आजादी के बाद से अभी तक भारत की जमीन का 20 प्रतिशत हिस्सा लगातार जंगलों से घिरा रहा है। इसी समयावधि में आबादी तीन गुना से ज्यादा बढ़ चुकी है। वहीं, 1951 से 1980 के बीच 42,380 वर्ग किमी जंगलों से घिरा हिस्सा (कुल वन इलाके का 62 फीसदी) कृषि के लिए इस्तेमाल कर लिया गया है। इन सब के बावजूद देश में आज भी फॉरेस्ट कवर आजादी के वक्त की तरह 20 फीसदी पर ही ठहरा हुआ है। इस हफ्ते फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) की ओर से द इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2017 जारी की गई है। इस रिपोर्ट में कई दिलचस्प आंकड़े सामने आए हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि 2015 के बाद से वन से घिरे भूभाग यानी फॉरेस्ट कवर में 6600 वर्ग किमी यानी करीब 0.21% का इजाफा हुआ है। इस द्विवार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक, 2007 के बाद पहली बार ‘घने जंगलों’ (Dense forest) में 5,198 वर्ग किमी का इजाफा हुआ है। यहां Dense Forest का मतलब बेहद घने (70 फीसदी या उससे ज्यादा ट्री कैनोपी डेनसिटी) और सामान्य घने जंगलों (40 फीसदी से ज्यादा और 70 फीसदी से कम ट्री कैनोपी डेनसिटी) से है। कागजों पर ये आंकड़े बेहद सकारात्मक लगते हैं।

यहां बता दें कि 1987 में FSI की पहली रिपोर्ट आने के बाद भारत के फॉरेस्ट कवर में सिर्फ 67,454 वर्ग किमी का इजाफा हुआ है। वहीं, घने जंगलों में द्विवार्षिक (2015-17) इजाफे के मामले में लेटेस्ट आंकड़ा कुल बढ़त का 10 प्रतिशत है। चार दशकों में घने जंगलों का विस्तार 49,105 वर्ग किमी में हुआ है।

हरियाली का मतलब जंगल नहीं!
सवाल उठना लाजिमी है कि बढ़ती जनसंख्या और दूसरे कारकों की वजह से वन्यभूमि पर पड़ रहे दबाव के बावजूद फॉरेस्ट कवर के आंकड़ों में ऐसा स्थायित्व कैसे है? यहां तक कि ये आंकड़े जंगलों से घिरी भूमि में बढ़त की ओर इशारा कैसे कर रहे हैं? पहली बात तो यह है कि FSI सैटेलाइट के जरिए ग्रीन कवर (हरियाली वाली भूमि) की जंगल के तौर पर पहचान करता है। इस वजह से प्राकृतिक वनों, वृक्षारोपण, जुलिफोरा और लैंटाना जैसे घने घास-फूस के अलावा ताड़, नारियल ,कॉफी, गन्ना जैसे लंबे वक्त में तैयार होने वाली फसलों में भेद नहीं किया जा पाता।

दूसरी बात यह है कि 80 के दशक में सैटेलाइट तस्वीरों से जंगली भूभाग की मैपिंग 1:1000000 के पैमाने पर की जाती थी। इस वजह से वे भूभाग जिनका आकार 4 वर्ग किमी से कम हैं, छूट जाते थे। अब संशोधित 1:50,000 पैमाने के जरिए छोटे से छोटे भूभागों, यहां तक कि एक हेक्टेयर (100 m x 100 m) जमीन को भी वन्यभूमि वाले इलाके में गिना जा सकता है। इसके अलावा, 10 प्रतिशत कैनोपी डेनसिटी वाले भूभाग को भी ‘जंगल’ मान लिया जाता है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि पहले फॉरेस्ट कवर का आकलन करते वक्त ऐसे लाखों छोटे-मोटे भूभाग नजरअंदाज कर दिए जाते थे। अब इन्हें भी आधिकारिक तौर पर फॉरेस्ट कवर के आंकड़ों में शामिल किया जाने लगा है।

ऐसे में नतीजे भी बेहद दिलचस्प हैं। उदाहरण के तौर पर, FSI की पहली रिपोर्ट में दिल्ली में सिर्फ 15 वर्ग किमी में जंगल होने की बात सामने आई थी। वहीं, ताजे रिपोर्ट में यह आंकड़ा बढ़कर 192 वर्ग किमी हो चुका है। यानी 30 सालों में 13 गुना का इजाफा। वहीं, कुल फॉरेस्ट कवर के एक तिहाई हिस्से को फिलहाल सघन (dense) माना गया गया है। ठीक ऐसे ही कृषि पर बहुत ज्यादा आधारित पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में 1980 के बाद से प्रति राज्य जंगलों में 1000 वर्ग किमी का इजाफा दर्ज हुआ।

यह कहना गलत नहीं होगा कि चार दशकों के सर्वे के बाद अब एफएसआई को भारत के ग्रीन कवर का आकलन और ज्यादा वास्तविक तरीके से करना होगा। इसके आकलन में कई छोटी-छोटी श्रेणियों यहां तक कि वृक्षारोपण वाले हिस्सों और बाग बगीचों को भी शामिल करना होगा। इससे पब्लिक ऑडिट के लिए उपलब्ध हर वन्य ईकाई का जीपीएस डेटा तैयार करने में भी मदद मिलेगी।