यूूक्रेन युद्ध ने बता दिया है कि तेल में दुनिया की अर्थव्यवस्था और राजनीति को अब भी हिला देने की ताकत है। वर्ष 1973 में जब अरब देशों पर तेल से जुड़े प्रतिबंध लगाए गए, तो दुनिया भर के बाजारों में महंगाई की दर दो अंकों में पहुंच गई। उस वक्त दुनिया में इस्तेमाल हो रही ऊर्जा का आधा हिस्सा सिर्फ तेल से आ रहा था। अब यह आंकड़ा सिमटकर लगभग एक तिहाई पर आ गया है।

कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने पिछले साल एक अध्ययन किया था, जिससे पता चला कि आधी सदी में जितने आर्थिक विकास के लिए एक बैरल तेल की जरूरत पड़ती थी, उतना काम अब आधे बैरल से कम तेल में हो सकता है। कुछ विश्लेषकों ने तो हाल के वर्षों में यह अनुमान भी लगाया कि दुनिया की अर्थव्यवस्था भविष्य में अपनी तेज रफ्तार से तेल उद्योग को हैरत में डाल सकती है। कुछ अन्य लोगों ने कोविड-19 की वजह से हुई तालाबंदी के दौरान ध्यान दिलाया कि बहुत कम तेल का उपयोग करके अर्थव्यवस्था कैसे चलेगी।

वर्ष 2021 में जब तेल की मांग लौटी और यूक्रेन युद्ध के बाद जिस तरह से तेल की कीमतें बढ़ीं हैं, उससे साफ हो गया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को तेल से मुक्त कराने में अभी कई दशकों तक कोशिशें करनी होंगी। कम समय में तेल की मांग को घटाना बहुत मुश्किल है। इसके लिए सैकड़ों खरब डालर की जरूरत होगी, जिससे कि बुनियादी ढांचे की जो विरासत है, उसे सिरे से बदला जाए। जैसे गाड़ियां और उपकरण।

तेल की कीमतों में इस साल की शुरुआत से 50 फीसद की तेजी आ चुकी है। पिछले साल जब कीमतें बढ़ीं, तो दुनियाभर के केंद्रीय बैंकों ने यह कह कर सांत्वना दी कि यह सब महामारी के दौर में जो प्रोत्साहन के पैकेज दिए गए, उनकी वजह से है और तात्कालिक है। अब तेल की ताजा बढ़ी कीमतों ने उस उम्मीद को ध्वस्त कर दिया है कि महंगाई की बढ़ी दर तात्कालिक है। वास्तव में इसने तो यह बिल्कुल साफ कर दिया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के अंदरूनी तंत्र में तेल कितनी गहराई तक घुसा हुआ है। आज पूरी दुनिया में आम लोगों को तमाम चीजों के लिए जो ऊंची कीमत देनी पड़ रही है, उसके पीछे कारण है युद्ध की वजह से तेल की आपूर्ति या कीमत पर पड़ा असर। प्लास्टिक या फिर उर्वरकों के लिए जरूरी पेट्रोकेमिकल से लेकर दुनिया के कोने-कोने तक सामानों को पहुंचाने में इस्तेमाल होने वाला ईंधन या फिर कच्चा तेल काफी महंगा हो गया है।

अमेरिका में संघीय एजंसियों का आकलन है कि प्रति बैरल तेल में 10 डालर की बढ़ोतरी से जीडीपी का विकास 0.1 फीसद घट जाता है और महंगाई 0.2 फीसद बढ़ जाती है। इसी तरह यूरोपीय केंद्रीय बैंक के रिसर्च के मुताबिक यूरोजोन में तेल की कीमत 10 फीसद बढ़ने का असर महंगाई में 0.1 से 0.2 अंकों तक इजाफे में दिखता है। दुनियाभर में तेल की सबसे ज्यादा मांग एशिया में है। यहां सबसे तेज विकास की भी जरूरत है। एशिया पर भी तेल की बढ़ी कीमतों का बहुत असर हुआ है। जापान और दक्षिण कोरिया ने ऊंची कीमतों से राहत देने के लिए सब्सिडी बढ़ा दी है।

दुनिया में तेल का सबसे बड़ा उत्पादक देश अमेरिका इस स्थिति से दूसरों के मुकाबले थोड़ा बेहतर तरीके से निपट सकता है। दुनिया की ऊर्जा जरूरतों में तेल की हिस्सेदारी 45 फीसद से घटाकर 31 फीसद तक लाने में 50 साल लग गए। ऐसे में यह सवाल बना हुआ है कि जीरो कार्बन अर्थव्यवस्था बनने की कोशिश में जुटे देश तेल की इस हिस्सेदारी को और घटाने में कितना समय लेंगे। 2019 में अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजंसी आइईए के एक विश्लेषक ने कहा था, हमारे अनुमान बताते हैं कि तेल पर निर्भरता तुरंत खत्म होने के आसार नहीं हैं। खासतौर से आयातित तेल पर। दुनिया तेल की सुरक्षा से चिंतामुक्त होने के बारे में नहीं सोच सकती।