह होगी कि संस्थान से पास होने वाले व्यक्ति को अध्यक्ष नियुक्त किया जाना चाहिए क्योंकि वह व्यक्ति पाठ्यक्रम और समस्याओं से अधिक परिचित होगा। जो लोग संस्थान से पास आउट करते हैं वे जमीनी हकीकत को जानते हैं और उनके हाथों में बागडोर होनी चाहिए क्योंकि वे स्थान, समस्याओं, पाठ्यक्रम और संस्थान को चलाने के बारे में जानते हैं। यह निराशाजनक है कि इतना राजनीतिक हस्तक्षेप है। यह सही नहीं है। यह एक रचनात्मक संस्थान है और इतना राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।… नवाजुद्दीन सिद्दिकी
संघ थोप रहा अपने कैडर
संघ खुद के सांस्कृतिक संगठन होने का दावा करता है लेकिन वह अपने कैडरों और विचारकों को सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त संगठनों पर थोपना चाहता है। एफटीआइआइ अध्यक्ष के रूप में गजेंद्र चौहान की नियुक्ति ऐसा ही एक उदाहरण है। गजेंद्र चौहान से इस्तीफे का आग्रह है।… दिग्विजय सिंह, कांग्रेस नेता
घातक साबित होगी सत्ता की दखलंदाजी
यह बेहद आपत्तिजनक है कि एक व्यक्ति जो बीआर चोपड़ा के महाभारत से उभर कर सामने आया, उसे संस्थान का अध्यक्ष बना दिया गया। मेरी दृढ़ राय है कि लोकतंत्र के और ऐसे संस्थानों के सिद्धांतों को ध्यान में रखे बिना देश भर में अपने एजंडा को लागू करने के लिए सत्तारूढ़ दल की बढ़ती दखलंदाजी घातक साबित होगी। मैंने सूचना और प्रसारण मंत्री से अनुरोध किया है कि वे इस मामले में दखल दें, ताकि जनहित में नए अध्यक्ष को फौरन हटाया जा सके।… शरद यादव, जद (एकी) अध्यक्ष
क्यों नहीं बोल रहे जेटली
कई मुद्दों पर स्पष्टीकरण देने वाले और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का भी बचाव कर चुके जेटली को इस मुद्दे पर बोलना चाहिए। यह खासकर जरूरी है क्योंकि उन्होंने कथित तौर पर कहा है कि चौहान सर्वश्रेष्ठ पसंद नहीं थे। यदि चौहान की नियुक्ति सही होती तो छात्र विरोध प्रदर्शन क्यों करते।… राज बब्बर, कांग्रेस नेता
लड़ें नहीं, इस्तीफा दें
अगर वे आपको नहीं चाहते तो नहीं चाहते। चेयरमैन के पद के लिए ज्यादा महत्त्वाकांक्षी होकर आप किसी का भला नहीं कर रहे हैं। अपने आत्मसम्मान की रक्षा कीजिए और पद से रिटायर हो जाइए। इस मुद्दे पर इतना विवाद और प्रदर्शन के बाद ये जरूरी है कि चौहान अपने पद से इस्तीफा दें। इससे वे छात्रों का ही भला करेंगे।… ऋषि कपूर
सुनी जाए छात्रों की
मेरा मानना है कि यह बिना फिल्म कनेक्शन के देश के विभिन्न हिस्सों से आने वाले व्यक्ति को एक अवसर देता है। लोग एफटीआइआइ ग्रेजुएट को काफी सम्मान के साथ देखते हैं और अब जो कुछ भी हो रहा है उसे सुन रहा हूं, नए अध्यक्ष की नियुक्ति छात्रों की इच्छा के खिलाफ की गई है। छात्रों के साथ यह उपयुक्त होगा कि वे क्या चाहते हैं उसे सही तरीके से सुनाएं। वे एक आकांक्षापूर्ण व्यक्ति को चाहते हैं जिसने काफी काम किया हो, अगर बहुत अधिक काम नहीं किया हो तो ऐसा काम किया हो जिससे वे प्रेरित हो सकें। संस्थान की स्वायत्तता भी महत्त्वपूर्ण है। कुछ दिशा-निर्देश हैं जिनका छात्रों को पालन करना है। पर जब बात कला के संस्थान की आती है तो मेरा मानना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संचालन परिषद और छात्रों के बीच संवाद की आवश्यकता है ताकि सबकुछ सौहार्दपूर्ण तरीके से हो।… रणबीर कपूर, यू ट्यूब पर अपने वीडियो में कहा
(मुकेश भारद्वाज)
